टिकट के दावेदारों को अनावश्यक दबाव से बचाओ प्रभु…

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टिकट के दावेदारों को अनावश्यक दबाव से बचाओ प्रभु…

मध्यप्रदेश में चुनावी साल में खेलो इंडिया यूथ गेम्स के उद्घाटन समारोह के अवसर पर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने एक बात बहुत ही सुंदर कही है। खिलाड़ियों से जीत के लिए सारे प्रयास करने के लिए कहा। कहा कि पसीना बहाओ, ताकत लगाओ, लेकिन सुंदरतम सीख दी है कि अनावश्यक दबाव से बचकर रहना। खेल में जीत-हार तो होती रहती है। तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के समय देश में हुए बदलाव पर कहा कि अब भारत के लोग आंख झुका के नहीं, बल्कि आंखों में आंखें डालकर बात करते हैं।
तो खेलों की इसी भावना का अनुसरण राजनीति में होना चाहिए। पसीना बहाना चाहिए, ताकत लगाना चाहिए, दिन-रात मेहनत करना चाहिए और जीत का कोई मौका नहीं छोड़ना चाहिए लेकिन इसके बाद भी अनावश्यक दबाव से तो बचना ही चाहिए। और शायद खिलाड़ियों के लिए शिवराज की सीख सौ फीसदी जरूरी हो, क्योंकि खिलाड़ियों का अनुभव भी कम होता है और उनकी उम्र कम होने से वह लक्ष्य केंद्रित रहकर जीत से कुछ कम मंजूर करने की सोच नहीं रख पाते। पर राजनेता तो ज्यादा परिपक्व होते हैं और जीतें या हारें पर तनाव और अनावश्यक दबाव लेने की जगह देने का ही काम करते हैं। और शायद इसीलिए नेताओं को इस तरह की सीख देने की जरूरत मुख्यमंत्री, नेता प्रतिपक्ष या किसी अन्य को भी नहीं पड़ती।
उन्हें यह भी पता रहता कि जीत की हरसंभव कोशिश करना है, पर परिणाम कुछ भी हो…इसकी चिंता कतई नहीं करना। और गीता के अध्याय‌ दो का 47 वां श्लोक तो राजनेताओं के दिलों पर राज करता है। श्लोक है कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि। अर्थात तेरा कर्म करने में अधिकार है इनके फलों में नहीं। तू कर्म के फल के प्रति असक्त न हो या कर्म न करने के प्रति प्रेरित न हो। सो गीता के सार से ओतप्रोत राजनेता दिन-रात मेहनत भी करते हैं और पसीना भी बहाते हैं और परिणाम जीत का ही आए, समय रहते इसकी हरसंभव कोशिश भी करते हैं। पर परिणाम जीत का न भी आए, तब भी खेलभावना से हार को गले लगाने में देर भी नहीं करते हैं।
पर राजनेताओं का यह सिर्फ एक पक्ष है। दूसरे पक्ष की बात सामने रखे बिना विषय अधूरा रहेगा और नेताओं की अधूरी तस्वीर ही लोगों तक पहुंच पाएगी।राजनेताओं को भी तनाव और मानसिक दबाव के लंबे दौर से गुजरना पड़ता है। यह आवश्यक या अनावश्यक दबाव मिलता है पार्टी के निर्णायक नेतृत्व से ही। उसी नेतृत्व से जो चुनावी साल में टिकट के दावेदारों की किस्मत का फैसला करते हैं। इसमें उनकी योग्यता, मेहनत, पसीना बहाना और ताकत लगाना सब गौण हो जाते हैं। और यह बात टिकट के सभी दावेदार राजनेताओं पर लागू होती है, चाहे वह भाजपा के हों, कांग्रेस के हों या अन्य किसी दल के। चुनावी साल की शुरुआत यानि पहले महीने से ही यह अनावश्यक दबाव खाए जाता है। खिलाड़ियों को तो जीतने पर सरकारें इनाम में लाखों देती हैं और इसके उलट योग्य, तपी और त्यागी नेता करोड़ों बहाने की कुर्बानी देने को तैयार रहकर बस एक ही तमन्ना रखते हैं कि बस टिकट मिल जाए। पर जब मायूसी हाथ लगती है तो हजार टुकड़ों में टूटकर दिल विधानसभा की गली-गली में बिखर जाता है। और फिर अनावश्यक दबाव इतना प्रभावी हो जाता है कि कभी-कभी तो पार्टी उम्मीदवार के खिलाफ ही मैदान में खुलकर नहीं तो दबे-छुपे ही पूरी दम लगानी पड़ती है।
तो चुनावी साल में हर दल को टिकट वितरण को लेकर अब कुछ ऐसा फार्मूला जरूर सेट करना चाहिए, ताकि टिकट के सभी दावेदार संतुष्ट हो सकें और अनावश्यक दबाव में न आएं। अब नेता भी तो खिलाड़ी हैं, आखिर इनका ख्याल कौन रखेगा। खेल में तो गोल्ड, सिल्वर और ब्रांज तीन पदक विजेता तो हो ही जाते हैं, पर टिकट‌ के दावेदार नेताओं को तो पता रहता है कि यहां गोल्ड, सिल्वर, ब्रांज जैसा कोई चांस नहीं है…यहां तो एक ही टिकट है, सो जो जीता‌ वही सिकंदर। बाकी का जीवन फिर पांच साल के लिए वनवास बनकर रह जाता है…। फिर न तो इनका तनाव देखने वाला कोई रहता है और न इनकी बदकिस्मती पर तरस खाने वाला। जीत-हार से परे इन नेताओं के टिकट की फिक्र हो जाए, बस चुनावी साल की यही चाह है ताकि दावेदारों को तनाव से मुक्ति मिल जाए…।टिकट के दावेदारों को अनावश्यक दबाव से बचाओ प्रभु…।