शिवाष्टक दोहराने वाले कैसे भूल गए अपना कर्म ?

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शिवाष्टक दोहराने वाले कैसे भूल गए अपना कर्म ?

कथा मंच से शिव और शव का भेद समझाने वाले पंडित जी ने तो रुद्राक्ष के निशुल्क वितरण का आह्वान कर सीहोर की सड़कों पर शव रात्रि का ट्रायल रन करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी, शिवराज सिंह की छठी इंद्री समय रहते नहीं जागी होती तो जनहानि की बड़ी घटना मामाजी को भी चुनाव से पहले पांव पांव भैया बना देती। ‘भागवत’ कथा सुन सुन कर सरकार चलाने वालों का धर्म प्रधान हो जाना तो समझ आता है लेकिन सरकार का इकबाल बुलंद करने में दिन रात भिड़े रहने वाले अफसर कैसे अपना कर्म भूल गए। पंडित जी तो अपना जलवा दिखाने में सौ में से डेढ़ सौ नंबर ले आए मगर उस मंद बुद्धि फौज का क्या किया जाए जिसे कुछ नजर ही नहीं आ रहा था।हर घड़ी शिवाष्टक दोहराने वाले किसी अधिकारी ने यह कैसे याद नहीं रखा कि वो फाइल ही तलाश लेते जिसमें एक बार पहले इस तरह के आयोजन की अनुमति निरस्त की जा चुकी है।

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आस्तिक भी इस कल्पना से सिहर उठेंगे कि कोई अनहोनी हो जाती तो…। प्रदेश के मुंह पर लगने वाली कालिख कौन साफ करता, पंडित जी तो मुक्ति मार्ग की कथा सुनाते रहते।अनहोनी का ठीकरा भी उन्हीं श्रद्धालुओं पर फोड़ा जाता मुफ्त रूद्राक्ष के लिए सपरिवार दौड़े चले आए थे। चैनलों से लेकर पांडालों तक में जब धर्म को अफीम में तब्दील करने की कांपिटिशन चल रही हो तब तो अकाल मौत को भी प्रभु मिलन उत्सव में बदला जा सकता है।

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चिंतन तो पंडित प्रदीप मिश्रा को भी करना चाहिए कि व्यास पीठ से जब वो श्रद्धालुओं को हर समस्या का हल, एक लोटा जल बता ही रहे हैं तो ये रुद्राक्ष बांटने की जरूरत क्यों आन पड़ी? इस सच से कौन इंकार करेगा कि शिव मंदिरों की चमक-दमक बढ़ाने का श्रेय पंडित मिश्रा को ही जाता है लेकिन रुद्राक्ष पाने की अंधी दौड़, वाहनों की रेलमपेल, घंटों जाम जैसे हालात के चलते ओंकारेश्वर जैसा हादसा भी तो हो सकता था। 21 साल पहते सोमवती अमावस्या पर ओंकारेश्वर पुल पर (19 जुलाई 1993) हुई भगदड़ में डेढ़ दर्जन से अधिक की जल समाधि हो गई थी। उस हादसे की जांच रिपोर्ट आज तक नहीं आई है।फिर इस महापाप की घंटी किस बिल्ली के गले में बांधी जाती?

कथा-भागवत-भंडारों में जमे रहने के साथ ही चैनलों पर प्रसारित होने वाली कथाओं को पूरा वक्त देने के बाद भी जिनकी समस्या दूर न हो, पंडितों के प्रवचनों का मर्म जो न समझें, मोहमाया के कीचड़ में गले गले तक धंसे उन लोगों को भी क्यों लग रहा है कि एक रुद्राक्ष तमाम परेशानियों से मुक्ति दिला देगा?

बेहतर तो यह होता कि खुद मुख्य सचिव साहस दिखाते, कलेक्टरों को फरमान जारी करते कि अनुमति नहीं दें।चुनावी साल में सरकारें तो जनभावना को भुनाने के चक्कर में यह भी याद नहीं रखना चाहती कि अनहोनी हो गई तो किस के माथे ठीकरा फोड़ा जाएगा। धर्माचार्यों के भड़काऊ भाषणों पर जब खुद सरकारें झांझ-मंजीरे बजाने में जुट जाएं तब तो अफसरों को ऊंच-नीच समझाने का साहस दिखाना ही चाहिए।

कल तक हिंदू-मुस्लिम मुद्दा रहता था लेकिन अब धर्म की महिमा बता रही है कि सरकारों को अब अपने काम से अधिक भरोसा प्रवचनकारों पर रह गया है। धर्म की चदरिया नाकामियों को ढंकने में सहायक बन गई है। प्रदेश का चेहरा चमकाने में जब सरकारें विकास की गंगा बहा रही हैं तो सत्ता-संगठन की ऐसी क्या मजबूरी है कि कामधाम छोड़ कर पांडालों में हाथ बांधे खड़े रहें।गांधी का रामराज्य यदि कथा-प्रवचनों से ही आना है तो दिल्ली से भोपाल तक सिंहासन पर बाबाजी क्या बुरे हैं।

चैनलों पर चौबीस घंटे टीआरपी के खेल में बाबाओं का डमरु खूब बज रहा है।धर्म की ऐसी खुमारी चढ़ी है कि बेरोजगारों की फौज को भी एक रुद्राक्ष पारस पत्थर लग रहा है। बेहतर तो यह होता कि गांव गांव में फैले कथा प्रेमियों के नाम-पते जुटा कर पंडित जी अपने खर्चे से उन गांवों में रुद्राक्ष भिजवा देते।धार्मिक आयोजनों से पहले गांव-गांव, घर-घर पीले चांवल बांटने वाले संघ कार्यकर्ता भी इस काम में खुल कर मदद कर देते।शिव अनुरागी पंडित जी को तो फिर भी खुश होना चाहिए कि जनसैलाब ने उनकी फैन फालोइंग की ताकत सिद्ध कर दी है, कथा-प्रवचनों की वेटिंग लिस्ट में नए-नए यजमानों की सूची बढ़ना भी तय है।सरकार को तुरत-फुरत एक इवेंट आयोजित कर लेना चाहिए कि मुख्यमंत्री कलंक कथा के नायक बनने से बच गए।

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