Woman Centric India!: महिला केंद्रित भारत !

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Woman Centric India!: महिला केंद्रित भारत !

भारत में, और शेष विश्व में भी, महिला केंद्रित नीतियों और कार्यक्रमों की बाढ़ आ गई है। यहाँ तक कि अभी समाप्त हुई गणतंत्र दिवस की परेड को भी मोदी ने महिला केंद्रित कर दिया। केंद्र से लेकर सभी राज्यों के बजट महिला सशक्तिकरण के नाम पर आ रहे हैं। महिलाओं के लिये अनेक बाधाओं के पश्चात संसद और विधानसभाओं में 33% आरक्षण का प्रावधान किया गया है। मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री का दावा है कि प्रदेश में बीजेपी की जीत का कारण लाड़ली बहना कार्यक्रम था जिसमें बहनों को कुछ राशि दी जाती है। सभी राज्य सरकारें महिलाओं के लिए कुछ घोषणाएँ करती रहती है। क्या महिलाएँ सशक्त हो रही हैं? समाजशास्त्री जानते हैं कि सशक्त महिला वही है जिसके पास स्वयं की आर्थिक शक्ति है। परिवार में उसकी हैसियत का यही मुख्य आधार है। न्यायपालिका से न्याय प्राप्त करने की उसकी क्षमता भी दूसरा महत्वपूर्ण बिंदु है।

गत वर्ष क्लॉडिया गोल्डिन को अर्थशास्त्र में नोबेल पुरस्कार प्राप्त हुआ था। उनका पूरा जीवन कामकाजी महिलाओं के संबंध में समाज के ऐतिहासिक और आर्थिक पृष्ठभूमि का गंभीर अध्ययन कर कुछ निष्कर्षों पर पहुँचने के लिये समर्पित था।उनका अध्ययन महिलाओं की नौकरियों में स्थिति और उनके साथ किया जाने वाले भेद भाव पर था। भारतीय संदर्भ में आज महिलाओं की नौकरियों या श्रमिक बल में स्थिति वही है, जो अमेरिका में 1920 में थी। भारत में महिलाएँ गाँवों में खेतों में भी काम करती है और उनके अनेक कार्य दिखाई नहीं पड़ते हैं।फिर भी एक ग़ैर सरकारी आंकलन के अनुसार 2020 में श्रमिक बल में महिलाओं की संख्या मात्र 25% थी। भारत सरकार के NSSO के अनुसार पिछले छह वर्षों में महिलाओं की नौकरियों में भागेदारी 37% तक हो गई है। मुख्य विषय केवल इनकी संख्या बढ़ाना ही नहीं, अपितु संगठित क्षेत्रों में ऊँचे पदों पर समान वेतन पर कार्य दिलवाना भी अत्यंत आवश्यक है।इसके लिए सरकार को भागीरथ प्रयत्न करने पड़ेंगे। महिलाओं के कौशल उन्नयन की व्यवस्था आवश्यक है। कार्यस्थल पर क्रेश की स्थापना को सरकारी और ग़ैर सरकारी सभी संगठनों में आवश्यक किया जाना चाहिए। अभी तो क्रेश राज्यों के सचिवालयों तक में नहीं है। वर्किंग वुमन होस्टल की स्थापना, 26 सप्ताह की दो बार वेतन सहित प्रसूति अवकाश, प्रवासी मज़दूरों के लिए विशेष व्यवस्था तथा रात में काम करने वाले संगठनों को महिलाकर्मियों को घर से लेने और छोड़ने की व्यवस्था करना अनिवार्य किया जाना चाहिए। इन सुविधाओं का कार्यान्वयन उच्च गुणवत्ता के साथ होना आवश्यक है। भारत अब इतना सक्षम हो चुका है कि वह उपरोक्त सभी व्यवस्थाएं कामकाजी महिलाओं के पक्ष में कर सके। यह सब महिलाओं के ऊपर एहसान नहीं होगा बल्कि श्रमिक बल में महिलाओं की भागीदारी बढ़ने से आर्थिक विकास को एक नई गति मिलेगी।

महिलाओं और विशेष रूप से ग़रीब ग्रामीण महिलाओं को न्यायपालिका से न्याय प्राप्त करना टेढ़ी खीर है। इसमें उसे परिवार के किसी सदस्य की सहायता नहीं मिलती है और कई बार परिवार के सदस्य से ही उसे न्याय चाहिए होता है। किसी प्रकार साहस करके वह न्यायालय जाती है तो वहाँ न्यायाधीश तथा अन्य सभी संबंधित बहुत पुरानी सोच के मिलते हैं जिनमें संवेदनशीलता बहुत कम होती है। यहाँ तक कि विधायिका के संवेदनशील कानूनों की व्याख्या भी ठीक से नहीं की जाती। एक दुर्भाग्यपूर्ण प्रकरण झारखंड हाई कोर्ट से आया है जहाँ हाईकोर्ट के एक विद्वान जज ने एक महिला के गुज़ारा भत्ता प्रकरण में लंबा चौड़ा निर्णय देते हुए ऋग्वेद, यजुर्वेद, मनुस्मृति और वृहत संहिता का उल्लेख किया और अंततोगत्वा उस महिला का गुज़ारा भत्ता अस्वीकृत कर दिया। एक अन्य प्रकरण में जज साहब ने एक महिला को अपनी सास और ‘सास की सास’ की सेवा करते रहने के लिए उपदेश दिया और कहा कि वह अलग रहने की न सोचे। यह उपदेश सामाजिक हो सकता है, न्यायिक कदापि नहीं। ऐसा कोई क़ानून नहीं है।

महिला सशक्तिकरण के लिए नेता, पुलिस, समाज, न्यायपालिका और मीडिया की सोच के सशक्तिकरण की भी बहुत आवश्यकता है। महिलाओं के थोड़े से सशक्तीकरण से देश का कई गुना सशक्तिकरण होगा।