16.In Memory of My Father: मेरे पिता यकीनन तानाशाह थे !

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In Memory of My Father / मेरी स्मृतियों में मेरे पिता

मेरे पिता। यकीनन तानाशाह थे वो। और यदि ऐसे थे तो उसमे क़तई गलती थी नही उनकी। वो जिस वक्त की पैदाइश थे तब तक घर का मुखिया राजा होता था और बाकी मेंबर प्रजा। इससे किसी को कोई खास शिकायत हो ऐसा भी नही था। आदत में थे वो और यदि वो किस और तरीके से बर्ताव करते तो ज़रूर सबको ताज्जुब होता।

दिक्कत होती थी उनको जो हमारे घर की चारदीवारी के बाहर रहते थे।आदत थी उन्हें किसी भी विषय पर अपनी राय जाहिर करने की। वो करते थे। यकीनन सौ मे से नब्बे बार सही भी होते थे। पर उनकी भरपूर कोशिश होती थी कि सौ मे से सौ बार उनकी ही बात का परचम फहराए। किसी विषय की व्याख्या करने पर उतारू होते थे तो कोई कोर कसर बाकी रखते नही थे। उनकी बौद्धिकता गरिष्ठ थी और ऐसे में साधारण जन अपच का शिकार होते थे और विद्वान ईर्ष्या करते थे।

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हालाँकि बात सबसे करते नही थे। पहले तौलते थे सामने वाले को कि मुँह लगाने लायक़ है भी या नही। जँचा तो ठीक वरना डाँट फटकार कर काम चलाना बेहतर मानते थे वो।सत्य और थोडा कडवा बोलने  के आदी थे पर हम घरवालों को इससे बख्श रखा था उन्होंने। बच्चों से नाराज़ होते थे पर हाथ उठाने से परहेज़ था उन्हें। अजब तासीर थी। जो पसंद आ गया उसकी हर बात पे राजी,और जो नागवार गुजरा उसकी सही बात भी कचरे की टोकरी में। जिससे राजी ,उससे कब तक राजी रहेंगे इसका भी कोई ठिकाना नही। अनमने जल्दी होते थे,मानते देर से थे। कई बार तो मानने मे इतनी देर लगा देते थे कि मनाने वाला थक हार कर अपना बोरिया बिस्तर समेट लेता था। ऐसे मे ज्यादा लोगों से पटी नही उनकी। कम लोग आसपास रहे और वो लोगों की इस नासमझी को लेकर भी नाराज बने रहे।

सत्तर अस्सी मेरे बचपन के दशक थे। उन दिनों का हिंदुस्तान ठहरा हुआ था। सीमित संसाधनों और कम इच्छाओं वाला जीवन।तब के लोगों की हैसियत मे बहुत ज़्यादा ऊंचनीच दिखती नही थी। अमीर दिखावे से बचते थे और विनम्र दिखने की कोशिश करते थे ऐसे मे समाज मे असंतोष कम ही दिखता था। तब बौद्धिकता का सम्मान था।और काबिल लोग सहज मे सरकारी नौकरी पा जाया करते थे। मेरे पिता विद्वान ,कुशाग्र बुद्धि और तार्किक व्यक्ति थे। पर थे थोडे आवेगी थे  ।सरकारी नौकरी तो मिली उन्हें ,पर अपने से बेहतर पदों पर नियुक्त औसत व्यक्ति उन्हें असहज कर जाते थे। नास्तिक नही थे पर कर्मकांड से कोसो दूर रहते थे। आर्य समाज के विचारों से प्रभावित थे। पर इंसानियत के हामी थे और धर्म संप्रदाय और सोच की की छुद्रताएं उन्हें नाराज कर जाती थी।

नाराज़गी स्थाई प्रवृत्ति हो उनकी ऐसा भी नही। मनचाही होने पर बेहद खुश भी हो जाते थे वो। मनचाहा यानि ,चटपटा तर भोजन। पसंदीदा दोस्त। अच्छी किताबें। दिनमान और धर्मयुग जैसी पत्रिकाएँ। बीबीसी लंदन।और जब भी इनमें से कोई उनके आसपास हो वो खुश हो जाते थे। सुदर्शन व्यक्ति थे वो। पढ़े लिखे लोगों मे मन रमता था उनका। लाईब्रेरी उनकी पसंदीदा जगह थी। ज़िद्दी थे पर बात के पक्के थे। सिगरेट पीना उनका एकमात्र व्यसन था।पर फिर एक दिन उन्होंने अचानक सिगरेटें फेंक दी सारी और बची ज़िंदगी उसे हाथ भी नहीं लगाया।

हर पिता की तरह वो भी चाहते थे कि उनके बेटे बेहतर कर दिखाएं। उनके मन की हुई भी।वो खुश भी हुए पर जल्दी चले गए। उनके साथ कुछ समय मिलता तो बहुत अच्छा होता। जहाँ तक मेरी बात है ,बढ़ती उम्र के साथ साथ खुद को उनके और नज़दीक महसूस करता हूँ मैं। उनकी ख़ामियाँ अब मुझे ख़ामियाँ नही लगती।सालों बीत गए उन्हें गए हुए पर अजीब बात यह है कि वो अकेले इंसान है जो मुझे सपनों मे दिखाई देते है।

मुकेश नेमा

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डिप्टी कमिश्नर एक्साईज इंदौर डिविज़न
मध्यप्रदेश

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