हमें तो अपनों ने लूटा …

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वैसे सिर्फ कांग्रेस के लिए यह बात अजूबा नहीं है, बल्कि इतिहास गवाह है कि अगर बड़े-बड़े साम्राज्यों के पतन की तलहटी में जाएंगे तो यही नजर आएगा कि अपनों की नीयत खराब होने पर ही ऐसा संभव हो पाया है। एक नजर अगर पानीपत के तीन निर्णायक युुद्धों पर ही डाल लें तो भी तस्वीर साफ हो जाएगी। पानीपत के पहले युद्ध में भारत में मुगल साम्राज्य की नींव पड़ी थी। अप्रैल 1526 में, काबुल के तैमूरी शासक ज़हीर उद्दीन मोहम्मद बाबर की सेना ने दिल्ली के सुल्तान इब्राहिम लोदी, की एक ज्यादा बड़ी सेना को युद्ध में परास्त किया था। पानीपत के इस युद्ध मे इब्राहिम लोदी युद्ध भूमि में मारा गया। इस तरह बाबर की विजय हुई। क्षेत्र के हिंदू राजा-राजपूतों ने इस युद्ध में तटस्थता का मार्ग चुना था, ग्वालियर के कुछ तोमर राजपूत इब्राहिम लोदी की ओर से लड़े थे। तो अपनों के साथ न देने और बाबर की बेहतर युद्ध प्रणाली से इब्राहिम को हारकर मैदान में ढ़ेर होना पड़ा। और फिर बाद में मुगल साम्राज्य ने सभी को घुटनों पर लाने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। इतिहास गवाह है।

वहीं पानीपत का द्वितीय युद्ध उत्तर भारत के हेमचंद्र विक्रमादित्य (हेमू) और अकबर की सेना के बीच 5 नवम्बर 1556 को पानीपत के मैदान में लड़ा गया था। अकबर के सेनापति खान जमान और बैरम खान के लिए यह एक निर्णायक जीत थी। इस युद्ध के फलस्वरूप दिल्ली पर वर्चस्व के लिए मुगलों और अफगानों के बीच चलने वाला संघर्ष अन्तिम रूप से मुगलों के पक्ष में निर्णीत हो गया और अगले तीन सौ वर्षों तक मुगलों के पास ही रहा। 1556 में दिल्ली की लड़ाई में अकबर की सेना को पराजित करने के बाद हेमू उत्तर भारत का शासक बन गया था। इससे पहले हेमू ने अफगान शासक आदिल शाह की सेना के प्रधान मंत्री व मुख्यमंत्री के रूप में कार्य किया था। हेमू वर्तमान हरियाणा के रेवाड़ी का एक हिन्दू था। 1553-1556 के दौरान हेमू ने सेना के प्रधान मंत्री व मुख्यमंत्री के रूप में पंजाब से बंगाल तक 22 युद्ध जीते थे। अगर इस युद्ध में हेमू के साथ दूसरे राजे रजवाड़े रहे होते तो शायद मुगल साम्राज्य का यहीं पर अंत हो सकता था।
पानीपत का तीसरा युद्ध अहमद शाह अब्दाली और मराठा सेनापति सदाशिव राव भाऊ के बीच 14 जनवरी 1761 को वर्तमान पानीपत के मैदान मे हुआ जो वर्तमान समय में हरियाणा में है। इस युद्ध में गार्दी सेना प्रमुख इब्राहीम ख़ाँ गार्दी ने मराठों का साथ दिया तथा दोआब के अफगान रोहिला और अवध के नवाब शुजाउद्दौला ने अहमद शाह अब्दाली का साथ दिया। इससे पहले अब्दाली किसी गद्दार की गद्दारी की वजह से मराठों की वास्तविक जगह और स्थिति का पता लगाने में सफल रहा था। वहीं अब्दाली की सेना को रसद की आपूर्ति भी भारत के राजाओं ने की थी। तो मराठा सेना रसद की कमी से भूखों मरने को मजबूर हुई थी।

तो इतिहास गवाह है कि चाहे शक, हूण, कुषाण की बात रही हो या फिर दिल्ली सल्तनत, मुगल साम्राज्य और अंग्रेजों की हुकूमत की राह साफ हुई हो, सभी के पीछे अपनों का अपनों का साथ न देना ही बड़ी वजह रहा है। और अब ऐसे ही हालातों का सामना अंग्रेजो भारत छोड़ो का आंदोलन चलाने वाली और अंग्रेजों को खदेड़कर भारत में सत्ता ग्रहण करने वाली कांग्रेस का हो रहा है। गांधी परिवार के चिराग राहुल गांधी जहां भारत जोड़ो यात्रा के जरिए ताकत बटोरने में जुटे थे, तो पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष के चुनाव ने भरोसेमंद माने जा रहे अशोक गहलोत की मंशा को मटमैला कर सामने रख दिया है। राहुल गांधी जहां भारत जोड़ो यात्रा में लगकर प्रेम और एकता की बात कर रहे हैं, तो कांग्रेस के विश्वस्त ही कांग्रेस छोड़ो और आपसी वैमनस्यता का माहौल बनाने से बाज नहीं आ रहे हैं। राजस्थान की खींचतान ने पार्टी के अंदर के घमासान को सड़क पर ला दिया है। यह बात समझ से परे हैं कि अशोक गहलोत जैसा वरिष्ठ नेता आखिर राष्ट्रीय अध्यक्ष और मुख्यमंत्री का पद साथ-साथ ढोने का ख्वाब कैसे सजा सकता है? क्या वास्तव में गहलोत की नजर में लूट सके तो लूट का भाव परवान चढ़ चुका था। ऐसे में जबकि बड़े-बड़े दिग्गज पहले ही कांग्रेस को विदा कहने में जरा भी नहीं सकुचाए, तब अशोक गहलोत जैसे वरिष्ठ नेता का बर्ताव अंतिम कील ठोकने वाला ही है। यदि इसे कांग्रेस का आंतरिक लोकतंत्र माना जाए, जिसमें सब फैसले सड़क पर उजागर कर छीछालेदर हो…तब संघर्ष कर रही कांग्रेस का भगवान ही मालिक है। संदेश यही जा रहा है कि पहले अपनों को तो जोड़ो और आंतरिक प्रेम और एकता मजबूत करो वरना कश्ती वहीं डूबने से कोई नहीं रोक सकता, जहां पानी कम ही है। और अपने ही लूटकर बर्बाद कर देंगे, गैरों में यह दम नहीं है।