कविता : तुम्हारी आवाज़

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तुम्हारी आवाज़

मैं तुम्हारी आवाज को देख सकता हूँ
बहुत दूर से
और पास से तो उसे छूकर सहला तक सकता हूँ
तुम्हारी आवाज की शक़्ल
इतनी जानी पहचानी है
कि मैं उसे तुमसे भी जल्दी पहचान सकता हूँ
कई बार कई कई दिनों तक
बिना बोले ही मेरे साथ रही आती है
तुम्हारी आवाज़
और कई बार मुझे ले जाती है
अपने साथ बहुत दूर
जहां तुम्हारे साथ शायद ही
कभी जा पाता

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तुम नहीं जानतीं कि तुम्हारी आवाज के
कितने कितने रंग और कितने कितने रूप हैं
उसकी कोमलता
मुझे भीतर तक सहला जाती है
और उसका खुरदरापन
कर देता है लहूलुहान
जब वह चुपचाप
हौले से आकर मेरे बगल में बैठती है
तो मैं थोड़ा सा खिसककर
उसके लिए जगह बनाता हूँ
वह आहिस्ता से मेरी पीठ पर हाथ रखती है
और फिर मेरे गालों को चूमने लगती है
तुम्हारी आवाज मुझे छूती है
बिल्कुल तुम्हारी तरह

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