मोहन-सुरेश और संघ के चिंतन में विश्व,राष्ट्र और समाज…

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मोहन-सुरेश और संघ के चिंतन में विश्व,राष्ट्र और समाज…

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ वैश्विक स्तर पर समग्रता से चिंतन करता है, तो राष्ट्र व समाज के हितों को लेकर मनन का क्रम उनकी सोच का हिस्सा है। 6 अक्टूबर 2024 के दिन राजस्थान और मध्यप्रदेश से संघ के यह भाव सशक्त रूप से सामने आए। राजस्थान में जहां स्वयं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रमुख डॉ. मोहन भागवत ने हिंदुत्व और समाज पर बेबाक राय रखी, तो मध्यप्रदेश में संघ प्रचारक सुरेश सोनी ने शिक्षा और समाज में बढ़ रही नकारात्मकता पर खुलकर अपनी बात सामने रखी। निश्चित तौर पर समाज को सही दिशा देने में दोनों ही महत्वपूर्ण व्यक्तियों के विचारों की अवहेलना नहीं की जा सकती। और इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि जिस संघ की राष्ट्रहित की विचारधारा पर कदम बढ़ाकर इक्कीसवीं सदी में भारतीय जनता पार्टी सत्ता का वरण कर पाई है, वह संघ समाज में कल भी प्रभावी भूमिका में था, आज भी प्रभावी भूमिका में है और कल भी प्रभावी भूमिका में रहेगा। विवादों और दूसरी विचारधारा की आलोचनाओं से संघ न कल कमजोर हुआ, न आज है और न कल कमजोर होगा। यही वजह है कि सौ साल पूरा करने जा रहा संघ का अनुशासन और दायित्व निर्वहन का कार्य जस का तस है।

बारां के कृषि उपज मंडी में आरएसएस के स्वयंसेवक सम्मेलन को संबोधित करते हुए डॉ. मोहन भागवत ने कहा कि समाज में आचरण का अनुशासन, राज्य के प्रति कर्तव्य और लक्ष्य उन्मुख होने का गुण आवश्यक है। अपनी सुरक्षा के लिए हिंदू समाज को भाषा, जाति और प्रांत के मतभेदों और विवादों को दूर करके एकजुट होना होगा। समाज ऐसा होना चाहिए जिसमें संगठन, सद्भावना और आत्मीयता का आभास हो। उन्होंने कहा कि समाज केवल मेरे और मेरे परिवार से नहीं बनता है, बल्कि हमें संपूर्ण समाज की चिंता करते हुए अपने जीवन में ईश्वर को प्राप्त करना है। उन्होंने कहा कि भारत एक ‘हिंदू राष्ट्र’ है और हिंदू शब्द का इस्तेमाल देश में रहने वाले सभी संप्रदायों के लोगों के लिए किया जाता है। संघ का काम यांत्रिक नहीं बल्कि विचार आधारित है और दुनिया में ऐसा कोई काम नहीं है, जिसकी तुलना आरएसएस द्वारा किए गए काम से की जा सके। संघ के मूल्य नेता से स्वयंसेवक तक और स्वयंसेवकों से उनके परिवार के सदस्यों तक पहुंचते हैं। भागवत ने कहा कि संघ में व्यक्तित्व विकास की यही पद्धति है।

भागवत की चिंता हिंदुत्व को लेकर थी। उन्होंने कहा, ‘भारत एक हिंदू राष्ट्र है। हम लोग प्राचीन काल से यहां रह रहे हैं, हालांकि हिंदू नाम बाद में आया। भारत के सभी संप्रदायों के लिए हिंदू शब्द का इस्तेमाल किया जाता था। स्वयंसेवकों को हर जगह लोगों से जुड़ना चाहिए। न्याय, स्वास्थ्य, शिक्षा और सामाजिक समरसता का भाव महत्वपूर्ण है।

तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पूर्व सर कार्यवाह सुरेश सोनी ने भोपाल में शिक्षा भूषण अखिल भारतीय सम्मान समारोह में कहा कि शिक्षा के विकास के साथ समस्याएं भी बढ़ रही हैं। विकास की यात्रा पर आगे बढ़ने के लिए शिक्षित होना जरूरी है। पर शिक्षा के विकास के साथ भ्रष्टाचार और मूल्यों का क्षरण भी बढ़ रहा है। दुनिया में आतंकवाद, सामाजिक विखंडन और मानवीय संघर्ष बढ़ रहे हैं। इसके पीछे वजह मौलिक गड़बड़ी है और समग्र शिक्षा के चिंतन की जरूरत है ताकि हम इन समस्याओं का समाधान कर सकें। सुरेश सोनी ने कहा कि वास्तविक विकास तभी हो सकता है जब हमारे आसपास के परिवेश और मानव के जीवन मूल्यों का विकास हो। शिक्षा के संदर्भ में स्पष्टता होनी चाहिए। शिक्षा का मतलब केवल टेक्नोलॉजी, इन्वेंशन या अंकोपार्जन नहीं है, बल्कि यह इससे अलग है। हमें शिक्षा की परिभाषा को फिर से परखने की जरूरत है ताकि मानवीय मूल्यों का विकास हो सके। उन्होंने 1928 में गुजरात विद्यापीठ में दिए गए काका कालेलकर के संबोधन को उद्घृत करते हुए कहा कि ‘शिक्षा न तो सत्ता की दासी है और न ही कानून की किन्करी है, न ही यह विज्ञान की सखी है और न ही कला की प्रतिहारी या अर्थशास्त्र की बांदी। शिक्षा तो धर्म का पुनर्रागमन है, यह मानव के हृदय, मन और इन्द्रियों की स्वामिनी है। मानव शास्त्र और समाज शास्त्र, इनके दो चरण हैं, तर्क और निरीक्षण शिक्षा की दो आँखें हैं, विज्ञान मस्तिष्क, इतिहास कान और धर्म शिक्षा के हृदय है।’ सोनी ने बताया कि काका कालेलकर ने अपने संबोधन में कहा था कि ‘उत्साह और उद्यम शिक्षा के फेफड़े हैं। शिक्षा ऐसी जगत जननी जगदम्बा है, जिसका उपासक कभी किसी का मोहताज नहीं होगा, उसकी सभी मनोकामनाएं पूर्ण होंगी।’

हालांकि संघ प्रमुख भागवत और प्रचारक सुरेश सोनी के विचारों की व्याख्या अपनी-अपनी तरह से हो सकती है। पर उनके विचारों को नकारा नहीं जा सकता। चाहे चिंतन के केंद्र में राष्ट्र हो या वैश्विक परिदृश्य, पर संघ की दृष्टि का विस्तार सार के करीब होने से यह कल भी प्रासंगिक था, आज भी प्रासंगिक है और कल भी प्रासंगिक रहेगा। इसीलिए मोहन-सुरेश और संघ के चिंतन में विश्व,राष्ट्र और समाज समाहित है

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