हूटर और पदनाम तख्ती पर कौन लगाएगा रोक..?

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हूटर और पदनाम तख्ती पर कौन लगाएगा रोक..?

श्रीप्रकाश दीक्षित की खास रिपोर्ट

दो एक महीने पहले जब प्रदेश कांग्रेस में डेढ़ सौ से ज्यादा महासचिवों/उपाध्यक्षों की नियुक्ति की गई तब इस बंदरबाट को तुष्टिकरण का नमूना कहा गया.इनमे दो चार को छोड़ अधिकांश शोपीस जैसे होंगे और लैटर पेड और विजिटिंग कार्ड छपवा कर बयानबाजी और रंगदारी में जुट जाएंगे. इनमें चार पहियाधारी नेता अपनी वाहनों पर नंबर प्लेट के आसपास या ऊपर पदनाम की तख्तियाँ भी लटका लेंगे. इस गैरकानूनी हरकत पर कोई कार्रवाई नहीं होगी क्योंकि सत्तारूढ़ पार्टी और उसके प्रकोष्ठों के पदाधिकारी, सांसद/विधायक/पार्षद और उनके प्रतिनिधि और निगम मंडलों की कुर्सियाँ तोड़ रहे नेता ऐसा पहले से ही कर ही रहे हैं!

ताज्जुब की बात यह है कि अब पार्षदों के भी प्रतिनिधि होने लगे हैं? क्या वक्त आ गया है..! लोकसभा सदस्य का प्रतिनिधि होना तो समझ आता है क्योंकि उनका चुनाव क्षेत्र कई जिलों में फैला रहता है, बाकी सारे हास्यास्पद हैं. बत्ती के बजाए हूटर और नंबरप्लेट पर पदनाम की तख्तियाँ लगाने के चलन पर अक्सर खबर छपती रहती हैं पर हुकूमत के कानों पर जूं तक नहीं रेंगती है. ऐसे में सरकारी हाकिम भी मूक दर्शक बन कर रह जाते हैं. हैरत है कि प्रजा से दूरियों वाले ये शाही दस्तूर 75 बरस से बदस्तूर जारी हैं. राज्यपाल और मुख्यमंत्री की सवारी निकलती है तो आगे पीछे वाहनों का लाव लश्कर होता है और यातायात रोक दिया जाता है.

लालबत्तियों पर लगी कुछ रोक से कम हुए रुतबे की भरपाई वाहनों की नंबर प्लेटों की सजधज से की जा रही है. पहले नंबर प्लेटों की सजधज उन नेताओं के वाहनों पर ज्यादा नजर आती थी जो बत्ती संस्कृति से वंचित थे. पत्रकारों के वाहनों पर प्रेस/पत्रकार लिखने का इस कदर दुरूपयोग होने लगा है कि वास्तविक पत्रकारों ने प्रेस शब्द से ही परहेज करना शुरू कर दिया है. रोब ग़ालिब करने के लिए पदनाम बड़े-बड़े लफ्जों में इस प्रकार लिखा जाता है कि गाड़ी नंबर नजर ही नहीं आता है. इस बुराई को खत्म करने के लिए मजबूत राजनैतिक इच्छाशक्ति की जरूरत है जो कहीं नजर ही नहीं आती।