Sports Science:अपनी भाषा अपना विज्ञान: ओलम्पिक रिकार्ड्स कब तक टूटते रहेंगे?

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Sports Science:अपनी  भाषा अपना विज्ञान: ओलम्पिक रिकार्ड्स कब तक टूटते रहेंगे?

1950 के दशक की बात है। ब्रिटिश सिस्टम के स्थान पर मीट्रिक प्रणाली लागू नहीं हुई थी। किलोमीटर की जगह ‘मील’ चलन में था। एथलेटिक्स की दुनिया में उस समय एक मील दौड़ने में चार मिनट से अधिक समय लगता था। ऐसा सोचते थे कि शायद ही कोई धावक निकलेगा जो चार मिनट के बैरियर को तोड़ पाएगा। फिर रिकॉर्ड टूटा।

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(चित्र – रॉजर बेन्निस्टर)

ब्रिटिश नागरिक रॉजर बेन्निस्टर के खाते में यह ख्याति जुड़ी। 2000 के दशक में एक न्यूरोलॉजी कॉन्फ्रेंस में रॉजर बेन्निस्टर ऑटोनॉमिक नर्वस सिस्टम की बीमारियों के बारे में एक न्यूरोलॉजिस्ट के रूप में विद्वान वक्ता बनकर आए थे। मुझे उनसे हाथ मिलाने का मौका मिला था।
चार मिनट का तिलिस्म अनेक बार तोड़ा जा चुका है। आजकल हम मीटर और किलोमीटर की चर्चा करते हैं।
ओलंपिक का मोटो क्या है – मूल लेटिन में – “Citus, Altius, Fortus”.
अंग्रेजी में – “Faster, Higher, Stronger” तेज, उच्चतर, बलवान। सब सोचते हैं और मानते हैं कि इंसानी शरीर की सीमाएं होती है। एक लिमिट के परे रिकॉर्ड तोड़ना संभव नहीं होगा। फिर भी रिकॉर्ड है कि टूटते ही चले जाते हैं।
मैं अपने लेखों और वक्तव्य में Normal Distribution और Bell Curve का प्रायः उल्लेख करता हूं। “सामान्य वितरण” और “घंटा कृति चाप”। मिली जुली जनसंख्या में लोगों के अनेक गुण सामान्य वितरण के नियम का इस तरह पालन करते हैं कि ग्राफ के रूप में जब उसे प्रदर्शित करते हैं तो वह घंटा कृति चाप (Bell Curve) का रूप लेता है।

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औसत से बहुत अधिक परे, अत्यंत थोड़े से लोग होते है। इन्हें Outliers ‘बहिर्स्थित’ कहते है – सामान्य से नीचे की दिशा में ये लोग कमजोर, विकलांग या मंदबुद्धि हो सकते है।

श्रेष्ठता की दिशा में पाए जाने वाले थोड़े से Outliers (बहिर्स्थित) लोग या तो जीनियस होते हैं या खेलकूद की दुनिया के स्टार होते हैं या अपने अपने क्षेत्र में ऊंची उपलब्धियां पाते हैं।
इन बहिर्स्थित (Outlier’s) के होने में नियति और परवरिश दोनों का योगदान होता है। Nature और Nurture। बहस पुरानी है। चिरंतन चलती रहेगी। कहीं Nature (जीनोम, बायोलाजी) की भूमिका अधिक होगी तो कहीं Nurture(वातावरण, परवरिश) का बोलबाला होगा। कोई विचारक किसे अधिक महत्व देता है यह उसकी राजनीतिक, सामाजिक विचारधारा पर निर्भर करता है।

100 मीटर की दौड़ में कितने सेकंड लगते हैं? स्कूली स्तर पर 12 सेकंड। राष्ट्रीय खेलों में 11 सेकेंड। ओलम्पिक में 10 सेकण्ड। इससे भी कम समय में दौड़ने वाले किसी अलग ही मिटटी के बने होते है। अच्छी से अच्छी कोचिंग की भी एक लिमिट होती है। स्टेरॉयड (डोपिंग) के द्वारा 5-10% का फर्क पड़ सकता है। उसके विरुद्ध जांच की विधियां और नियम अत्यंत कठोर बन चुके हैं।

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(चित्र – अबेबे बिकिला)

1960 और 1964 के ओलंपिक में इथियोपिया के अबेबे बिकिला ने लगातार दो बार नंगे पांव दौड़कर मेराथान में स्वर्ण पदक जीतकर तहलका मचा दिया था। पूर्वी अफ्रीका के दुबले-पतले लम्बू एथेलिट्स की मांसपेशियों में ऊर्जा के उपयोग, चयापचय (Metobolism) पर अनेक शोधों से ज्ञात हुआ है कि इन लोगों की केमिस्ट्री अलग होती है।
मांस पेशियों में तीन प्रमुख प्रकार के तंतु होते हैं –
1. धीमा ऑक्सीकरण – धीमा संकुचन लेकिन खूब देर तक जैसे मेराथानर्स
2. त्वरित ऑक्सीकरण – तेज संकुचन, जल्दी थकान, कम दूरी के धावक
3. त्वरित ग्योकोलिटिक – कम ऑक्सीजन में भी तेज संकुचन, जल्दी थकान

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हम सभी लोगों की मांस पेशियों में विभिन्न प्रकार के fibers (तंतुओं) का मिलाजुला प्रतिशत जन्म से ही जींस द्वारा तय हो कर आता है। अनुभवी कोच शीघ्र पता लगा लेता है कि कौन सा एथलीट लंबी दूरी की दौड़ में अधिक सफल होगा तथा कौन सी द्रुतगामी (Sprinter) दौड़ों में अधिक सफल होगा। फिजियोथैरेपी ट्रेंनिंग द्वारा व्यक्ति की मांसपेशियों में फाइबर्स का अनुपात कुछ हद तक बदला जा सकता है।

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(चित्र – कार्ल लेविस )

1980 के दशक के उत्तरार्ध में कार्ल लेविस ने पहली बार 100 मीटर की दौड़ 10 सेकेंड से कम में पूरी करके सनसनी मचा दी थी। (स्प्रिट) छोटी दौड़ धावकों के मान से कार्ल लेविस की 6 फीट 2 इंच की ऊंचाई जरा ज्यादा ही मानी जाती थी लेकिन तब किसी ने कल्पना भी नहीं करी थी कि 6 फीट 5 इंच के एक उसैन बोल्ट का आगमन होगा जो आश्चर्यजनक रूप से पिछली पीढ़ी की तुलना में 0.5 सेकेंड से कम समय में इस दूरी को अपने अकल्पनीय लंबे-लंबे डगों (9.3 फीट का एक डग) से पाटदेगा। पहले बेन जॉनसन भी 100 मीटर की स्प्रिट 9. 79 सेकेंड में पूरी कर चुका था लेकिन बाद में पकड़ा गया था कि वह स्टेरॉइड्स का सेवन करता था।

उसैन बोल्ट - विकिपीडिया

(चित्र – उसैन बोल्ट)

अमेरिकन बास्केटबॉल में Outlier (बहिर्स्थित) शाकिल ओनील की कहानी मजेदार। 7 फुट ऊंचा 90 किलो वजनी शाकिर की फुर्ती अपने से ठिग्गु (6 फिट) खिलाड़ियों से अधिक थी। उसे रोक पाना असंभव था। खेल के नियमों को बदलना पड़ा था। बास्केट रिंग की मजबूती बढ़ाना पड़ी थी।
डोपिंग/स्टेरॉयड आदि का प्रभाव 5-10% से अधिक नहीं होता। असली खेल जेनेटिक म्यूटेशन का है। बेलकर्व (घंटाकृति चाप) की पूंछ के सबसे पतले हिस्से में पाए जाने वाले दुर्लभ(Rare) या अत्यल्प लोग गजब की क्षमताएं रखते हैं।
दुनिया की जनसंख्या बढ़ गई है। खेलों में भाग लेने वालों की संख्या और भी अधिक बढ़ गई है। अब मान के चलो की जेनेटिक Outliers भविष्य में लगातार मिलते रहेंगे।
दुनिया की सबसे कठिन और प्रसिद्ध साइकिल रेस “तूर द फ्रांस” जीतने वालों का रिकॉर्ड समय लगातार कम होता जा रहा है। बेल कर्व की सकरी पूंछ को आबाद करने वाले अति मानवीय (Super-Human) के जीनोम में ऐसा क्या खास होता है? किसी एक अकेली जीन के बूते पर यह काम नहीं होता। अनेकानेक जींस का मिला-जुला असर होता है। जन्मकुंडली में जैसे अनेक ग्रहों का प्रथक प्रथक प्रभाव होता है। कुछ सकारात्मक, कुछ नकारात्मक ( राहू, केतु, शनि)। वैसे ही जीनोमिक कुंडली लेकर हम पैदा होते हैं। यहां बता दूं कि ज्योतिष वाली कुंडली पर मैं विश्वास नहीं करता। वह मिथ्या विज्ञान है।

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कुछ जीन का असर अत्यंत मामूली होता है तो कुछ का अधिक। ये जींस अपना प्रभाव कैसे डालती है? सीधे-सीधे नहीं।
“लो तुम्हें वरदान देता हूं कि तुम मैराथन में अव्वल रहोगे”
लो तुम्हें वर देती हूं कि तुम तैराकी मैं आगे निकलोगी”
ऐसा कुछ नहीं होता।
LRPS नाम की जीन अधिक शक्तिशाली हड्डियों का निर्माण करने में मदद करती है। MSTN पतली पतली, चपल, फुर्तीली मांसपेशियों को बढ़ावा देती है।
SCNGA द्वारा दर्द सहने की क्षमता में इजाफा होता है।
इन कामों को अंजाम दिया जाता है खास खास किस्म के प्रोटीन संश्लेषण को नियंत्रित कर के।
जेनेटिसिस्ट ज्यार्ज चर्च तथा अन्य, क्रिस्पर (CRISPER) तकनीक पर काम कर रहे हैं, जिसके द्वारा जींस का संपादन (Editing) संभव है। हो सकता है कि कुछ ही दशकों या वर्षों में Designer Babies पैदा करना संभव हो जावे।

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(क्रिसपर टेक्नॉलजी द्वारा जीन सम्पादन)

टेस्ट ट्यूब बेबी टेक्नोलॉजी में पुरुष के शुक्राणु (SPERM) और और स्त्री के अंडे (OVUM) के जीनोम में इच्छित परिवर्तन करके डिम्ब(Embryo) में एथेलेटिक गुणों का समावेश करना संभव होगा। Ethically, Morally नैतिक दृष्टि से, आदर्शवाद दृष्टि से ऐसा करना उचित होगा या नहीं, इसकी अनुमति दी जाएगी या नहीं (फिलहाल मना है) इन प्रश्नों पर बहस ‘अपनी भाषा अपना विज्ञान के’ किसी और अंत में करूंगा

अभी तक जितने भी अबेबे बिकिला, कार्ल लेविस, उसैन बोल्ट, शकील ओनील, सचिन तेंदुलकर, लेंस आर्म्सट्रांग पैदा हुए हैं, कुल संभावना का अत्यंत छोटा सा प्रतिशत है।

प्रतिस्पर्धात्मक एथलेटिक्स, अंततः एक खोज प्रक्रिया है जो जेनेटिक आउटलायर्स को ढूंढने का काम बमुश्किल एक शताब्दी से कर रही है। इस खोज का आधार अब बहुत व्यापक हो गया है – बड़ी जनसंख्या, दुनिया के कोनो कोनो तक, हर देश, हर वर्ग, नस्ल के लोगों तक इस हांके का प्रजातंत्रीकरण हो गया है। अभी तक यह ढूंढाई तुलनात्मक रूप से निष्क्रिय रही है – पानी में कांटा डालकर बैठे रहो मछली आएगी और शायद फंसेगी। अब सक्रिय रूप से आधुनिक जाल बड़े-बड़े फेंके जा रहे हैं।

आउटलायर को चीन्हने की तकनीक इजाद हो गई है। आउटलायर का कृत्रिम निर्माण करने की तकनीक दहलीज पर आ खड़ी है। नैतिक नियमों ने “प्रवेश निषेध” का बोर्ड लगा रखा है। कौन जाने कब वह बोर्ड उखाड़ फेंका जाएगा। अच्छा होगा? बुरा होगा? राम जाने।
जेनेटिक इंजीनियर्स अब छेड़छाड़ करेंगे उन जींस के साथ जो शक्ति, बल, गति, स्फोट, चपलता, सटीकता, पैनापन, धेर्य, निरंतरता, लगन आदि गुणों पर नानाविध प्रकारों से असर डालती है। एक इंसान के महज दो गुणों, “उंचाई” और “बुद्धि” पर कम से कम 10,000 जिनेटिक परिवर्तनों का कम-ज्यादा प्रभाव रहता है।
इस काम को खेती और पशु-विज्ञान में वर्षो से किया जाता रहा है। आज की तारीख में जो गेहूं हम उगा रहे है या गाय की जिस नस्ल का दूध हम पी रहे है उन्हें यदि प्रकृति के भरोसे छोड़ दिया जाता (अर्थात इंसानों का कोई दखल नहीं होता) तो वर्तमान उत्पाद के मिलने की संभावना एक अरब में एक के बराबर होती।

डार्विनीयन विकास गाथा में, प्रकृति के पास फुरसत ही फुरसत थी। लाखों करोड़ों वर्ष तक Random Variation (भिन्नता) और Natural Selection (प्राकृतिक चयन) का चौसर का खेल जारी रहा। नयी और बेहतर (ज़िंदा रह कर प्रजनन कर पाने में बेहतर, किन्ही अन्य अर्थों में बेहतर होना जरुरी नहीं) नस्ले और प्रजातियाँ मंथर गति से आती रहीं, जाती रहीं।
यदि माता पिता अधिक संख्या में CRISPER जैसी तकनीक से मनचाहे गुणों वाली संताने पैदा करने लगे तो, देखते ही देखते, कुछ ही पीढ़ियों में विभिन्न क्षमताओं के औसत बदलने लगेंगे। Outliers की संख्या बढ़ेगी। ओलम्पिक रिकॉर्ड टूटते ही रहेंगे। लेकिन क्या इसमें बोरियत नहीं होगी? जब मालूम है कि आप स्टेरॉयड खा रहे हो या आपके अमीर बाप ने पैसा खर्च कर के आपके जीनोम को अपग्रेड कर दिया है, तो आप को जीतता देखने में भला क्या रोमांच रहा?

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Author profile
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डॉ अपूर्व पौराणिक

Qualifications : M.D., DM (Neurology)

 

Speciality : Senior Neurologist Aphasiology

 

Position :  Director, Pauranik Academy of Medical Education, Indore

Ex-Professor of Neurology, M.G.M. Medical College, Indore

 

Some Achievements :

  • Parke Davis Award for Epilepsy Services, 1994 (US $ 1000)
  • International League Against Epilepsy Grant for Epilepsy Education, 1994-1996 (US $ 6000)
  • Rotary International Grant for Epilepsy, 1995 (US $ 10,000)
  • Member Public Education Commission International Bureau of Epilepsy, 1994-1997
  • Visiting Teacher, Neurolinguistics, Osmania University, Hyderabad, 1997
  • Advisor, Palatucci Advocacy & Leadership Forum, American Academy of Neurology, 2006
  • Recognized as ‘Entrepreneur Neurologist’, World Federation of Neurology, Newsletter
  • Publications (50) & presentations (200) in national & international forums
  • Charak Award: Indian Medical Association

 

Main Passions and Missions

  • Teaching Neurology from Grass-root to post-doctoral levels : 48 years.
  • Public Health Education and Patient Education in Hindi about Neurology and other medical conditions
  • Advocacy for patients, caregivers and the subject of neurology
  • Rehabilitation of persons disabled due to neurological diseases.
  • Initiation and Nurturing of Self Help Groups (Patient Support Group) dedicated to different neurological diseases.
  • Promotion of inclusion of Humanities in Medical Education.
  • Avid reader and popular public speaker on wide range of subjects.
  • Hindi Author – Clinical Tales, Travelogues, Essays.
  • Fitness Enthusiast – Regular Runner 10 km in Marathon
  • Medical Research – Aphasia (Disorders of Speech and Language due to brain stroke).