सम्मान का मनोविज्ञान !

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व्यंग 

सम्मान का मनोविज्ञान !

सम्मान की चाह किसे नहीं होती ? हर कोई अपने किए कार्यों की प्रशंसा एवं पुरस्कार की अपेक्षा रखता है । यद्यपि साहित्यिक रचनाएं स्वांतःसुखाय होती है,फिर भी सहज मानवीय प्रवृत्ति सराहना की अपेक्षा करती है ।
निष्पक्ष समीक्षात्मक आलोचनाओं का भी खुले मन से स्वागत किया जाना चाहिए । कभी-कभी सम्मान पत्रों के चयन पर प्रश्न जरूर खड़े कर दिए जाते हैं। यह एक स्वाभाविक प्रतिक्रिया भी है। यह मर्यादित होना चाहिए ।
हर कोई रचनाकार अपनी रचना धर्मिता का श्रेष्ठ देना चाहता है । रचनाकार इस कसौटी पर कितना खरा उतरा कभी कभी यह सम्मान द्वारा भी मूल्यांकित किया जाता है । सम्मान की भी अपनी सीमाएं हैं। सभी को सम्मान दिया जाना हमेशा संभव नहीं होता ।ऐसे में चयन मंडल द्वारा अपने तयशुदा मानकों पर रचना को परखकर उनका सम्मान हेतु चयन किया जाता है । यही सर्वोत्तम चयन प्रक्रिया भी है। फिर भी कुछ लोग संतुष्ट नहीं हो पाते ।
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सम्मान रचनाकारों को गौरव की अनुभूति के साथ ही रचनाकर्म के लिए प्रोत्साहित भी करते हैं ।वैसे सम्मान की चाह में रचनाकर्म उचित प्रतीत नहीं होता। स्तरीय रचनाकार एवं रचनाएं स्वतः सुधि पाठकों को प्रभावित कर लेते हैं ।उनकी रचना सम्मान हेतु चयन मंडल को बाध्य कर देती है ।
कुल मिलाकर सम्मान रचनाकार को प्रोत्साहित तो करते ही हैं, साथ ही उनकी रचनाधर्मिता को सम्मान पूर्वक मान्यता भी प्रदान करते हैं । इसलिए रचनाकारों को अपना ध्यान रचना की गुणवत्ता पर केंद्रित रखना चाहिए । रचना के भावपक्ष एवं कलापक्ष दोनों का संतुलित सहज प्रयोग रचना को आकर्षक बना देता है । ऐसी रचनाएं चयन मंडल द्वारा जरूर चयनित की जाती है ।
सम्मान नहीं मिलने पर नैराश्य भाव नहीं आना चाहिए। आज नहीं तो कल रचनाओं को सम्मान जरूर मिलेगा । लेखन प्रक्रिया सहज सतत निरंतर रहना जरूरी है ।
आभासी दुनिया के बढ़ते प्रभाव ने सम्मान की लालसा को बढ़ा दिया है । अनेक डिजिटल प्लेटफॉर्म रचनाकारों को सम्मानित करते रहते हैं। ऐसे डिजिटल प्लेटफॉर्म का भी स्वागत किया जाना चाहिए। खेमे बंदी एवं बाड़ा बंदी का जगजाहिर रोग यहां बहुत पहले से व्याप्त है । कुछ लोग जुगाड़ से सम्मान हथिया लेते हैं तो कुछ अन्य तरीके अपनाकर ।
सम्मान का जुगाड़ तंत्र सब दूर हावी नहीं है । कुछ संस्थाएं पारदर्शी तरीके से काम कर रही है। यह संस्था को संचालित वाले व्यक्तित्व पर भी निर्भर करता है।( जैसे हिंदी साहित्य अकादमी मध्यप्रदेश पारदर्शी प्रक्रिया अपनाकर स्थापित मानदंडों पर चयन करती है साधुवाद)। प्राप्त सभी प्रविष्टियों को पुरस्कृत किया जाना कहीं भी संभव नहीं है । श्रेष्ठतम प्रविष्टियों का चयन बहुत कठिन होता है। चयन मंडल के भी अपने-अपने दायरे होते हैं।
चयन मंडल को पूर्व से स्थापित भारी-भरकम नाम के प्रभाव से बचना चाहिए ।
कुछ संस्थाएं भारी-भरकम व्यक्तियों के बोझ से दबी रहती है। मीडिया एवं कथित संस्थाओं से दूरी बनाए हुए बहुत सारे लेखक आज भी साहित्यिक रचनाओं का उपादान दे रहे हैं। संस्थाओं को मीडिया तंत्र में रोजाना नहीं दिखने वाले रचनाकारों पर भी ध्यान देना चाहिए । यह निर्विवाद सत्य है सभी को सम्मानित नहीं किया जा सकता किंतु श्रेष्ठतम को सम्मानित करने की दृढ़ इच्छाशक्ति संस्थाओं के पास होना चाहिए।
व्यक्तियों की तरह कुछ संस्थाएं भी पूर्वाग्रह की शिकार रहती है। उच्च स्तर की रचना धर्मिता को प्रोत्साहित करना सभी का उद्देश्य होना चाहिए ।
आजकल सोशल मीडिया पर आ रहे रचनाकारों को दोयम दर्जे का साबित करने की होड़ लगी हुई है। कुछ कथित प्रतिस्थापित इसे अपने हम पर आघात मानते हैं। इस पूर्वाग्रह को कदापि उचित नहीं कहा जा सकता ।
कुल मिलाकर सम्मान का मनोविज्ञान हर व्यक्ति और तंत्र को प्रभावित करता है। मठाधीश कहां नहीं हैं? क्या बिना मठाधीश के मठ की कल्पना तार्किक है ?
श्रेष्ठ का सम्मान सर्वश्रेष्ठ उपलब्धि है।
रमेशचंद्र शर्मा
इंदौर