साँच कहै ता…! सत्ता को कभी भी नहीं सुहाए कबीर
कबीर कब पैदा हुए कब मरे, हिंदू की कोख से कि मुसलमान की, उन्हें दफनाया गया कि मुखाग्नि दी गई, इसका सही-सही लेखा जोखा किसी के पास नहीं। फिर भी उनकी जयंती ढलते जेठ की उमस भरी तपन के बीच पड़ती है। जबकि कबीर वैशाख की दोपहर के सूरज की तरह तीक्ष्ण और ज्वलनशील थे जिसके ताप को आज भी महसूस कर सकते हैं।
एक बार अपनी सरकार ने अगहन के शरदारंभ में ही कबीर का भव्य प्रकटोत्सव समारोह रच दिया तो मेरे मित्र ने आपत्ति की कि देखो न बेईमानों को इन्हें चुनाव के पहले कैसे कबीर याद आ रहे हैं। मैंने कहा- कबीर जैसे औघड़ महापुरुष का तो नित्यप्रतिदिन आठों याम, चौबीसों घंटे, प्रतिक्षण प्रकटोत्सव मनाया जाना चाहिए।इसमें क्या गलत, जिसका जब मन पड़े कबीर जयंती मना ले।
नाम की ही बड़ी महत्ता होती है, इस बहाने उस महापुरुष के कामों का भी स्मरण हो जाता है। अब कबीर के कहन का सवांश भी स्मरण हो आए तो भला ही भला। कबीर की जिंदगी तो मुक्त छंद है उन्हें कैसे भी गाओ। जिसने उन्हें जिस नजर से देखा उस तरह पाया।
कबीर ऐसे औघड़ हैं कि उनको जप के या उनकी कही कहके काम सधने की बजाय बिगड़ ज्यादा जाता है। इसलिए वे सत्ता को कभी भी नहीं सुहाए। जिनने पकड़ने की कोशिश की वो हाथ जला बैठे।
कबीर आग के गोले की मानिंद हैं, उनसे शीतलता की उम्मीद करना व्यर्थ है। वैशाख-जेठ की पूरी तपन उनमें समाई है। होश सँभालने के बाद से ही उनकी सत्ता से भिडंत शुरू हो गई। आज उनके साखी, सबद, रमैनी और दोहे बम्बगोला की तरह दमदमाते हैं।
मुझे याद है कि एक सरकार ने पाठ्यक्रम से उनके कई दोहे हटवा दिए थे। उनमें से एक दोहा यह भी था-
निंदक नियरे राखिए, आँगन कुटी छवाय,
बिन पानी साबुन बिना निर्मल करे सुभाय।।
अब भला बताएं इस चापलूस युग में निंदकों की कहां गुंजाइश। इमरजेंसी के दौर के अग्निधर्मा शायर दुष्यंत ने लिखा था-जिसकी नजर उठी वह शख्स गुम हुआ। सो सत्ता की नजर ..ढाई आखर प्रेम.. से पहले निंदक नियरे पर पड़ी और दोहा किताब से गायब। हमारी पीढी ने इसे पढा़ था, नयी पीढी तो ..दुनिया बुरा माने तो गोली मारो.. वाली है।
बहरहाल सरकार द्वारा निंदक नियरे वाले दोहे की कटौती का.. हल्ला विधानसभा में भी मचा था। इसके बाद हल्ला मचाने वालों की सरकार आई तो उसके एक उत्साही मंत्री में भारी कबीर प्रेम जागा। सो उन्होंने ने कबीर की जयंती पर आधिकारिक रूप से जनसंपर्क दिवस मनाने की घोषणा कर दी।
यह भी बड़ा मजेदार वाकया था। जो कबीर मरने के लिए काशी छोड़कर मगहर चले गए उन कबीर को सत्ता के साकेत में सिंहासन पर बैठा दिया गया। इसमें कबीर का तो कोई बस रहा नहीं सो उनकी जयंती में चारण-भाँटों की भाँति सत्ता की उपलब्धियों का उच्चारण होने लगा।
उन दिनों भी मैंने एक विनतीनुमा लेख लिखा था। भाई साहब जनसंपर्क को बरबाद मत करिए। यदि इन लोगों में कबीर की आत्मा उतर आई तो कहीं के नहीं रहोगे। कबीरदास का प्रेत आपको राजनीति नहीं करने देगा।
राजनीति में तो कई-कई मुँहों से अलग-अलग सुविधानुसार बोलना पड़ता है। कबीर तो खुली आँखोँ वाले संत थे। वे तो घर जारकर साथ चलने का आह्वान करते हैं। यहां तो राजनीति में घर बनाने आते हैं लोग। कल तक जो झोपड़े में थे आज महलों में हैं।
अब किसी दिन कबीरदास के प्रेत ने लुकाठी हाथ में थमा दी और कहा ले पहले अपना घर जार फिर चल हमारे साथ तो न तो आपकी राजनीति बचेगी और न ये सरकार।
ये अच्छा हुआ कि वे उत्साही मंत्री जी अगले साल कबीर जयंती को जनसंपर्क दिवस के रूप में नहीं मना पाए। वे प्रदेश की राजनीति से दफा हो चुके थे। कबीर दफ्तरों में टँगने से बच गए।
मैंने इस सरकार के एक असरदार नेता को सुझाया कि अपने अधिकारियों के प्रबोधन करने के लिए कवि भूषण और चंदबरदाई को पढना अनिवार्य कर दीजिए। क्योंकि जनसंपर्क के अधिकारी/कर्मचारी भी उन्हीं स्कूलों से वही किताबों को पढकर निकले हैं जिनमें ..कबीर का निंदक नियरे वाला दोहा पढा़या जाता था।
सुशासन के लिए ब्रेनवाश जरूरी है।
नेताजी ने जवाब में कहा- अब इसकी जरूरत नहीं हमने सीधे, सीधे भूषण, चंदबरदाई को ही आउटसोर्स कर लिया है। जो ..ठंडा मतलब कोका कोला.. का स्लोगन लिखते थे वही अब अपने लिए लिखा करेंगे। कबीर कितने महान हैं कइयों की आत्मा और दिमाग को ठंडे का तड़का लगने से बचा लिया।
कबीर, तुलसी से ज्येष्ठ थे। तुलसी ने आँखे बंदकर आत्मा से भक्ति करने की बात की। कबीर ने कहा आँखे खोलकर भक्ति करो। जो अच्छा लगे अच्छा कहो, बुरा लगे बुरा बताओ। आँखें भी दोनों खुली रहनी चाहिए। जिससे मस्जिद-मंदिर दोनों दिखें। और उनमें बैठे ढोढकविद्या रचने वाले पंडा मौलवी भी।
कबीर को चाहे निरक्षर लढ़े या डी.लिट वाला पढ़े सबको बराबर समझ में आते हैं। क्योंकि इन्होंने घुमाफिराकर कुछ भी नहीं कहा। कहने का अंजाम भी भोगा और बताया। इन्हें पढने-समझने के लिए किसी विद्वान व्याख्याता की भी कोई जरूरत नहीं।
मैंनें बचपन से अबतक इन्हें पढा़। हजारी प्रसाद द्विवेदी के कबीर को भी और पुरुषोत्तम अग्रवाल की ‘अकथ कहानी प्रेम की’ भी। कबीर को आप जितना ही पढते जाएंगे कबीर आपमें उतने ही घुसते जाएंगे।
लोककलाओं के विश्वप्रसिद्ध अध्येता कपिल तिवारी जब आदिवासी लोककला परिषद में थे तो उन्होंने मुझे एक विदेशी लिंडा हेस से मिलवाया था। किस देश की थीं यह तो मुझे याद नहीं लेकिन जब मैंने बताया कि मैं रीवा से हूँ तो उन्होंने रीमाराज्य से कबीर के रिश्ते के बारे में इतना कुछ बता दिया जितना अपने देसी अध्येता भी नहीं जानते।
कबीर का किसी राजव्यवस्था से भी कोई संपर्क हो सकता है यह असहज सी बात है। पर रीमाराज्य जो कि उन दिनों बाँधवगद्दी के नाम से जाना जाता था कबीर का व्यापक प्रभाव था। उन दिनों आधा छत्तीसगढ़ भी बघेल राजाओं के आधीन था। आप देखेंगे की आधे छत्तीसगढ़ और उन दिनों के रीवा राज्य के दूसरे हिस्सों में कबीर की स्मृतियाँ किसी न किसी रूप में हैं। बाबर के समकलीन राजा वीरसिंह देव से लेकर वीरभानु तक की गद्दी कबीर के शिष्यत्व में रही।
बाँधवगढ़ के सेठ धनी धरमदास तो कबीर के उत्तराधिकारी ही बन गए और कबीर पंथ को आगे बढ़ाया। सेन नाई भी बाँधव दरबार के थे। अमरकंटक में कबीर और नानक की भेंट हुई थी। गुरुग्रंथ साहेब में कबीर के सबद, साखियां और दोहे हैं। हमारी माटी में कबीर के संस्कार हैं। उनके सबदों की सुवास है इसलिए मैं ऐलानिया कहा करता हूँ कि ..आपन जात कबीर की..है।
जैसा कि मैंने कहा-कबीर को पढना,कबीर के भीतर घुसना या इसका विलोम भी। याने कबीर का आराधन कबीर को अपने दिलो-दिमाग में बैठाने जैसा है। ये पढकर बिसराए नहीं जा सकते हैं।
दुनिया के ये ऐसे विरले जीव हैं कि लिखा कुछ भी नहीं- मसि कागद छुयो नहिं कलम धरयो नहिं हाथ। इनकी कही बातों को जितना सहेजा गया ऐसा किसी के साथ नहीं हुआ। क्योंकि ये आँखिन देखी बयान करते हैं,कागद लेखी नहीं।
कबीर गरीब गुरबों की उम्मीद हैं। समुंदर के किनारे जलती हुई लाट हैं जो किसी को भटकने नहीं देते। कबीर के कहे को गीता की तरह ग्रहीत करना होगा तभी आत्मा की मैल साफ होगी, रूढियों की रतौंधी दूर होगी।
कबीर प्रतिक्षण याद किये जाने चाहिए। राजव्यवस्था कबीर से सीख ले तो उसे रामराज्य तक इंतजार ही नहीं करना होगा। कबीर और उनकी वाणी आज भी अमोघ है इसपर ..आधे से कछु आध.. भी अमल हो तो भारतवर्ष ही नहीं संपूर्ण विश्व का कल्याण हो जाए।