डॉ अम्बेडकर(Dr Ambedkar) न्यायोचित परिवर्तन के अपराजेय नायक!

डॉ अम्बेडकर(Dr Ambedkar) न्यायोचित परिवर्तन के अपराजेय नायक!

बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर आधुनिक भारतीय चिंतकों के एक प्रतिनिधि का नाम हैं। वे एक प्रख्यात अर्थशास्त्री, कानूनविद, राजनेता तथा समाज सुधारक थे। अपने प्रगतिशील कृतित्व और रोशन व्यक्तित्व के कारण वे आज भी लाखों लोगों के लिए प्रेरणास्रोत हैं। ऐसे बहुत सारे लोग जिन्हें अपने अधिकारों के लिए कभी आवाज उठाने का अवसर नहीं मिला! जीवन की बुनियादी आवश्यकताओं के लिए रोजमर्रा की जद्दोजहद जिनकी जिन्दगी का सच था। उन सभी लोगों के लिए बाबा साहेब एक सम्पूर्ण और बेहद जरुरी आवाज बन कर आए थे।

भारत रत्न से सम्मानित डॉ बीआर अम्बेडकर बचपन में भिवा, भीम, भीमराव के नाम से जाने जाते थे। लेकिन, आज हम सब उन्हें बड़े आदर के साथ बाबा साहेब अम्बेडकर के नाम से पुकारते हैं। वे बचपन से ही प्रतिभाशाली छात्र थे और उन्होंने कोलंबिया विश्वविद्यालय तथा लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स दोनों ही विश्वविद्यालयों से अर्थशास्त्र में डॉक्टरेट की उपाधियाँ हासिल की। अर्थशास्त्र के साथ विधि एवं राजनीति विज्ञान में भी शोध कार्य किया। प्रारंभ में वे अर्थशास्त्र के प्रोफेसर रहे, वकालात भी की। लेकिन, बाद में वे राजनीतिक गतिविधियों में सम्मिलित होकर भारत की वास्तविक स्वतंत्रता, सामाजिक स्वतंत्रता तथा आर्थिक स्वतंत्रता के लिए अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया।

उस समय हिंदू पंथ में अनेक कुरीतियां, छुआछूत और ऊंच-नीच की प्रथाएं प्रचलन में थीं। जिसके लिए उन्होंने अथक संघर्ष किया। वे स्वयं दलित वर्ग से सम्बन्धित थे। छुआछूत के दंश को, समाज में व्याप्त सामाजिक असमानता, जाति-व्यवस्था, शूद्रों के साथ होने वाले अमानवीय व्यवहार को उन्होंने अपने बाल्यकाल से देखा-जाना और भोगा था। उस भोगे हुए जीवन-यथार्थ से उन्हें प्रत्येक प्रकार की सामाजिक असमानता के लिए आवाज उठाने की प्रेरणा मिली। उनका मानना था कि ‘छुआछूत गुलामी से भी बदतर है।’ सन 1927 तक डॉ अंबेडकर ने छुआछूत के विरूद्ध एक सक्रिय आंदोलन प्रारंभ किया और सार्वजनिक आंदोलन, सत्याग्रह और जुलूसों के माध्यम से पेयजल के सार्वजनिक संसाधन समाज के सभी वर्गों के लिए खुलवाने का प्रयास किया।

वे निरंतर हिंदू समाज को सुधारने, समानता लाने के लिए प्रयास करते रहे, लेकिन कुप्रथाओं की जड़ें इतनी गहरी थीं कि उनका समूल उन्मूलन उन्हें कठिन लगने लगा। एक बार तो वे गहरी हताशा में कहते हैं कि ‘हमने हिंदू समाज में समानता का स्तर प्राप्त करने के लिए हर तरह के प्रयास और सत्याग्रह किए, परंतु सब निरर्थक सिद्ध हुए। हिंदू समाज में समानता के लिए कोई स्थान नहीं है।’ इसका परिणाम यह हुआ कि 14 अक्टूबर, 1956 को नागपुर में उन्होंने अपने 3.85 लाख समर्थकों के साथ बौद्ध धर्म को अपनाते हुए वंचित दलित समुदाय को नवीन धार्मिक, अध्यात्मिक, नैतिक मूल्यों, रीति रिवाजों की एक जीवन्त परंपरा प्रदान की।

उन्होंने भारतीय समाज व्यवस्था, जाति व्यवस्था, धर्म का, अर्थ-तंत्र, वंचित वर्ग के अधिकार, मजदूरों और कामगारों का हित, महिला-अधिकार, व्यवस्थापिका, कार्यपालिका एवं सरकारी सेवा में दलित वर्ग के स्वाभाविक प्रतिनिधितत्व के साथ ही शिक्षा, ज्ञान-विज्ञान आदि मुद्दों पर सर्वाधिक तार्किक ढ़ंग से सोचा-विचारा और अपने निष्कर्षों को हमारे सामने रखा। वे एक बहुपठित और बहुज्ञ व्यक्तित्व के स्वामी थे. उनका वैचारिक-पक्ष न्यायोचित एवं मानवीय था। उनका सम्पूर्ण जीवन और वैचारिक-भूमिका भारतीय समाज और चेतना में समरसता को स्थापित करने के लिए न्यायोचित परिवर्तन के लिए समर्पित रहा।

उन्होंने अपनी श्रमसाध्य ज्ञानात्मक प्रयासों से यह पाया कि भारतीय समाज व्यवस्था में निहित संरचना जैसे, जाति-व्यवस्था, वर्ण-व्यवस्था, अस्पृश्यता, ऊँच-नीच, शोषण, अन्याय आदि बाद के दिनों में आये विभिन्न गतिरोधों एवं विकृतियों की उपज हैं न कि प्राचीन भारतीय समाज-व्यवस्था का मूल स्वभाव। भारतीय समाज व्यवस्था, आर्थिक तंत्र, राजनीतिक प्रक्रियाओं एवं सभ्यता की उपलब्धियां तथा दुविधाओं के प्रति बाबा साहेब का समझ अतुलनीय है। अपनी इसी विशिष्ट प्रतिभा के चलते वे स्वतंत्र भारत के प्रथम विधि एवं न्याय मंत्री बने। वह भारतीय संविधान के जनक एवं भारतीय गणराज्य के निर्माताओं में से एक थे। उनके भारतीय संविधान के अभूतपूर्व योगदान के लिए उन्हें भारतीय संविधान का पितामह कहा जाता है। सन् 1951 में उन्होंने भारत के वित्तीय कमीशन की स्थापना की।

डॉ अम्बेडकर की अंतिम पांडुलिपि ‘द बुद्धा एंड हिज़ धम्म’ को पूरा करने के 3 दिन बाद उनकी मृत्यु 6 दिसंबर, 1956 को दिल्ली में नींद में ही हो गई थी। पर, आज भी वे बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर, जय भीम, एक महानायक के रूप में अमर हैं। डॉ अम्बेडकर कहा करते थे ‘हम शुरू से लेकर अंत तक भारतीय हैं और मैं चाहता हूँ कि भारत का प्रत्येक मनुष्य भारतीय बने, अंत तक भारतीय रहे और भारतीय के अलावा कुछ न बने। ऐसे युग निर्माता के 131 वें जन्मदिवस पर हम सभी भारतीयों के लिए उनका संदेश शिक्षित बनो, संगठित बनो, संघर्ष करो प्रेरणा का स्रोत बना हुआ है। भारतीय संविधान में बहुमूल्य योगदान इस देश को एक नई दिशा देने वाले बाबा साहेब समता, स्वतंत्रता और समरसता के सौन्दर्य के स्वाभाविक प्रतीक पुरुष थे। उनके क्रांतिकारी विचार और निष्कर्ष, उनके द्वारा खोजे और पाये गये प्राथमिक स्रोतों पर आधारित हैं। इसीलिए वर्तमान समय में भी उनके विचारों की प्रासंगिकता बनी हुई है बल्कि यूँ कहें कि और बढ़ गई है।

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प्रो नीलिमा गुप्ता

(कुलपति, डॉ हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर)