food Science:
“Ghee”:चंदा मामा, तू चांदनी दे। और घी में रोटी डूबोकर दे, “घी” से डर कैसा?
डॉ सुमन चौरे
गाँव बहन का फ़ोन आया, भोपाल आए हैं, मिलने की इच्छा है। मैंने कहा- “ बहुत दिनों के बाद आई हो, मिलना काफी नहीं होगा। यहाँ रुकना और भोजन करना।”
भोजन पर से याद आई कि पूछ लेती हूँ, बच्चों की रुचि क्या है। पूरी-पराठे, दसमी या बाटी-बाफला बनाऊँ? पीछे से उसकी बेटी बोली- “अरे, आप तो कह दें, सादी दाल रोटी ही खायँगे।” बहन बोली, “सुन लिया होगा तुमने कि वो क्या खायेगी।” मुझे हँसी आ गई। देखी तो नहीं बेटी, पर सोलह-सत्रह साल की तो हो गई होगी। फिर भी गरिष्ट और घी के भोजने से इतना परहेज़। शायद अपने स्वास्थ्य के प्रति ज्यादा ही जागरूक है।
भोजन के समय मैंने जैसे ही भोजन परोसा, बेटी बोली, “हमें तो सिर्फ फुलका रोटी ही दीजिये मौसी, घी नहीं ।” मैंने कहा, “बेटी, एक कटोरी दाल में एक छोटा चम्मच और थोड़ा-सा फुलका पर लगायगे ही नहीं, तो भोजन का स्वाद कैसे बनेगा।” बेटी थोड़ी तिरछी हो गयी। सबके भोजन के बाद हम बहनें भोजन करने बैठे आराम से नीचे और जी भरकर घी खाया भी और घी जैसी बातें भी कीं।
दाल-भात या दाल-रोटी का स्वाद तो घी से ही बनता है। हमारे घरों की रसोई में तो नमक जैसे ही घी की उपस्थिति रहा करती थी। भोजन में घी को लेकर बहुत सारी मान्यताएँ, सूत्र होते थे। खिचड़ी के चार यार – ‘घी-पापड़-दही-अचार’, ‘घीव बिन चौका, पेट में आग धौका’। घी की इतनी सारी विशेषताएँ तो सूक्ति में थीं ही, पर हमारी आजी माँय कहा करती थीं जितना घीव खाओगे, दिमाग में उतनी तरावट रहेगी और उतनी बुद्धि भी बढ़ेगी। शरीर में ऊर्जा आयेगी वो अलग। अत: हम तो घी के बिना भोजन करते ही नहीं थे। एक आदत-सी हो गयी थी कि रोटी पर से घी बहता दिखे या भात-खिचड़ी में डब-डब दिखाई दे तभी खाते थे। ठंड के दिनों में तो जमें घी के गोले अँगुली से लिए और गटक लेते थे।
छात्र जीवन में तो घी के उपयोग को अनिवार्य बताया गया था। हमारे मोठा भाई परिवार में सबसे पहले पढ़ने ग्राम कालमुखी से खण्डवा गए। सत्यनारायण मन्दिर के पास के भोजनालय में भोजन करते थे। उनकी बैठक के नीचे छोटी-सी अलमारी जैसी जगह थी, उसके अन्दर वे अपनी घी की बरनी रखते थे। लाल श्यापी लपेटे पण्डित उनकी थाली रख कर जाते, तब तक वे नीचे से अपनी बरनी निकाल कर रख लेते थे। यद्यपि उनको भोजनालय के कर्मचारियों पर पूरा विश्वास था कि कोई भी उनके घीव को छुएगा नहीं। मैं भी बाद में आगे पढ़ाई करने के लिए खण्डवा आ गई। हमारी किरायेदार सुशीला की बाई हमारा भोजन बनाती थी। गरम-गरम परोसती थी। बीच में पूछ लिया करती थी “कौन-सी बरनी का घी किसको दूँ।”
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कालमुखी से घर का घी आता था। पीतल की चपटी पेंदी का लोटा था। घीव भरकर उसपर पलाश का पत्ता बाँध देते थे बाबूजी। फिर पलाश के पत्ते पर पीली मिट्टी का लेप कर देते थे। सुतली से लोटे के गले में रस्सी इस प्रकार बाँधते थे कि वह पकड़ की डोर (हेण्डिल) बन जाती थी। पहले एयर-टाइट डिब्बे जैसी कोई वस्तु या धातु के बर्तन नहीं होते थे। अक्सर घीव बैलगाड़ी से आता था। खण्डवा बाज़ार कोई सामान की ख़रीद फ़रोक्त करने आए या घर का लकड़ी, कण्डा, अनाज आये, महीने में दो-तीन बार तो घीव आता ही था। घर में सबका ध्यान रहता था कि ‘भणन्या बाळ खS घीव चायजे’ मतलब पढ़ने वाले बच्चों को घी खाना ही चाहिए।
पढ़ने वाले बच्चे ही क्यों घीव तो सबकी ही आवश्यकता और शान हुआ करती थी। हमारे छोटे आजा कहते थे कि घीव तो भोजन का राजा है। भात, खिचड़ी हो, रोटी या फिर ज्वार और मक्का का रोटा और फिर बाटी बाफला तो जब घीव में डुबकी ना लगा ले समझो कुछ खाया ही नहीं। मेरे एक दादा तो आमरस के कटोरे में पीसी हुयी शक्कर डलवाते थे, फिर ऊपर से शक्कर पर एक चम्मच घीव। शक्कर नीचे डूब जाती थी और घीव ऊपर तैरता रहता था। फिर अंगुलियों से घी को रस में डुबो-डुबो कर चाटते थे। वे कहते थे, “घीव जैसे भी खाओ, अच्छा ही लगता है।“
अगर विशेष अतिथि, ब्याही समधी आ जायँ तो फिर क्या कहने। पूरण पोळई तो बनना ही है। पूरण पोळई और घी का तो रिश्ता ही अनन्य है। हमारे घरों में पूरण पोळई के साथ घी परोसने के लिए पीतल की विशेष कटोरियाँ हुआ करती थीं। पूरण पोळई थाली में परोसी कि उसपर कढ़छी से इतना घी परोसते थे कि पूरण पोळइ डबरा जाय। थाली में कटोरी भर घी भी परोसा जाता था। ‘घीवS मंS डोबीS- डोबीS खायS,’ मतलब पूरण पोळई के टुकड़े करके कटोरी के घी में डुबो-डुबोकर खाया जाता था। । कटोरी में घी खतम नहीं होना चाहिये, यही परोसने वाली की कुशलता थी।
निमाड़ में विशेष अवसरों पर पूरण पोळई का भोजन होता था। पंगतों में भी पूरण पोळई पर डाली गई घीव की धार पत्तल पर से घी बह जाये, ऐसा परोसा जाता था घी। लड्डू-बर्फी, जलेबी, गुलाब-जामुन जैसे पकवानों की जगह मीठी थुली (दलिया) या गुड़-घी-भात की पंगतें होती थीं। उसमें छोटी बावड़ी से घी परोसा जाता था। मुट्ठीभर खाण्ड और उसपर कड़छीभर घीव। पंगतों में भात , दाल परोसने वाले चलते थे और फिर साथ में घी परोसने वाला उनके पीछे पीछे चलता था। बिना घी के पंगत की तो कल्पना ही नहीं की जात सकती थी। पक्की पंगत हो गई। पंगत से उठो तो हाथ की चिकनाई को पीली मिट्टी से हाथ धोकर ही छुटा सकते थे। कहाँ होते थे पहले घरों में साबुन-सोडा। सुबह का हमारा नाश्ता (भुमसार्यो) ही घीव से शुरू होता था। पिछली रात बासी दसमी पर घीव चुपड़ा, उसपर शक्कर जीरामण डाला और रोटी की पुंगी बनाई, खाई और सुबह का कोटा पूरा।
ससुराल आई तो यहाँ की एक घटना मैं सबको बड़ी ही रुचि से सुनाती हूँ। घी खाने या कहो कि पीने की। मेरी आजी सास कहा करती थीं, कि मेरे आजा ससुर बड़े ही नियम के पक्के और बात के धनी थे। आजी माय ने बताया कि एक बार दादाजी अपने खेत वाले गाँव से घीव अपने ही घर बैलगाड़ी पर सिवनी बनापुरा ला रहे थे। पीतल के लोटे में घी था। रस्सी से लटका कर ला रहे थे। एक अंग्रेज दरोगा ने सिवनी बनापुरा सीमा पर देखा तो उन्हें रोक दिया। कहने लगा, चुंगी का देढ़ आना दो। उन्होने उससे न्याय संगत बात बोली, पर वह दरोगा नहीं माना और देढ़ आने पर ही अटका रहा। दादाजी को गुस्सा आया। उन्होंने लोटा उठाया और घी पी गए। फिर दरोगा से कहा, “ले अब किस चीज का चुंगी कर लेगा।” और गाड़ी वाले से कहा, “चल दौड़ा गाड़ी ।” मुझे बहुत खुशी हुई कि मैं ऐसे घी पीने वाले ससुरजी की प्रपौत्र वधु हूँ।
अब लोग क्यों घी नहीं खाते या घी खाने से डरने क्यों लगे हैं? डॉक्टरी सलाह है घी नहीं खाना। या फिर कई लोगों को भ्रांति हो गई है कि घी शरीर के लिए नुकसानदायक है। घी के बिना मुझे भी भोजन नहीं भाता। मुझे तो याद है कि लोरी सुनाते समय झोली में ही बच्चे को ‘घी खाना जरूरी है,’ ऐसा सिखा दिया जाता था। एक लोरी-
आरे चाँद भसी बाँध, दूधS घीS की वावड़ी
नानी म्हारी बणसे रुणझुणS लाड़ी
अर्थात् चंदा मामा आ जा। हमारे घर भैंस बाँध दे। दूध घी की बवड़ी बनेगी, मेरी छोटी रानी दूध-घी आयेगी और रुणझुण दुलहन बनेगी।
चन्दामामा चन्दीS दS,
घीव मंS रोटी बोळई दS,
नानो म्हारो खायSनी,
नंS झुम्मक लाड़ी आव नी
अर्थात् चंदा मामा, तू चांदनी दे। और घी में रोटी डूबोकर दे। नन्हा बेटा अगर घी में डुबोई रोटी नहीं खायेगा तो झुम्मक लाड़ी नहीं आयगी।
तब आमतौर पर घी को घरों में ही बनाया जाता था। बाज़ार में घी के पैकेट या डिब्बे आमतौर पर नहीं मिलते थे। घीव मात्र खाने की वस्तु नहीं होती थी। पहले नाते रिश्ते निभाने के काम की वस्तु भी थी। वार-त्योहार किसी के घर घी की आवश्यता हो, तो उसे सहर्ष दिया जाता था। ब्याह शादी हो, किसी के घर कोई बड़ा काम हो, मिलने जाओ तो साथ घी ले जाओ। किसी के घर बहू-बेटी की अबरात हुई तो घी लेकर मिलने गए। बच्चा हुआ तो घी लेकर मिलने गए। बच्चों के दाँत निकलें तो देखने जाओ तो घी ले जाओ। किसी का आँख का ऑपरेशन हुआ तो घी ले जाओ। ऐसी मान्यता थी कि घी निथरता सीरा (हलवा) खाने से आँखें जल्दी अच्छी होती है, और शरीर नरम बना रहता है। न जा पाये रिश्तेदारी में किसी कारण से, औक अगर घी ही भेज दिया तो रिश्ते घी जैसे स्निग्ध बने रहते थे। इतना ही नहीं, मेहमानों की आवभगत भी सीरा से ही होती थी। घी की महिमा ही न्यारी है। सर्दी शुरू हुई कि बहन-बेटियों के घर उड़द-गोंद-बादाम के घी में बने लड्डू भेजो। भगवान के लिए भोग भी घी का ही बनता था।
दादी और नानी माँ की पारम्परिक चिकित्सा पद्धति का ये एक प्रमुख अंग रहा है। कई बार सर्दियों में बच्चों की मालिश भी घी-तुलसीजी–हल्दी मिलाकर की जाती थी। जुखाम होने पर गर्म दूध में हल्दी और घी मिलाकर पिलाया जाता था। त्वचा जलने की जगह पर घी मल दिया जाता था। घी के साथ काली मिर्च, तुलसीजी और हल्दी के कई नुस्खों पर लोगों का पूरा भरोसा था। कब्ज की लंबी शिकायत दूर करने के लिए आधा पाव गर्म दूध में दो चम्मच घी मिलाकर एक सप्ताह तक दिया जाता था। घी की रोगहर शक्ति और ऊर्जा के बारे में कहा जाता था- “हर्र, बहेड़ा, आँवला संग घी मिस्री जो खाये, काँख में हाथी दबाकर तीन कोस ले जाये ।”
घी को इसके अनेकों औषधीय गुणों के कारण दैनिक आहार का अनिवार्य अंग माना जाता था। विशेष बात यह है कि इसके औषधीय गुणों का लाभ लेने के लिए इसे किसी औषधी या जड़ी-बूटी के साथ दवा के रूप में खाने की आवश्यता नहीं है, अपितु दैनिक भोजन के साथ ग्रहण करने पर भी इसके चमत्कारिक प्रभाव दीखते हैं। भोजन के दूसरे अवयवों में उपस्थित विटामिनों और खनिजों के शरीर में अवशोषण की प्रक्रिया में भी घी मदद करता है। इससे रोगप्रतिरोधी क्षमता बढ़ती है। स्मरण शक्ति बढ़ाने के लिए भी घी का नियमित उपयोग किया जाता है।
आधुनिक वैज्ञानिक निष्कर्ष भी घी के गुणों को वैज्ञानिक भाषा में बताते हैं। वसा में घुलनशील विटामिन ए, डी और ई घी में प्रचुर मात्रा में पाये जाते हैं। विटामिन के-2 से भी घी समृद्ध रहता है। गर्भ में शिशु की त्वचा और दाड़ के विकास में के-2 की महत्तम भूमिका होती है। घी में ब्युटरिक अम्ल पाया जाता है जो कि आँतों की कोशिकाओं के पोषण और रखरखाव के लिए आवश्यक है। इससे पाचन प्रक्रिया सुचारू रूप से चलती है। घी को आँखों की अच्छी सेहत के लिए वरदान माना जाता है। ये आँखों पर दबाव को नियंत्रित करता है और मोतियाबिंद के मरीजों के लिए लाभकारी है। हाल ही में सामने आए कुछ अध्ययनों के अनुसार कोलेस्ट्रॉल घटाने की दिशा में घी की सहायक भूमिका पर शोध किया जा रहा है।
हमारी घी-वार्ता सुनकर बहन की बेटी बोली, “माँ, मौसी अब घी के सरोवर से बाहर निकलो भी, बहुत डुबकियाँ लगा लीं। आप कितने ही घी के गुण गाएँ, हम नहीं खायँगे घी-वी। अब, आपने खाया इतना इतना निखालिस घी है भी क्या? अब आपके जितना घी हम खायें तो दिमाग चले तो नहीं, उल्टा दिमाग में जम जाय। ऐसे घी खाने से तो नहीं खाना ही ठीक है।”
पहले घी तो बहुत खाया जाता था, अभी भी प्रचलन में है। किसी भी आहार की अपच हानिकारक है। घी पचाने के लिए मेहनत लगती थी। लेकिन घी को पचाने के लिए पहले जॉगिंग करने या जिम जाने की आवश्यकता नहीं होती थी। दैनिक जीवन कार्यों की पूर्ति के लिए आवश्यक परिश्रम से ही घी पच जाता था। लोगों का पैदल आना जाना बहुत होता था। गाँवों में पानी भरने के लिए कुँए सभी घरों में नहीं होते थे, तब कुँए से पानी भरने की क्रिया में ही अच्छी कसरत हो जाती थी। नहाने औऱ कपड़े धोने के लिए आमतौर पर गाँव की नदी या तालाब तक जाना होता था। खेत या कार्यालय जाना हो तो चलकर जाते थे। खेत दूर हो या गाँव बाहर का हाट करना हो, तब ही बैलगाड़ी का उपयोग होता था। शहरों में घर से कार्यालय की दूरी अधिक होने पर सार्वजनिक वाहनों से यात्रा होती थी। फिर बस स्टॉप तक भी पैदल ही जाना होता था। घर के ज्यादातर काम जैसे कपड़े धोना, अनाज पीसना आदि घर की महिलाएं ही करती थीं। झाड़ू-पोछा, लीपा-पोती से भी नियमित कसरत हो जाती थी। कई बार पुरुष और बच्चे भी मोहल्ले की चक्की से अनाज पिसवाने के लिए पैदल ही जाते थे।
गाँव और शहरों के अखाड़ों में भी शारीरिक सौष्ठव के लिए घी का गुणगान किया जाता था। कुश्ती हो या फिर कबड्डी या खो-खो के खिलाड़ी, सभी का भरोसा होता था घी पर। बच्चे भी पूरे गाँव या शहरों में अपने मोहल्ले के बाहर दूर जगहों तक भी खेलते थे। मैदानी खेलों और दौड़ा-भागी पर ही पूरा जोर होता था। रात में भोजन के बाद समूह में सभी आस-पास एक चक्कर लगाने अवश्य जाते थे। अब तो हर उम्र के लोगों का शारीरिक श्रम कम हो गया है। तो घी से डर भी लगने लगा है। घी के लाभों को देखते हुए परिश्रम को जीवन का अंग बनाने की आवश्यकता है, जिससे घी से डर के हौवे को भी भगाया जा सके।
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