जब नाश मनुज पर छाता है, पहले विवेक मर जाता है…

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जब नाश मनुज पर छाता है, पहले विवेक मर जाता है…

“दुर्योधन वह भी दे ना सका, आशीष समाज की न ले सका

उलटे हरि को बांधने चला, जो था असाध्य साधने चला

जब नाश मनुज पर छाता है, पहले विवेक मर जाता है

हरि ने भीषण हुंकार किया, अपना स्वरूप विस्तार किया

डगमग डगमग दिग्गज डोले, भगवान कुपित हो कर बोले

जंजीर बढ़ा अब साध मुझे, हां हां दुर्योधन बांध मुझे

ये देख गगन मुझमें लय है, ये देख पवन मुझमें लय है

मुझमें विलीन झनकार सकल, मुझमें लय है संसार सकल

अमरत्व फूलता है मुझमें, संहार झूलता है तुझमें”

यह कृष्ण-दुर्योधन संवाद है। इसमें यह वर्णन है कि कृष्ण कौरवों को समझाने और पांडवों को न्याय दिलाने के लिए मध्यस्थ की भूमिका में जाते हैं। तब दुर्योधन कृष्ण को ही बंधक बनाने की कुचेष्टा करता है। इस घटना को रामधारी सिंह दिनकर ने ‘रश्मिरथी’ में बहुत ही प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत किया है। रश्मिरथी के तृतीय सर्ग के भाग-3 में कृष्ण कि चेतावनी के रूप में यह कविता आज भी बहुत लोकप्रिय है। ‘रश्मिरथी’ रामधारी सिंह दिनकर का प्रसिद्ध खण्डकाव्य है। इसमें 7 सर्ग हैं और यह 1952 में प्रकाशित हुआ था। “जब नाश मनुज पर छाता है, पहले विवेक मर जाता है” यह पंक्ति तो सार्वकालिक है और हर काल में प्रासंगिक है।

 

आज रामधारी सिंह दिनकर को याद करने की खास वजह है। आज उनका जन्मदिन है। रामधारी सिंह ‘दिनकर’ ‘ (23 सितम्‍बर 1908- 24 अप्रैल 1974) हिन्दी के एक प्रमुख लेखक, कवि व निबन्धकार थे। वे आधुनिक युग के श्रेष्ठ वीर रस के कवि के रूप में स्थापित हैं। राष्ट्रवाद अथवा राष्ट्रीयता को इनके काव्य की मूल-भूमि मानते हुए इन्हे ‘युग-चारण’ व ‘काल के चारण’ की संज्ञा दी गई है।’दिनकर’ स्वतन्त्रता पूर्व एक विद्रोही कवि के रूप में स्थापित हुए और स्वतन्त्रता के बाद ‘राष्ट्रकवि’ के नाम से जाने गये। वे छायावादोत्तर कवियों की पहली पीढ़ी के कवि थे। एक ओर उनकी कविताओं में ओज, विद्रोह, आक्रोश और क्रान्ति की पुकार है तो दूसरी ओर कोमल श्रृंगारिक भावनाओं की अभिव्यक्ति है। इन्हीं दो प्रवृत्तियों का चरम उत्कर्ष हमें उनकी कुरुक्षेत्र और उर्वशी नामक कृतियों में मिलता है।

 

‘दिनकर’ जी का जन्म 24 सितंबर 1908 को बिहार के बेगूसराय जिले के सिमरिया गाँव में भूमिहार ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उन्होंने पटना विश्वविद्यालय से इतिहास, राजनीति विज्ञान में बीए किया। उन्होंने संस्कृत, बांग्ला, अंग्रेजी और उर्दू का गहन अध्ययन किया था। बीए की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद वे एक विद्यालय में अध्यापक हो गये।1934 से 1947 तक बिहार सरकार की सेवा में सब-रजिस्ट्रार और प्रचार विभाग के उपनिदेशक पदों पर कार्य किया। 1950 से 1952 तक लंगट सिंह कालेज मुजफ्फरपुर में हिन्दी के विभागाध्यक्ष रहे, भागलपुर विश्वविद्यालय के उपकुलपति के पद पर 1963 से 1965 के बीच कार्य किया और उसके बाद भारत सरकार के हिन्दी सलाहकार बने। उन्हें पद्म विभूषण की उपाधि से भी अलंकृत किया गया। उनकी पुस्तक “संस्कृति के चार अध्याय” के लिये साहित्य अकादमी पुरस्कार तथा ‘उर्वशी’ के लिये भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार प्रदान किया गया। अपनी लेखनी के माध्यम से वह सदा अमर रहेंगे। द्वापर युग की ऐतिहासिक घटना महाभारत पर आधारित उनके प्रबन्ध काव्य ‘कुरुक्षेत्र’ को विश्व के 100 सर्वश्रेष्ठ काव्यों में 74वाँ स्थान दिया गया।

1947 में देश स्वाधीन हुआ और वह बिहार विश्वविद्यालय में हिन्दी के प्रध्यापक व विभागाध्यक्ष नियुक्त होकर मुज़फ़्फ़रपुर पहुँचे। 1952 में जब भारत की प्रथम संसद का निर्माण हुआ, तो उन्हें राज्यसभा का सदस्य चुना गया और वह दिल्ली आ गए। दिनकर 12 वर्ष तक संसद-सदस्य रहे, बाद में उन्हें सन 1964 से 1965 ई. तक भागलपुर विश्वविद्यालय का कुलपति नियुक्त किया गया। लेकिन अगले ही वर्ष भारत सरकार ने उन्हें 1965 से 1971 ई. तक अपना हिन्दी सलाहकार नियुक्त किया और वह फिर दिल्ली लौट आए।

रामधारी सिंह दिनकर स्वभाव से सौम्य और मृदुभाषी थे, लेकिन जब बात देश के हित-अहित की आती थी तो वह बेबाक टिप्पणी करने से कतराते नहीं थे। रामधारी सिंह दिनकर ने ये तीन पंक्तियाँ पंडित जवाहरलाल नेहरू के विरुद्ध संसद में सुनायी थी, जिससे देश में भूचाल मच गया था। दिलचस्प बात यह है कि राज्यसभा सदस्य के तौर पर दिनकर का चुनाव पंडित नेहरु ने ही किया था, इसके बावजूद नेहरू की नीतियों का विरोध करने से वे नहीं चूके।

देखने में देवता सदृश्य लगता है

बंद कमरे में बैठकर गलत हुक्म लिखता है।

जिस पापी को गुण नहीं गोत्र प्यारा है

समझो समझो उसी ने हमें मारा है॥

1962 में चीन से हार के बाद संसद में दिनकर ने इस कविता का पाठ किया जिससे तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू का सिर झुक गया था। यह घटना आज भी भारतीय राजनीति के इतिहास की चुनिंदा क्रांतिकारी घटनाओं में से एक है।

रे रोक युधिष्ठर को न यहाँ, जाने दे उनको स्वर्ग धीर

पर फिरा हमें गांडीव गदा, लौटा दे अर्जुन भीम वीर –(हिमालय से)

इसी प्रकार एक बार तो उन्होंने भरी राज्यसभा में नेहरू की ओर इशारा करते हए कहा- “क्या आपने हिंदी को राष्ट्रभाषा इसलिए बनाया है, ताकि सोलह करोड़ हिंदीभाषियों को रोज अपशब्द सुनाए जा सकें?” यह सुनकर नेहरू सहित सभा में बैठे सभी लोगसन्न रह गए थे। किस्सा 20 जून 1962 का है। उस दिन दिनकर राज्यसभा में खड़े हुए और हिंदी के अपमान को लेकर बहुत सख्त स्वर में बोले। उन्होंने कहा-

देश में जब भी हिन्दी को लेकर कोई बात होती है, तो देश के नेतागण ही नहीं बल्कि कथित बुद्धिजीवी भी हिन्दी वालों को अपशब्द कहे बिना आगे नहीं बढ़ते। पता नहीं इस परिपाटी का आरम्भ किसने किया है, लेकिन मेरा ख्याल है कि इस परिपाटी को प्रेरणा प्रधानमंत्री से मिली है। पता नहीं, तेरह भाषाओं की क्या किस्मत है कि प्रधानमंत्री ने उनके बारे में कभी कुछ नहीं कहा, किन्तु हिन्दी के बारे में उन्होंने आज तक कोई अच्छी बात नहीं कही। मैं और मेरा देश पूछना चाहते हैं कि क्या आपने हिंदी को राष्ट्रभाषा इसलिए बनाया था ताकि सोलह करोड़ हिन्दीभाषियों को रोज अपशब्द सुनाएँ? क्या आपको पता भी है कि इसका दुष्परिणाम कितना भयावह होगा?

यह सुनकर पूरी सभा सन्न रह गई। ठसाठस भरी सभा में भी गहरा सन्नाटा छा गया। यह मुर्दा-चुप्पी तोड़ते हुए दिनकर ने फिर कहा- ‘मैं इस सभा और खासकर प्रधानमन्त्री नेहरू से कहना चाहता हूँ कि हिन्दी की निन्दा करना बन्द किया जाए। हिन्दी की निन्दा से इस देश की आत्मा को गहरी चोट पहुँचती है।’

उन्होंने सामाजिक और आर्थिक समानता और शोषण के खिलाफ कविताओं की रचना की। एक प्रगतिवादी और मानववादी कवि के रूप में उन्होंने ऐतिहासिक पात्रों और घटनाओं को ओजस्वी और प्रखर शब्दों का तानाबाना दिया। उनकी महान रचनाओं में रश्मिरथी और परशुराम की प्रतीक्षा शामिल है।उर्वशी को छोड़कर दिनकर की अधिकतर रचनाएँ वीर रस से ओतप्रोत है। भूषण के बाद उन्हें वीर रस का सर्वश्रेष्ठ कवि माना जाता है।

ज्ञानपीठ से सम्मानित उनकी रचना उर्वशी की कहानी मानवीय प्रेम, वासना और सम्बन्धों के इर्द-गिर्द घूमती है। उर्वशी स्वर्ग परित्यक्ता एक अप्सरा की कहानी है। वहीं, कुरुक्षेत्र, महाभारत के शान्ति-पर्व का कवितारूप है। यह दूसरे विश्वयुद्ध के बाद लिखी गयी रचना है। वहीं सामधेनी की रचना कवि के सामाजिक चिन्तन के अनुरुप हुई है। संस्कृति के चार अध्याय में दिनकरजी ने कहा कि सांस्कृतिक, भाषाई और क्षेत्रीय विविधताओं के बावजूद भारत एक देश है। क्योंकि सारी विविधताओं के बाद भी, हमारी सोच एक जैसी है।

अंत में दिनकर को उनकी रचनाओं के कुछ अंशों में जीते हैं…

किस भांति उठूँ इतना ऊपर?

मस्तक कैसे छू पाउँ मैं?

ग्रीवा तक हाथ न जा सकते,

उँगलियाँ न छू सकती ललाट

वामन की पूजा किस प्रकार,

पहुँचे तुम तक मानव विराट?

(हिमालय से)

क्षमा शोभती उस भुजंग को, जिसके पास गरल हो;

उसको क्या जो दन्तहीन, विषहीन, विनीत, सरल हो। — (कुरुक्षेत्र से)

पत्थर सी हों मांसपेशियाँ, लौहदंड भुजबल अभय;

नस-नस में हो लहर आग की, तभी जवानी पाती जय। — (रश्मिरथी से)

वैराग्य छोड़ बाँहों की विभा संभालो,

चट्टानों की छाती से दूध निकालो,

है रुकी जहाँ भी धार शिलाएं तोड़ो,

पीयूष चन्द्रमाओं का पकड़ निचोड़ो,

— (वीर से)

दिनकर की चिंताएं आज भी प्रासंगिक हैं। पंडित नेहरू को आइना दिखाने का काम दिनकर ने किया था।

ऐसे ‘दिनकर’ की जरूरत कल थी, तो आज भी है और कल भी रहेगी…।