सत्य नेपथ्य के :कर्मा की भक्ति व सालबेग की आस्था संग जगत के नाथ जगन्नाथ की पुरी से (पार्ट 2)

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सत्य नेपथ्य के

कर्मा की भक्ति व सालबेग की आस्था संग जगत के नाथ जगन्नाथ की पुरी से (पार्ट 2)

सम्पूर्ण जगत के नाथ कहलाने वाले श्री जगन्नाथ प्रभु की पुरी की 8 दिवसीय यात्रा के अनुक्रम में,अपनी संस्मरण यात्रा की इस दूसरी किश्त में, भगवान जगन्नाथ की,असीम कृपा, करुणा,भक्तवत्सलता,की वह बात करेंगे, जिसके कारण भारतीय संस्कृति से लगाव रखने वाले, सम्पूर्ण विश्व के हजारों विदेशी पर्यटक व धर्म प्रेमी मुझे जगन्नाथ पुरी में सड़कों पर,मंदिरों में,भगवान जगन्नाथ,श्री कृष्ण व श्री विष्णु की भक्ति में लीन नजर आए। एक विदेशी जोड़ा तो पूरे 8 दिन हमारे 200 सदस्यीय जत्थे के साथ काफी समय रहा,हमारे भोजन कक्ष में उसने भोजन भी किया, श्री मद भागवत कथा का श्रवण भी किया। तो मैं बात कर रहा था भगवान जगन्नाथ की अपने भक्तों के प्रति करुणा,प्रेम की। तब मुझे मां कर्मा बाई सहज ही याद आ जाती हैं,जिनकी प्रभु के प्रति भक्ति व प्रेम की प्रतिष्ठा आज भी सड़कों से लेकर मंदिर के गर्भ गृह तक यथावत दिखी मुझे। मुझे पता चला जगन्‍नाथजी के मंदिर में भगवान आज भी उनको पहला बाल भोग खिचड़ी का लगाया जाता है। इसके पीछे भी एक सत्य कथा है। एक मां की ममता से जुड़ी। जगन्नाथ पुरी में हमारे निवास होटल नीलाद्री में वैसे तो प्रतिदिन ही श्री मद भागवत कथा के साथ भगवान जगन्नाथ के भक्तों की पावन कथाओं व भजनों का गायन भी व्यास पीठ से होता ही था। भागवताचार्य पंडित नरेन्द्र तिवारी ने एक दिन मां कर्मा बाई की पावन भक्ति कथा का एक अंश होटल नीलाद्री कांप्लेक्स सभागार में श्री मद भागवत कथा ज्ञान यज्ञ के अनुक्रम में सुनाया।

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उन्होंने कहा कि प्रामाणिक पौराणिक मान्‍यताओं के अनुसार भगवान कृष्‍ण की परम उपासक थीं कर्मा बाई, जो कि जगन्‍नाथ पुरी में ही रहती थीं और भगवान से अपने पुत्र की तरह ही स्‍नेह करती थीं। भगवान को क्‍यों लगाया जाता है आज भी खिचड़ी का भोग, इसके पीछे कर्मा बाई की ममता से जुड़ी यही कहानी है। कर्मा बाई एक पुत्र के रूप में ठाकुरजी के बाल रूप की उपासना करती थीं। उनका लाड़-दुलार करती थीं। एक दिन कर्मा बाई की इच्छा हुई कि ठाकुर जी को फल-मेवे की जगह अपने हाथ से कुछ बनाकर खिलाऊं। उन्होंने प्रभु को अपनी इच्छा के बारे में बताया। भगवान तो भक्तों के लिए सर्वथा प्रस्तुत हैं। तो प्रभुजी बोले, ‘मां, जो भी बनाया हो वही खिला दो, बहुत भूख लगी है। कर्मा बाई ने खिचड़ी बनाई थी। ठाकुर जी को खिचड़ी खाने को दे दी। प्रभु बड़े चाव से खिचड़ी खाने लगे और कर्मा बाई यह सोचकर भगवान को पंखा झलने लगीं कि कहीं गर्म खिचड़ी से मेरे ठाकुरजी का मुंह ना जल जाए। प्रभु बड़े चाव से खिचड़ी खा रहे थे और मां ती तरह कर्मा बाई उनको पंखा कर रही थीं।

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भगवान ने कहा, मां मुझे तो खिचड़ी बहुत अच्छी लगी। मेरे लिए आप रोज खिचड़ी ही पकाया करें। मैं तो यही आकर खाऊंगा। अब तो कर्मा बाई रोज सुबह उठतीं और सबसे पहले खिचड़ी बनातीं, बाकी सब कुछ बाद में करती थीं। भगवान भी सुबह-सवेरे दौड़े आते और कहते मां, जल्दी से मेरी प्रिय खिचड़ी लाओ। खिचड़ी खाने का यह क्रम रोज का हो गया।q भगवान सुबह-सुबह आते, भोग लगाते और फिर चले जाते। एक बार एक महात्मा कर्मा बाई के पास आए। महात्मा ने उन्हें सुबह-सुबह खिचड़ी बनाते देखा तो नाराज होकर कहा, ‘माता जी, आप यह क्या कर रही हो? सबसे पहले नहा धोकर पूजा-पाठ करनी चाहिए। लेकिन आपको तो पेट की चिन्ता सताने लगती है। कर्मा बाई ने बताया, ‘क्या करुं? महाराजजी! संसार जिस भगवान की पूजा-अर्चना कर रहा होता है, वही सुबह-सुबह भूखे आ जाते हैं। उनके लिए ही तो सब काम छोड़कर पहले खिचड़ी बनाती हूं।’ महात्मा कर्मा बाई को समझाने लगे, ‘माताजी, तुम भगवान को अशुद्ध कर रही हो। सुबह स्नान के बाद पहले रसोई की सफाई करो। फिर भगवान के लिए भोग बनाओ। फिर अगले दिन कर्मा बाई ने यही काम किया। भगवान सुबह आए और खिचड़ी मांगने लगे तो कर्मा बाई ने कहा, प्रभु अभी में स्नान कर रही हूं, थोड़ा रुको। थोड़ी देर बाद भगवान ने फिर आवाज लगाई।

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जल्दी करो, मां मेरे मन्दिर के पट खुल जाएंगे, मुझे जाना है। कर्मा बाई फिर बोलीं मैं अभी रसोई साफ कर रही हूं। भगवान को लगा कि आज मां को क्‍या हो गया है? ऐसा तो पहले कभी नहीं हुआ। फिर जब कर्मा बाई ने खिचड़ी परोसी तब भगवान ने झटपट जल्दी-जल्दी खिचड़ी खाई। मगर आज की खिचड़ी में वो स्‍वाद नहीं था। भगवान जल्‍दी से खिचड़ी खाकर और पानी पिए बिना मंदिर में पहुंच गए थे। मंदिर के बाहर उन महात्‍मा को देखकर भगवान सारा माजरा समझ चुके थे। ठाकुरजी के मन्दिर के पुजारी ने जैसे ही मंदिर के पट खोले तो देखा भगवान के मुख पर खिचड़ी लगी हुई है। पुजारी बोले, ‘प्रभुजी, यह खिचड़ी आपके मुख पर कैसे लग गई है? प्रभु ने बताया, पुजारीजी, मैं रोज कर्मा बाई के घर पर खिचड़ी खाकर आता हूं। आज उनके भोग लगाने में विलंब हो गया।आप मां कर्मा बाई जी के घर जाओ और जो महात्मा यहां ठहरे हुए हैं, उनको समझाओ। उसने मेरी मां को गलत पट्टी कैसी पढ़ाई है। पुजारी ने महात्माजी से जाकर सारी बात कही कि भगवान भाव के भूखे हैं। यह सुनकर महात्माजी घबरा गए और तुरन्त कर्मा बाई के पास जाकर कहा, ‘माताजी, माफ़ करो, ये नियम धर्म तो हम सन्तों के लिए है। आप तो जैसे पहले खिचड़ी बनाती थी, वैसे ही बनाएं। आपके भाव से ही ठाकुरजी खिचड़ी खाते रहेंगे। फिर एक दिन आया, जब कर्मा बाई के प्राण छूट गए। उस दिन पुजारी ने मंदिर के पट खोले तो देखा, भगवान की आंखों में आंसू हैं और प्रभु रो रहे हैं। पूजारीजी ने पूछा तो भगवान ने बताया, ‘पुजारी जी, आज मेरी मां कर्मा बाई इस लोक को छोड़कर मेरे निज लोक को विदा हो गई हैं।

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अब मुझे कौन खिचड़ी बनाकर खिलाएगा? पुजारी ने कहा, ‘प्रभु जी, आपको मां की कमी महसूस नहीं होने देंगे। आज के बाद आपको सबसे पहले खिचड़ी का भोग ही लगेगा।’ इस तरह आज भी जगन्नाथ भगवान को सुबह सबसे पहले खिचड़ी का भोग ही लगाया जाता है। अब कर्मा बाई के पूर्व जीवन की बात करें तो हालांकि मां कर्मा बाई का जन्म यूं तो नागौर जिले के कालवा गांव के किसान जीवनराम डूडी के घर माता रत्नीदेवी की कोख से 20 अगस्त 1615 ईसवी को हुआ था। कर्मा बाई के पिता चौधरी जीवन राम ईश्वर में बहुत आस्था रखने वाले व्यक्ति थे। उनका हमेशा नियम था कि जब तक भगवान कृष्ण की मूर्ति को जलपान नहीं कराते तब तक स्वयं भी जलपान नहीं ग्रहण करते थे।उन्होंने ईश्वर प्राप्ति के लिए अनेक तीर्थों का भ्रमण भी किया था। जब कर्मा बाई का जन्म हुआ उस समय गांव में बहुत ही मूसलाधार बारिश हुई थी। जिससे गांव में खुशियां फैल गई थी। कर्माबाई पैदा होते ही हंसी थी, जो एक चमत्कार था। एक बूढ़ी दाई ने तो कहा कि यह बालिका ईश्वर का अवतार है।कर्मा बाई का विवाह छोटी उम्र में ही अलवर जिले के ‘गढ़ी मामोड़’ गांव में ‘साहू’ गोत्र के लिखमाराम के साथ कर दिया गया था। विवाह के कुछ समय बाद ही इनके पति की मृत्यु हो गई थी। कर्मा बाई उस समय कालवा में ही थी। उनका अंतिम संस्कार करने के लिए वह ससुराल गई,पर फिर अपने मायके आ गई। वह घर और खेत का सारा काम करती थी। अतिथियों की खूब आवभगत करती थी। कालवा ही नहीं आस पड़ोस के गांव में भी उसकी सेवा की प्रशंसा होने लगी थी। कर्मा ने आजीवन बाल विधवा के रूप में ही अपना जीवन भगवान की भक्ति में व्यतीत किया था । कर्मा बाई द्वारा भगवान को भोग लगाने का भाव एक लोकगीत से पता चलता है। जिसे गाते हुए उन्होंने अपने ईष्ट श्री कृष्ण भगवान को कई बार साक्षात अपने सामने बैठाकर खिचड़ा खिलाया। भजन का मुखड़ा जगन्नाथ पुरी व राजस्थान सहित देश भर में इस प्रकार आज भी गाया जाता है,
थाली भरकर ल्याई रै खीचड़ो, ऊपर घी की घ़ैल की,
जिमो म्हारा श्याम धणी, जिमावै कर्मा बेटी जाट की।
माता-पिता म्हारा तीर्थ गया, नै जाणै कद बै आवैला,
जिमो म्हारा श्याम धणी, थानै जिमावै कर्मा बेटी जाट की।

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जगन्नाथपुरी,राजस्थान के शेखावाटी, नागौर, बीकानेर, जोधपुर और कई स्थानों पर यह भजन बहुत मशहूर है।
इस भजन में करमा का जिक्र किया गया है जिसके हाथ से बना खीचड़ा खाने के लिए स्वयं भगवान कृष्ण भी दौड़े चले आते थे। उनके पिता भगवान के बड़े भगत थे और वह भगवान को भोग लगाकर ही भोजन ग्रहण करते थे। एक दिन उनके पिता तीर्थ यात्रा पर गए और भगवान की पूजा अर्चना का भोग लगाने की जिम्मेदारी कर्मा को सौंप गए। पिता के घर से जाने के बाद अगले दिन कर्मा ने स्नान करके बाजरे की खिचड़ी बनाई। उस पर खूब घी डाला और पूजा करके भोग लगाने के लिए भगवान की मूर्ति के पास आ गई। थाली सामने रखकर हाथ जोड़कर बोली हे प्रभु भूख लगे तब भोग लगा लेना। तब तक मैं घर के बाकी काम निपटा लेती हूं । इसके बाद वह काम करने लग गई और बीच-बीच में थाली देखने आ जाती। उसने देखा कि भगवान ने तो खिचड़ी खाई ही नहीं । जब भगवान ने भोग नहीं लगाया तो उसको चिंता होने लगी थी कहीं खिचड़ी में घी और गुड़ कम तो नहीं रह गया। इसके बाद कर्मा ने उसमें और ज्यादा घी और गुड़ मिलाया और वहीं बैठ गई लेकिन भगवान ने फिर भी नहीं खाया। कर्मा ने कहा हे प्रभु भोग लगा लीजिए मेरे माता पिता आपको खिलाने की जिम्मेदारी मुझे देकर गए हैं इसलिए आपको भोग लगाने के बाद ही मैं खाना खाऊंगी। लेकिन भगवान नहीं आए। इसके बाद कर्मा ने भगवान से कहा कितनी देर कर दी प्रभु आप भी भूखे बैठे हो, मुझे भी भूखी बैठा रखा है।कर्मा की खिचड़ी भी अब ठंडी हो गई थी। वह बोली मेरे माता पिता कई दिनों बाद आएंगे इसलिए तुम्हें मेरे हाथ की ही खिचड़ी खानी पड़ेगी इसलिए देर मत करो वरना मैं भूखी ही रह जाऊंगी। शाम होने लगी। कर्मा ने कुछ भी नहीं खाया था। इस प्रकार कर्मा के 3 दिन बीत गए थे। फिर एक दिन कर्मा को स्वपन में एक आवाज सुनाई दी। कर्मा जल्दी उठो और मेरे लिए खिचड़ी बनाओ और तुमने पर्दा तो लगाया ही नहीं। ऐसे में भोग कैसे लगाऊं। यह सुनकर कर्मा सुबह जल्दी उठी, उसने गरम खिचड़ी बनाई और अपनी ओढ़नी का पर्दा करके भगवान को भोग लगाया इसके बाद उसी की छाया में श्रीकृष्ण ने खिचड़ी का भोग ग्रहण किया। जब कर्मा ने देखा तो थाली पूरी खाली हो गई । यह सब देख कर कर्मा बोली भगवान इतनी सी बात थी तो पहले बता देते खुद भी भूखे रहे और मुझे भी भूखी रखा । इसके बाद कर्मा ने भी खिचड़ी खाई। जब तक कर्मा के माता-पिता नहीं आए तब तक रोज कर्मा खिचड़ी बनाती और श्रीकृष्ण भोग लगाने आ जाते। कुछ दिनों बाद जब कर्मा के मां-बाप लौटे तो उन्होंने देखा कि गुड का भरा मटका खाली था। तब उन्होंने कर्मा से पूछा कि कर्मा गुड़ कहां गया। यह मटका कैसे खाली हो गया। उसने बताया कि भगवान कृष्ण हर रोज भोग लगाने आते है इसलिए कहीं मीठा कम ना रह जाए मैं गुड़ ज्यादा डाल देती हूं। उसने पहले दिन हुई परेशानी के बारे में भी बताया, जिसको सुनकर माता-पिता हैरान रह गए। जिस ईश्वर को ढूंढने के लिए वह यात्रा पर गए थे, जिसे लोग ना जाने कहां कहां ढूंढ रहे हैं उसे उनकी बेटी ने अपने हाथ से बनी खिचड़ी खिलाई। जब उन्हें यकीन नहीं हुआ तब कर्मा ने कहा आप कल देख लेना। मैं खुद भगवान को भोग लगाऊंगी। दूसरे दिन कर्मा ने खिचड़ी बनाकर श्री कृष्ण को भोग लगाया और भगवान से प्रार्थना की, कि हे ईश्वर मेरे सत्य की रक्षा करना। भक्त की पुकार सुनकर श्री कृष्ण खिचड़ी खाने प्रकट हो गए। जीवन राम और उनकी पत्नी यह दृश्य देखकर हैरान थे। उसी दिन से कर्मा बाई आस-पास के इलाके में विख्यात हो गई । पिता की मृत्यु के बाद कर्मा बाई राजस्थान से उड़ीसा पहुंची और अपने प्रभु की मूर्ति लेकर जगन्नाथ पुरी आकर,वहीं निवास करने लगी। इस तरह करमा बाई के प्रेम में बंधे भगवान जगन्नाथ को भी अब प्रतिदिन सुबह खिचड़ी खाने जाना पड़ता था। जिसका पूरा वृतांत मैने पहले ही लिख दिया है। आज भी जगन्नाथ पुरी के मंदिर में कर्मा बाई की प्रीत का उदाहरण देखने को मिलता है जहां भगवान के मंदिर में कर्मा बाई का भी मंदिर है। और उसकी खिचड़ी का भोग प्रतिदिन भगवान को लगता है। उधर राजस्थान में कर्मा बाई की भक्ति को ध्यान में रखते हुए उसके प्रभु में विलीन होने के बाद उस समय के जाट समाज ने उसके जन्म स्थान कालवा में मंदिर बनाना चाहा, परंतु उस जमाने में राजपूत ठाकुरों का राज होने के कारण मंदिर नहीं बनाने दिया। ठाकुर यह नहीं चाहते थे कि जाटों की कोई औरत पूजनीय हो, ना ही यह चाहते थे कि इस समाज में कोई इतना सम्मान पाएं कि वह महान होकर इतिहास के पन्नों में अमर हो जाए। ठाकुरों ने उसकी भक्ति को भी उजागर नहीं होने दिया। कुछ समय के बाद चंद्र प्रकाश डूडी और राम डूडी ने अपनी जमीन मां कर्मा बाई के मंदिर के नाम कर दी और जन सहयोग से अब यह मंदिर बन चुका है । कर्मा बाई का निधन 25 जुलाई 1634 ईस्वी में हुआ था। हर साल उड़ीसा के पुरी में आयोजित होने वाली भगवान जगन्नाथजी की रथ यात्रा के दर्शन करने देश विदेश से लाखों-करोड़ों भक्त एकत्रित होते हैं। इस आयोजन में शामिल होने वाले भक्त हमेशा एक बात से जरूर हैरान रहते हैं, वो बात यह है कि हर साल भगवान जगन्नाथ जी का रथ अपनी यात्रा के दौरान थोड़ी देर के लिए एक मुस्लिम की मजार पर रोका जाता है। यह मंजर देख हर एक भक्त इस रहस्य के पीछे की सच्चाई जानने को उत्सुक रहता है। आज इसी रहस्य के नेपथ्य की सत्य भक्ति कथा से इस दूसरी किश्त को विराम दूंगा। मुझे बताया गया कि जिस मुस्लिम की यह मजार है उसका नाम सालबेग था औऱ वह भगवान जगन्नाथजी का अनन्य भक्त था। मंदिर के पुजारी और शहरवासी बताते हैं कि सालबेग यहीं का रहने वाला था। उसकी मां हिंदू थी और पिता मुस्लिम थे। यह उस समय की घटना है। जब भारत पर मुगलों का शासन था। सालबेग भी मुगल सेना में एक सैनिक के पद पर था। बताते हैं कि सालबेग प्रारंभ से ही मुस्लिम धर्म को मानता था, मगर उसके जीवन में घटी एक घटना ने उसे भगवान जगन्नाथ का भक्त बना दिया। एक बार सालबेग के माथे पर गंभीर चोट लग गई थी। इस चोट के कारण एक बड़ा घाव हो गया, जिसका इलाज किसी भी हकीम और वैद्य के पास नहीं मिल रहा था। सालबेग ने हर जगह दिखा लिया था, मगर उसका जख्म ठीक नहीं हो रहा था। इस गंभीर घाव के कारण ही उसे मुगल सेना से भी निकाल दिया गया। परेशान और हताश सालबेग दुखी रहने लगा। तब उसकी माता ने उसे भगवान जगन्नाथजी की भक्ति करने की सलाह दी। सालबेग ने अपनी माता के बताए अनुसार भगवान जगन्नाथ जी की अनन्य भक्ति की।
सालबेग भगवान जगन्नाथजी की भक्ति में इतना खो गया था कि वो दिन-रात पूजा-अर्चना और भक्ति करने लगा। इसी भक्ति और पूजा-अर्चना के चलते सालबेग को मानसिक शांति और जीवन जीने की शक्ति मिलने लगी। मुस्लिम होने के कारण सालबेग को मंदिर में प्रवेश नहीं मिलता। जैसा कि मैंने संस्मरण यात्रा के पूर्व अंक में भी लिखा था कि मंदिर के द्वार पर ही लिखा है,सिर्फ हिन्दू ही मंदिर में प्रवेश कर सकते हैं। तो ऐसे में वह मंदिर के बाहर ही बैठकर भगवान की भक्ति करने लगता। ऐसा माना जाता है कि भगवान जगन्नाथ जी उसे सपने में आकर दर्शन दिया करते। भगवान उसे सपने में आकर घाव पर लगाने के लिए भभूत देते और सालबेग सपने में ही उस भभूत को अपने माथे पर लगा लेता। उसके लिए हैरान करने वाली बात यह थी कि उसके माथे का घाव सचमुच में ठीक हो गया था। मुस्लिम होने के कारण सालबेग कभी भी भगवान जगन्नाथ जी के दर्शन नहीं कर पाया और उसकी मृत्यु हो गई। अपनी मृत्यु से पहले सालबेग ने कहा था, ‘यदि मेरी भक्ति में सच्चाई है तो मेरे प्रभु मेरी मजार पर जरूर आएंगे।’ मृत्यु के बाद सालबेग की मजार जगन्नाथ मंदिर से गुंडिचा मंदिर के रास्ते में बनाई गई थी। इसके कुछ महीने बाद जब जगन्नाथजी की रथयात्रा निकली तो सालबेग की मजार के पास आकर भगवान का रथ रुक गया और लाख कोशिशों के बाद भी रथ इंच भर भी आगे नहीं बढ़ा। तभी पुरोहितों और राजा ने सालबेग की सारी सच्चाई जानी और भक्त सालबेग के नाम के जयकारे लगाए। जयकारे लगाने के बाद रथ चलने लगा। बस तभी से हर साल मौसी के घर जाते समय जगन्नाथजी का रथ सालबेग की मजार पर कुछ समय के लिए रोका जाता है। भक्त सालबेग के बनाए भजन, आज भी लोगों को याद हैं।भक्त सालबेग सारा जीवन मंदिर के बाहर बैठकर ही भगवान जगन्नाथ जी के दर्शन की आस लगाए रहा। वह रोज भगवान की जय-जयकार करता हुआ और भावों से भरा हुआ जगन्नाथजी के मंदिर की तरफ उनके दर्शनों के लिए दौड़ पड़ता था। मुस्लिम होने के कारण उसे मंदिर में प्रवेश नहीं मिलता तो वह मंदिर के बाहर बैठकर ही भगवान की भक्ति करने लगता था। प्रभु का नाम जपता और उनके भजन लिखता । धीरे-धीरे उसके भजन अन्य भक्तों की जुबान पर भी चढ़ने लगे। यह है भारतीय अध्यात्म व भारतीय संस्कृति की ताकत,जिसके सामने धर्म,संप्रदाय की दीवारें भी कभी बाधक नहीं बन सकीं , न तो प्राचीन काल में, न ही आज भी। अगले बुधवार तीसरी किश्त में भगवान जगन्नाथ की भक्ति,करुणा,भक्तवत्सलता के कुछ अन्य प्रसंगों के साथ जगन्नाथ पुरी व उड़ीसा की कला,संस्कृति के संबंध में भी बात करेंगे। जय श्री कृष्ण।