इस रिपीट टेलीकास्ट से कांग्रेस आखिर मुक्त कब होगी?

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दो-तीन दशकों से राजनीति में यह लगातार हो रहा है कि जब भी चुनाव के नतीजे आते हैं, उसमें अक्सर कांग्रेस को करारी शिकस्त मिलती है।  कांग्रेस के कुछ कार्यकर्ता सोनिया गांधी जिंदाबाद, राहुल गांधी जिंदाबाद, प्रियंका गांधी वाड्रा जिंदाबाद के नारे लगाने लगते हैं। संगठन की सर्वोच्च कांग्रेस कार्यसमिति  की बैठक होती है।  हार पर चिंतन किया जाता है और यह निर्णय लिया जाता है कि मंथन जारी रहेगा। कांग्रेस अगले चुनाव में बहुत अच्छे से काम करेगी, लेकिन ऐसा कुछ भी होता नजर नहीं आता।  हर बार गांधी परिवार की जय जयकार और चिंतन के साथ सीडब्ल्यूसी की बैठक खत्म होती है।  वही जुमले दोहराए जाते हैं।  वही विश्वास व्यक्त किया जाता है और पार्टी फिर पुराने ढर्रे पर लौट आती है।

इस बार भी यही हुआ।

13 मार्च, रविवार की शाम सीडब्ल्यूसी की बैठक हुई और फिर घटनाक्रम का वही रिपीट टेलीकास्ट।  पार्टी पुन: अपने ढर्रे पर लौट आती है।  फिर वह अपनी रही सही कसर भी छोड़ देती है। अपना प्रभाव छोड़ देती है।  सबकुछ यंत्रवत। आज यह बात सही साबित होती लग रही है कि कांग्रेस को केवल सत्ता की चाशनी ही एकता के सूत्र में बंधे रख सकती है या फिर सत्ता की चाशनी का लालच। गांधी परिवार ने जब भी नेतृत्व से हटाने की बात कही, कुछ नेता बयान देने लग जाते हैं कि केवल गांधी परिवार ही कांग्रेस को सही नेतृत्व दे सकता है।  इस बार यह काम राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने किया।

अब कांग्रेस के पास केवल राजस्थान और छत्तीसगढ़ बचा है।  महाराष्ट्र और झारखंड जैसे राज्य में कांग्रेसी जूनियर पार्टी है।  कांग्रेस की दशा विधानसभाओं में बहुत अच्छी नहीं है।  लोकसभा में तो कांग्रेस के पास 10 प्रतिशत  सीटें भी नहीं है और 31 मार्च की राज्यसभा की 13 सीटों के चुनाव के बाद शायद कांग्रेस राज्यसभा में भी विपक्ष की भूमिका खो देगी।  और मल्लिकार्जुन खड़गे शायद राज्यसभा में विपक्ष के नेता नहीं रहेंगे। कहा जा सकता है कि कांग्रेस के दिन बिल्कुल अच्छे नहीं आनेवाले।

2022 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस में अपना सर्वनिकृष्ठ प्रदर्शन किया।  उसके नेताओं की सक्रियता अनुपलब्ध रही।  उत्तराखंड में कांग्रेस अपनी जीती हुई सीटें जीतते जीतते हार गई।  पंजाब में उसने आम आदमी पार्टी को सत्ता सौंप दी।  कहा जा सकता है कि पंजाब में कांग्रेस अपने ही भीतरी विवादों के कारण पीछे रह गई।  प्रियंका गांधी वाड्रा ने उत्तर प्रदेश में 40 प्रतिशत महिलाओं को कांग्रेस टिकट दिलवाया, जिनमें से एक को छोड़कर सभी पराजित हुई। ‘लड़की हूँ, लड़ सकती हूँ’ का नारा चुनाव में नतीजा नहीं दे पाया। चुनाव में शोशेबाजी काम नहीं आती, चुनाव शिगूफों के लिए नहीं, जीतने के लिए लड़ा जाता है।  पांच साल की तैयारी के लिए मिलते हैं। एक चूक भी हार की गर्त में पहुंचा सकती है।

कांग्रेस के अंदर ही अंदर 2 धड़ों में बंट गई है। एक ऐसा धड़ा है जो गांधी परिवार का अनन्य भक्त है, जैसा कि बीते रविवार की शाम दिल्ली में कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में देखने को मिला। दूसरा धड़े के कुछ लोग जो गांधी परिवार के नेतृत्व को स्वीकार नहीं करते, मौन रहे। मुखर कौन रहे?  राहुल गांधी को पार्टी अध्यक्ष बनाने  की मांग करने वाले!  राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत उसमें प्रमुख हैं। उन्होंने जब मांग कर डाली कि राहुल गांधी को कांग्रेस का अध्यक्ष पद स्वीकार कर लेना चाहिए। कथित जी-23 गुट के नेता भी बैठक में हाजिर थे लेकिन उनकी प्रखरता खुलकर सामने नहीं आ पाई।

गांधी परिवार के बारे में कोई कितना भी कुछ कहे लेकिन यह बात सच है कि अभी भी जनता को अपनी तरफ आकर्षित करने के लिए गांधी परिवार ही केंद्र बिंदु है।  जी-23 गट के कई नेता भी वास्तव में गांधी परिवार के ही रहमो करम पर  राजनीति कर पा रहे हैं।  उनमें से कई का कोई जनाधार नहीं है।

आखिर कांग्रेस पार्टी इतने मंथन के बाद कुछ करती क्यों नहीं ? जैसा मंथन कांग्रेस पार्टी आजादी के पहले करती थी और उसे अंजाम देती थी, वैसा मंथन और कार्य अब क्यों नहीं? अपने तमाम आनुषंगिक संगठनों की निष्क्रियता को वह लगातार अनदेखा क्यों कर रही है? कार्यकर्ताओं को लिजलिजा बनने से रोकने के लिए वह कार्य क्यों नहीं करती? उनके ठन्डे पड़ते खून में जोश का टीका क्यों नहीं लगाती? आम आदमी के दुःख और कष्टों को मुखर आवाज़ क्यों नहीं दे पाती? माना कि अनेक संवैधानिक संस्थाएं भेदभाव कर रही हैं, मीडिया पूरी ईमानदारी से काम नहीं कर रहा है, मतदाता उदासीन हो रहा है या एक विशेष प्रचार तंत्र से संचालित हो रहा है, तो ऐसे में चुनौतियां और ज़्यादा हैं। इसके लिए सामान्य से अधिक सक्रिय  होना पड़ेगा।  इसके लिए उसे स्वप्रेरित ही होना पड़ेगा।

कांग्रेस यह मानने को राजी नहीं है कि पिछले 20 वर्षों में भारत की राजनीति काफी बदल गई है। गत सात साल में तो उसमें नए प्रतिमान कायम हुए हैं। अब कार्यकर्त्ता मुफ्त के सेवादार नहीं हैं।  उनकी भी महत्वाकांक्षाएं अलग-अलग तरीके से सामने आती हैं। कार्यकर्ताओं को भी सम्मान, पद और धन की आशा होने लगी है। अब लोग अपनी विचारधारा के लिए दरी बिछाने नहीं आते।

कुछ वर्षों में ही सत्तारूढ़ दल ने राजनीति को एक पूर्णकालिक व्यावसायिक गतिविधि में बदल दिया है। अब सत्तारूढ़ दल विशालतम इवेंट करानेवाले किसी कार्पोरेट घराने में और कई सरकारी विभाग सत्तारूढ़ दल की सहायक कम्पनी में तब्दील हो गए हैं। जन कल्याण की योजनाएं वही है, मनरेगा वही है, निर्मल भारत स्वच्छ भारत हो गया है। गरीबों को घर देने, सस्ती गैस देने, स्कूल चलें हम, विनिवेशीकरण की योजनाएं भी रंग-रूप बदलकर आ गई हैं।

अब  यूपीए के ही एजेंडे को तोड़-मरोड़ कर वर्तमान सरकार चल रही है।  कांग्रेस ने सत्ता में रहते आम तौर पर (आपातकाल के अलावा) शक्ति का मनचाता उपयोग नहीं किया। जनहित की योजनाएं बगैर प्रचार के चलाई थी। अब हर योजना में टोंटी फंसाकर वोट निकाले जाने की प्रथा है। कांग्रेस को इससे जूझना है। इसीलिए अब उसे ज़्यादा शक्ति और सक्रिय संगठन की ज़रूरत है। अब कांग्रेस का मुकाबला एक बेहद धनवान पार्टी से है, जो अपने बूते पर जनमत को ललचा सकती है।

कांग्रेस ने मंथन बहुत कर लिया।  अब उसे कोरा मंथन नहीं, जमीन पर आकर काम करने की जरूरत है।  उसे राजनीति में लगातार सक्रिय रहने की जरूरत है।  हर दिन कार्यकर्ताओं के साथ बैठकर काम करने और रणनीति बनाने की ज़रूरत है। जरूरत है नतीजों की समीक्षा करने की!   अगर 40 प्रतिशत  महिलाओं को टिकट दिया गया उनमें से कितनी महिलाएं वास्तव में कांग्रेस पार्टी के लिए सक्रिय थी?  कांग्रेस के ही उन नेताओं ने उन महिलाओं को जिताने के लिए क्या-क्या किया?  जो लगातार कांग्रेस के टिकट के लिए सक्रिय रहते थे, क्या इससे उनका हौसला घटा? कोई स्वाट एनालिसिस क्यों नहीं होना चाहिए?

बदली हुई परिस्थिति में कांग्रेस के नेताओं को ड्राइंग रूम से बाहर आकर मैदान में काम करने की जरूरत है। पार्टी के भीतरी विवादों को सुलझाने के लिए अलग-अलग फोरम होने चाहिए, जो कांग्रेस में हैं लेकिन सक्रिय नहीं है। कांग्रेस के सक्रिय और निष्ठावान कार्यकर्ताओं की रिपोर्ट की कोई एक्सेल शीट पार्टी के पास होनी चाहिए।  हर बात पर गांधी परिवार की तरफ ताकना नेताओं को बंद कर देना चाहिए।  कांग्रेस का नेतृत्व ऐसे लोगों के हाथ में होना चाहिए जो लगातार सक्रिय रह सकें।  सोनिया गांधी पिछले कुछ समय से लगातार अस्वस्थ हैं और इन चुनावों में भी वे पार्टी के प्रचार के लिए नहीं जा सकी थीं।

मतदाता द्वारा दिए गए संदेशों की भाषा को पढ़ना चाहिए।  जब एक साधारण आदमी उन संदेशों को पढ़ने में सक्षम है, तब कांग्रेस के इतने विद्वान नेता उसे क्यों नहीं पढ़ और  समझ पा रहे हैं?  क्यों वे आपसी लड़ाई और आरोप-प्रत्यारोप में उलझे हैं? अपनी अंदरूनी लड़ाई के चलते कांग्रेस ने बिना चुनाव के मध्यप्रदेश खो दिया और चुनाव के बाद पंजाब। लापरवाही के चलते पांच साल पहले गोवा सहित कई राज्य खो दिए थे, अब भी नहीं समझ सके तो उन्हने समझाने कौन आएगा?