लोकभाषाएँ हमारी संस्कृति की संवाहक : डाॅ बार्चे

739
लोकभाषाएँ

     लोकभाषाएँ हमारी संस्कृति की संवाहक : डाॅ बार्चे

                           लेखक संघ की लोकभाषा गोष्ठी में पढ़ी गयीं
                            बुन्देली, बघेली, मालवी व निमाड़ी रचनाएँ

भोपाल । ” लोक भाषाएँ हमारी संस्कृति की संवाहक हैं। इनमें जीवन के हर प्रसंग से जुड़ी भावनाएँ मुखर होती रही हैं और इनके कारण ही हमारी परम्परायें जीवन्त हैं।”  यह कहना था वरिष्ठ निमाड़ी साहित्यकार डाॅ. अखिलेश बार्चे का जो मध्यप्रदेश लेखक संघ की प्रादेशिक लोकभाषा गोष्ठी के मुख्य अतिथि थे।

कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए संघ के प्रदेशाध्यक्ष डा. राम वल्लभ आचार्य ने कहा कि एक समय था जब फिल्मी गीतों में लोकभाषाओं का माधुर्य झलकता था किन्तु आज की फिल्मों के फूहड़ सम्वादों और द्विअर्थी गीतों ने अपसंस्कृति को बढ़ावा दिया है । इसलिये लोकभाषाओं के सृजन को प्रोत्साहन देना जरूरी है । सारस्वत अतिथि प्रभुदयाल मिश्र का कहना था कि हिन्दी को समृद्ध करने में लोकभाषाओं का महत्वपूर्ण योगदान रहा है और लेखक संघ प्रारंभ से ही लोकभाषाओं के सृजन को प्रोत्साहित करता रहा है ।

इस अवसर पर डाॅ. बार्चे के निमाड़ी निबंध संग्रह “वेलेन्टाइन डे काँ लगज” का लोकार्पण किया गया । तत्पश्चात् गोष्ठी में सर्वश्री विनोद मिश्र ‘सुरमणि’ दतिया, बंशीधर बंधु एवं राम प्रसाद सहज शुजालपुर,श्री गणेश प्रसाद राय दमोह, सुनील चौरे उपमन्यु खंडवा, कमलेश सेन टीकमगढ़, सत्यदेव सोनी तथा श्रीमती आशा श्रीवास्तव भोपाल ने अपनी सरस रचनाओं का पाठ किया। गोष्ठी का संचालन गोकुल सोनी ने, अतिथियों का स्वागत राजेन्द्र गट्टानी ने तथा आभार प्रदर्शन ऋषि श्रंगारी ने किया ।
किसने क्या पढ़ा –
खरगोन से पधारे डाॅ. अखिलेश बार्चे ने निमाड़ी निबंध “चाँद बाबा चंदी दs” का पाठ किया । डाॅ. राम वल्लभ आचार्य ने अपनी बुन्देली कविता “देखो आगये चुनाव, नेताजी ठाड़े हैं द्वार पर” का पाठ कर राजनीति पर कटाक्ष किया । वेदविद प्रभुदयाल मिश्र ने पढ़ा “लोक भाषा में लोक भावों की अभिव्यक्ति, चली सुभग कविता सरिता सो, राम बिमल जस जल भरिता सो, सरजू नाम सुमंगल मूला, लोक बेद मत मंजुल कूला।”

cc6f7db8 caef 4ae4 9de3 a3c962a1e47ef609a93b 9010 459e bbf3 fc6d9bc94a1f

दतिया से पधारे विनोद मिश्र सुरमणि ने अपनी रचना “आम, नीम,बरगद की छांव में, चलो चलें हम अपने गांव में” सुनाकर वाहवाही लूटी । दमोह से आये गणेश राय ने कविता  “हमरे बब्बा हमसें कत्ते, पेलऊं के ऐंसे नें रत्ते, जित्ती कत्ते सांची कत्ते, इत्ती लबरी नें बोलत्ते । खंडवा के सुनील चौरे उपमन्यु की हास्य रचना “मन म मत रख तू, आज तू बकी दs, सब वठेला ज्ञान का सागर छे, इनका सामनs अपनी वात रखी दs ” का पाठ किया ।

बघेली कवि सत्यदेव सोनी ने महतारी शीर्षक रचना में कहा “महतारी ममता के सागर हृदय गंग की धार, जे माता के ममता पाइस, भा ओकर उद्धार।” शुजालपुर के कवि बंशीधर बंधु की नर्मदा पर मालवी कविता “म्हण्नेतो तम लगो मां नर्मदा जाने कोई परी, अमर कंटक से उतरो नानो सो रूप धरी” भी काफी पसंद की गयी । वहीं के राम प्रसाद ‘सहज’ की रचना “असो हे यो गाम को, प्यारो भारत देस, सीदा-सादा लोग हुण, ने सीदो – सादो भेष।” के बाद भोपाल की आशा श्रीवास्तव ने “लला, तुम अइयो हमरे गाँव, पीपर बरगद महुआ महके नीम की ठंडी छाँव।” की प्रस्तुति द्वारा वाहवाही प्राप्त हुई । टीकमगढ़ के कवि कमलेश सेन की पंक्तियाँ थीं “आजकाल के लरका खूबई अत्त तो भारी कर रय, बाप मताई इनके मारे हा हा थाई कर रय।”

आज का विचार : “निंदा दुनिया का सबसे बड़े पाप कर्म” 

हर अनाम शहीद के नाम “उसने कहा था !”