मेरे मन/मेरी स्मृतियों में मेरे पिता
पिता को लेकर mediawala.in में शुरू की हैं शृंखला-मेरे मन/मेरी स्मृतियों में मेरे पिता। इस श्रृंखला की 42nd किस्त में आज हम प्रस्तुत कर रहे है सुप्रसिद्ध न्यूरो फिजिशियन डॉ.अपूर्व पौराणिक को .डॉ पौराणिक ना केवल देश के प्रसिद्ध न्यूरोलॉजिस्ट है बल्कि न्यूरो ज्ञान को हिंदी में जन जन तक पन्हुचाने वाले अद्वितीय लेखक भी हैं .निर्देशक – पौराणिक अकेडमी ऑफ मेडिकल एजुकेशन,वरिष्ठ न्यूरोलॉजिस्ट, पौराणिक न्यूरो सेण्टर, इंदौर ,पूर्व प्राध्यापक – महात्मा गांधी स्मृति चिकित्सा महाविद्यालय, इन्दौर (म.प्र.) हैं .
42.In Memory of My Father Shri Krishna Vallabh Pauranik: मेरे पिता में राष्ट्रवाद व हिंदुत्व की भावनाएं कूट-कूट कर भरी थी-डॉ. अपूर्व पौराणिक
मेरे पापा : श्री कृष्णवल्लभ पौराणिक (1929-2016)
मेरे पापा का जन्म 29 अक्टूबर 2029 को गांव टिमांयची जिला शाजापुर मध्य प्रदेश में हुआ था। मेरे दादाजी श्री कन्हैयालाल जी के पूर्वज मेवाड़ राजस्थान से धमनार (मंदसौर) और बड़ावदा (जावरा) होते हुए इंदौर आकर बसने लगे थे। अनेक पीढ़ियों से मेवाड़ के राजपरिवारों में पंडिताई का काम करने से पुराणिक या पौराणिक कहलाते थे। पापा समेत सात भाई व तीन बहने हुई। 40 के दशक में, किशोरा वस्था में वे राष्ट्रीय स्वयं संघ के सक्रिय सदस्य बने। गांधी जी की हत्या के बाद संघ के ऊपर लगे प्रतिबंध को हटाने हेतु शांतिपूर्वक सत्याग्रह पर बैठे और राजवाड़ा पर अपनी गिरफ्तारी दी तथा 1 माह कारावास में काटा। पूजा-पाठ व कर्मकांड पसंद नहीं थे। जनेऊ को त्याग दिया था। 1952 में हरदा, हंडिया (जिला-होशंगाबाद) के एक मध्यमवर्गीय संपन्न किसान व उद्यमशील व्यापारी श्री रामप्रसाद जी अग्निहोत्री की चौथी संतान, पुत्री त्रिवेणी से उनका विवाह संपन्न हुआ। सितंबर 1953 में मेरा जन्म हुआ, 1960 में मेरी दो जुड़वा बहने और 1964 में तीसरी छोटी बहन इस दुनिया में आई।
पिता ने विवाह के बाद पढ़ाई पूरी की । एल टी (B.Edके समकक्ष), बीएससी (गणित भौतिकी रसायन) पास करा। कुछ वर्षों बाद विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन से प्राइवेट छात्र के रूप में भूगोल में M.A. किया तथा मेरिट लिस्ट में पहला स्थान पाया।
BramhanicalSupramacyजैसा कोई तथाकथित प्रिविलेज हमने पापा या अन्य पूर्वजों तथा रिश्तेदारों में दूर दूर तक नहीं देखा। सबके सब गरीब, सीधे-साधे ब्राह्मण थे जैसे कि अधिकांश होते हैं।
पापा और माँ दोनों का जीवन शिक्षा विभाग में बीता। वे प्राचार्य के रूप में 1989 और 1993 में क्रमशः सेवानिवृत्त हुए । मूलतः रतलाम में रहे। 1959 से 1990 तक वहीं पर 1967-68 में घर बनाया। हम बच्चों की शिक्षा भी हिंदी माध्यम के सरकारी विद्यालयों में हुई।
पापा आदर्शवादी थे। आर. एस. एस. के संस्कार थे। राष्ट्रवाद व हिंदुत्व की भावनाएं कूट-कूट कर भरी हुई थी। दकियानूसी नहीं थे, प्रगतिशील थे। रूढ़ीवादी नहीं, उदार थे। जात पात नहीं मानते थे। अंतर जाति विवाह को श्रेयस्कर मानते थे। गरीबों के प्रति करुणा व सहानुभूति रखते थे। गैर बराबरी के प्रति असहज हो जाते थे। छुआछूत के घोर विरोधी थे। संघ के एक कैंप में सागर में रहकर उन्होंने जाना था कि हम सब भारतवासी एक है। हमारे घर पर खाना बनाने वाली सहायिकाओं में दलित व मुस्लिम महिलाएं भी रही थी।
पापा श्रम को महत्ता देते थे। उनके अनुसार कोई भी काम छोटा या बड़ा नहीं होता था। कुछ ना कुछ करने को उनके हाथ कुलबुलाते रहते थे। समय, दिनचर्या, भोजन, सोना, जागना, व्यायाम करना आदि सभी कामों को लेकर उनका अनुशासन कठोर था।
उनकी बौद्धिकता आला दर्जे की थी। पढ़ना अच्छा लगता था। समसामयिक विषय, अख़बार, पत्र पत्रिकाएं, कहानियां, उपन्यास आदि का शौक था। 60 वर्ष की उम्र में रिटायरमेंट के बाद उनकी लेखन वृत्ति जागृत होते देख हम खुशी से आश्चर्यचकित हो गए। नई दुनिया अख़बार में संपादक के नाम पत्र के लेखकों के रूप में उनकी एक खास सम्माननीय पहचान बनी थी। नई दुनिया दैनिक समाचार पत्र में संपादक के नाम स्तम्भ में पत्र लिखा था- अपराधी, गुनहगार या दोषी के लिए ‘आरोपी’ नहीं ‘आरोपित’ शब्द प्रयुक्त होना चाहिए। उस पत्र पर तब नई दुनिया के संपादकीय मंडल ने विचार मंथन किया था। आज नई दुनिया और सहयोगी प्रकाशन जागरण में ‘आरोपित’ शब्द प्रयुक्त होता देख पापा की याद आती है। शायद इतर लोगों का इस पर ध्यान नहीं गया है, अभी तक।
एक के बाद एक पापा की कुल 5 पुस्तकें प्रकाशित हुई
- पतझड़ और नवल कोपले कविता संग्रह
- रेल चली भई रेल चली बाल गीत
- पद चिन्हों पर कहानी संग्रह
- दोहा सूक्ति सरोवर- दोहे
- क्षितिज के पार
- नरसिंह गढ़ में शायद 1958-1959 का वर्ष होगा। क्षीण सी स्मृतियाँ हैं। घर के सामने एक कुआँ है। पापा उसमे से बाल्टियां भर भर कर निकाल रहे हैं। मेरे पास एक छोटी सी पीतल की बाल्टी है। मैं भी उसमे पानी भर कर शायद अंदर ले जा रहा हूँ। पापा परिश्रमी थे। श्रम उन्हें आनंद देता था।
- नवंबर 1959-60 की एक सुबह रेल के डब्बे में मेरी नींद खुलती है। स्टेशन आ गया है। चिड़ियाओं का शोर है। पापा कहते हैं अप्पू उठो रतलाम आ गया है। मैं पूछता हूँ ‘हम कहाँ रहेंगे।’ पापा बताते हैं ‘मेरे एक काकाजी हैं। उनके यहाँ रहेंगे। पापा ने सदैव परिजनों से आत्मीय मधुर रिश्ते बना कर रखे ।
- आगर में पापा मुझे कंधे पर बैठा कर दशहरा दिखने ले गए थे। मिटटी का रावण था जिसका सर हौले से पृथक से रखा हुआ था। राम ने उसे लुढ़का दिया था।
- आगर में नेरोगेज रेलवे लाइन की पटरियां गाँव के मुहाने पर थी। एक शाम मैं पापा के साथ वहां गया था औरपटरियों पर झुक कर कान चिपका दिए। दूर धीमीगति से रेंगती हुई खिलौना रूपी ट्रैन की आवाजें सुननारोमांचक था। फिर पापा कहते अप्पू अब हट जाओ। रेल पास आ रही है।
- रतलाम में कुछ दिनों तक रोज शाम स्कूल से लौटते समय पापा के साथ उनके सहकर्मी शिक्षकों का एक दल घर तक छोड़ने आता था। एक गुंडा छात्र नेता नक़ल कर के पास होता था। परीक्षा नियंत्रक के रूप में पापा थे । छात्र ने एक बड़ा चाकू परीक्षा की मेज पर गाड़ कर खड़ा कर रखा था। डराने के लिए। पापा ने कहा इसे नहीं रख सकते । छात्र बोला यह पेन्सिल छीलने के लिए है। पापा ने चाकू उखाड़ कर अलग रखवा दिया। वे आदर्शवादी और निडर थे।
- ‘वृन्दावन का कृष्ण कन्हैया सबकी आँखों का तारा।’ अनेक गीत, भजन और शास्त्रीय संगीत की बंदिशों को मैंने पापा की मधुर आवाज में बहुत बार सुना है। उनके पास हारमोनियम व तबला था। रेडियो पर क्लासिकल म्यूजिक (हिंदुस्तानी) सुनते समय पापा तल्लीन हो जाते थे, हाथ से पाँव /जांघ पर थपकियाँ देते थे।
- साठ के दशक में माणिक चौक हायर सेकेंडरी स्कूल के स्टाफ कक्ष में मैं एक बार किसी काम से गया था। कुछ देर तक बातें सुनता रहा। वहां पापा को मजाक करते, ठहाके लगते देखने का वह मेरे लिए पहला मौका था। बाद में अच्छे से जाना की पापा में सेन्स ऑफ़ ह्यूमर खूब था।
मेरे जन्मदिन पर मुझे प्रेषित कविता
प्रिय अपूर्व,
अर्थ बहुत कुछ है दुनिया में, पर सब कुछ तो ना है जग में,
अर्थवान का नाम तभी है, भामाशाह, बने वह जग में,
तुम संस्कारित पुत्र हमारे, खूब कमाओ अपने श्रम से,
श्रम से प्राप्त अर्थ है टिकता, श्रम रहित अर्थ है बहता घर से।
सरस्वती को साधो, वह तो सदा साथ जीवन भर रहती।
लक्ष्मी आती-जाती रहती, वीणा वादिनी, नहीं छोड़ती।
चिरस्थायी वे लोग आज हैं, आराधक थे जोड़ें सरस्वती के
नाम अनेकों, तुम्हीं जानते, मैं क्यों नाम गिनाऊं उनके ?
लक्ष्मीपति, तत्काल पूजाता, विद्वान सभी ‘कालजयी’
धारा को परिवर्तित करते, नाम धरा पर जिन्दा रखते।
वैभव मन के पार न जावे, मन का अंकुश, साधे उसको
मन विचलित, ना होने पावे, लगाम विवेक, चलावे उसको
विद्वतजन की, प्रतिभा तुमसे, मांजो और उसे चमकाओ
है आशीष, हमारे तुमको, कुछ विशेष करके दिखलाओ।
पापा की डायरी में से एक अंश
दीर्घ अंतराल के बाद आज पुनः डायरी लिखने का मन बनाया। मन के भाव इन पंक्तियों के माध्यम से अंकित हो रहे हैं। डायरी लिखना एक उत्तम उपाय है। जो समय बीतने के पश्चात पिछले दिनों का इतिहास स्मरण करा देता है।
डायरी लिखने की निरंतरता मैं अपने जीवन में नहीं निभा पाया हूँ। जो मेरे व्यक्तित्व को उजागर कराती है। कई बार व्यवधान उत्पन्न हुए और महीनों के अंतराल के बाद कुछ दिनों या महीनों तक लिखना चला और अनायास बंद हो गया। वैसे मन कहता है कि यह मेरी भूल थी और मुझे निरंतरता को बनाये रखना चाहिए था। उसमें असफल रहा। देखें यह प्रयास कितने दिन, महीने या वर्ष तक चलता है।
ईश्वर ने मेरे परिवार पर कृपा दृष्टी रखी है। मैं उसका आभारी हूँ। एक पुत्र और तीन पुत्रियों के अपने अपने सुखी परिवार है। स्वास्थय कि दृष्टी से भी उन्हें उच्चश्रेणी में रखा जा सकता है। एक मात्र प्रिय बहु डॉक्टर नीरजा प्रसिद्ध गायनेकोलॉजिस्ट है। पोता डॉक्टर निपुण एम.बी.बी.एस. कर रहा है। पोती डॉक्टर अन्विता बॉम्बे में एम.डी. कर रही है। अब विराम देता हूँ। मेरी उम्र 84 के अनुरूप मेरा लेखन लड़खड़ाने लगा है। यह अनुभव करता हूँ।
अपनी मर्जी कहाँ चलती है। ईश्वर इच्छा ही फलीभूत होती है। परब्रह्म परमात्मा कि देख रेख में संसार की गतिविधियां संचालित हो रही है।
इसीलिए जब कोई कहता है कि ‘यह मैंने किया है’। सत्य नहीं है। ऐसा बोल कर हम स्वयं को धोखा देते हैं। अहंकारी बनकर समाज को चुनौती देते हैं। जो कुछ भी हमारे आस-पास हुआ है या हो रहा है वह कई बलों के परिणामी बल के रूप में सब के समक्ष देखने का अवसर हमें मिल रहा है। जैसा भी, जो भी घटा है उसे सहर्ष स्वीकार करना चाहिए इसी में हमारा बड़प्पन है। स्वयं को करता मत मानो। प्रकृति में जो कुछ हो रहा है। वह एक असीम शक्ति के प्रभाव से हो रहा है। ब्रह्माण्ड का निर्माण किस ने किया, कोई नहीं जानता है। हम क्षितिज तक कभी नहीं पहुँच सकते हैं। क्षितिज हमेशा हम से निश्चित दूरी बनाये रखता है। आज तक क्षितिज अप्राप्त रहा है। और भविष्य में भी अप्राप्य रहेगा।
दुनिया में पृथ्वी पर अगणित जाति के जीव विद्यमान है। उनका प्रत्येक का जीवन चक्र ही मनुष्य या मानव का भी जीवन चक्र है। हिन्दू लोगों का मत है कि इस जीवन में यदि अपने परिवार से इतर लोगों के प्रति सद्भाव रख कर उन्हें सहायता पहुंचाई है तो आने ब्राले जन्म में इसका प्रतिफल स्वयं अपने लिए लाभकारी होगा। देने व लेने कि यह क्रिया कई जन्मों तक चल सकती है। यदि हमने अच्छे मन से किसी जीव कि सहायता कि है तो उसके बदले में ईश्वर तुम्हे कई मार्गों से तुम्हारे कष्ट निवारण करेगा। यदि तुम किसी को सुख पहुंचाते हो तो तुम्हे उसके कारण कई जगहों से सुख कि धाराएं आल्पावित करेंगी। ईश्वर का यही न्याय है।
अनेक जन अपने सीमित साधनों से अपने भविष्य को सुखमय बनाने के लिए अपने उपार्जित साधनों में से कुछ हिस्सा इतर लोगों के लिए निर्धारित कर उसे लोगों में वितरित कर देते हैं और इसमें सुख अनुभव करते हैं।