सांच काहे ता! विन्ध्य भौतिक और सांस्कृतिक कायांतरण से गुजर रहा है इसे महसूसिए और सराहिए भी..!

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विन्ध्य भौतिक और सांस्कृतिक कायांतरण से गुजर रहा है इसे महसूसिए और सराहिए भी..!

यह विन्ध्य के भौतिक और सांस्कृतिक कायांतरण का दौर है। एक ओर रीवा एयरपोर्ट का शिलान्यास हो रहा था तो दूसरी ओर सुविख्यात कृष्णा राजकपूर आडिटोरियम में अन्तर्राष्ट्रीय फिल्म एवं नाट्य समारोह की तैयारी चल रही थी। पखवाड़े भर पहले जब मुख्यमंत्री सिंगरौली में मेडिकल कालेज की नींव का पत्थर रख रहे थे तब सीधी शहर में ऐसे ही रंगमंचीय उत्सव की धूम थी।

 

सीधी का रंगजगत तो देशभर के रंगकर्मियों को चुँधियाए हुए रखता है। पहले सीधी जाने के लिए टेढ़े-मेढ़े होकर मोहनिया या छुहिया से जाना पड़ता था। अब एक टनल ने उसे सीधा कर दिया। पहाड़ को छेदकर बनाई गई तीन किलोमीटर यह टनल अपनी संरचना की दृष्टि से विश्वस्तरीय है। जो इस टनल से गुजरता है बिना सेल्फी लिए आगे नहीं बढ़ता। टनल के उत्तरी द्वार में देश का सबसे बड़ा सोलर पार्क है। पहाड़ी से देखेंगे तो लगेगा कि अलसी के फूलों का खेत लहलहा रहा है। गर्मी के दिनों में तो किसी झील की मृगमरीचिका लगती है।

 

24 फरवरी को सतना में मेडिकल कालेज का शुभारंभ करने मुख्यमंत्री जी और देश के गृहमंत्री जी पधार रहे हैं। शहडोल का मेडिकल कालेज वर्ष 2018 से ही प्रारंभ है। उससे एक साल पहले शहडोल में पंडित शंभूनाथ शुक्ल विश्वविद्यालय भी शुरू हो चुका है। अनूपपुर जिले के अमरकंटक में केन्द्रीय विश्वविद्यालय है ही। बस सीधी बचा है जो अबतक अपने सीधेपन का शिकार होता आया।

 

चुरहट के कुँवर अर्जुन सिंह जब मानव संसाधन मंत्री थे तब उन्होंने देशभर में आईआईटी, आईआईएम संस्थाओं की सौगातें दीं। विश्वविद्यालयों को केन्द्रीय दर्जा दिया। पता नहीं क्यों वे अपने गृह जिले से परहेज करते रहे..? सीधी अपने सीधेपन की वजह से मारा जाता रहा है, जबकि यह अद्भुत मेधा संपन्न इलाका है, भौतिक और प्राकृतिक रूप से।

 

तीसरी-चौथी शताब्दी में बाणभट्ट ने सोन के तीरे भँवरसेन में ‘कादंबरी’ की रचना की। जिस तरह टमस के किनारे बाल्मीकि को सृष्टि का पहला महाकाव्य रामायण रचने का श्रेय है वैसे ही बाणभट्ट की कादंबरी को संस्कृत का पहला फिक्शन लिखने का श्रेय जाता है। यहीं घोघरा में अद्भुत मेधा के धनी ‘बीरबल’ का भी जन्म हुआ जिसे ‘अकबर’ ने अपने दरबार में रत्न बनाकर रखा। सीधी के युवा ठहराव के बाँध को तोड़ रहे हैं उम्मीद करता हूँ कि ‘बीरबल’ की स्मृति में भी कुछ सांस्कृतिक समारोह शुरू करेंगे।

 

जब घूरे के दिन फिर रहे हैं तो सीधी के दिन क्यों नहीं फिरेंगे..? वहाँ भी मेडिकल कालेज, आईआईटी और आईआईएम चाहिए। महानगरों की बपौती नहीं है। छोटे कस्बे भी बड़े सपने देखने के अधिकारी हैं। बस नीतिनियंताओं तक इसकी खनक पहुँचनी चाहिए। साल दो साल के भीतर जब ललितपुर- सिंगरौली रेललाइन खुल जाएगी और रीवा एयरपोर्ट उड़ान भरने लगेगा तब कोई 200 किमी की परिधि में जो भौतिक कायांतरण देखने को मिलेगा उसकी कल्पना आज हम कर सकते हैं।

 

अभी हाल ही 18 फरवरी को मशहूर अदाकार रजामुराद रीवा के फिल्मफेस्टिवल में थे। उनका रीवा से गहरा नाता है। उन्हें 1 नवंबर 1972 की तारीख भी याद थी जब वे जोगिंदर की फिल्म ‘बिंदिया और बंदूक’ की शूटिंग में आए थे और कोई दो महीने रीवा में ही मुतबातिर रहे। वे प्रयागराज होते हुए रात को यहाँ पहुंचे। उन्होंने ने रीवा के कायांतरण पर शानदार काम्प्लीमेंट दिया। फिल्म फेस्टिवल के बतौर मुख्य अतिथि बोले- 52 साल बाद रीवा आया हूँ। रात को शहर प्रवेश करते समय जगमगाती लाइट्स, फ्लाईओवर, चौड़ी सड़कों को देखकर लगा जैसे अपना रीवा मुंबई का ही टुकड़ा हो। और इस आडिटोरियम के सामने तो मुंबई के बड़े-बड़े प्रेक्षागृह भी फीके हैं। रजा साहब भोपाल के मूल निवासी हैं और इस बात से अपडेट हैं कि विन्ध्य के भौतिक और सांस्कृतिक कायांतरण के पीछे जिस एक शख्स की भूमिका है उसका नाम राजेन्द्र शुक्ल है। उन्होंने श्री शुक्ल के प्रयासों की खुले दिल से सराहना की। राजेन्द्र शुक्ल 2004 से विधायक हैं। 2004 में जन्मी पीढ़ी इसबार वोट देने की हकदार होगी। उसके सामने आज का रीवा और गुजरे समय के रीवा के किस्से होंगे।

 

बहरहाल रजा साहब ने फिल्मकार जोगिंदर को बड़ी आत्मीयता के साथ याद किया। यह बताने में कोताही नहीं बरती कि उनकी फिल्म ‘बिंदिया और बंदूक’ ने उन्हें अभिनय का इतना बड़ा वितान दिया कि वे 583 फिल्मों में बतौर अभिनेता परदे पर आए।

 

जोगिंदर रीवा के हैं। 1970 में फिल्मों में जाने से पहले वे रीवा के प्रतिष्ठित व्यवसायी थे। उनकी माइको-बास की एजेंसी थी जिसका व्यवसाय क्षेत्र पूरे विन्ध्यप्रदेश तक फैला रहा। जोगिंदर को रीवा भले ही भूल गया हो लेकिन जोगिंदर जीते जी अपने इस प्यारे शहर को नहीं भूले। 1971 से1976 तक उन्होंने लगातार सात फिल्में यहाँ शूट कीं।

 

तब रीवा में न रेल हेड था और हवाई जहाज का तो सवाल ही नहीं उठता। वे बड़े-बड़े फिल्म स्टार्स को यहां खींच लाए। रजा मुराद खुश थे कि वे अगली बार हवाई जहाज से सीधे रीवा लैंड करेंगे। उन्होंने जोगिंदर को याद करते हुए कहा- उनका प्रोडक्शन हाउस ‘अपोलो इन्टरनेशनल’ सिनेमा की नई प्रतिभाओं के लिए लांचपैड की मानिंद था।

 

बालीवुड में खुद भी निपोटिज्म का दंश झेल चुके जोगिंदर ने नए संघर्षरत कलाकारों को काम दिया दिया, सीन लिखवाए, संगीत बनाने के अवसर दिए। जोगिंदर को बालीवुड ने ‘सी’ ग्रेड का निर्माता-निर्देशक-अभिनेता कहकर भले ही खारिज किया हो लेकिन उन्होंने बालीवुड में फिल्म के नए सब्जेक्ट और कल्ट दिया। हालीवुड के एक क्रिटिक ने यहाँ तक लिखा कि साइकिक विलेन का जो किरदार जोगिंदर ने रचा बालीवुड आज भी उसी की गिरफ्त में है।

 

रंगाखुश के शेड्स गब्बर सिंह में देखने को मिलेगा तो ‘मिस्टर इन्डिया’ के मोगैम्बो में भी। ‘चाइना गेट’ फिल्म का ‘जगीरा’ रंगाखुश का ही विस्तार है। फिल्मफेस्टिवल में एक दिन ‘ट्रिब्यूट टू जोगिंदर’ के नाम रहा।

 

फिल्ईम फेस्टिवल में देशी-विदेशी फिल्मों की स्क्रीनिंग हुई लेकिन डा.योगेन्द्र चौबे की फिल्म ‘गाँजे की कली’ खास रही। डा. चौबे स्वयं यहां उपस्थित रहे। अमृता प्रीतम की कथा को छत्तीसगढ़ी में शानदार तरीके से ढाला। फिल्म में हबीब साहब के नया थियेटर के अभिनेताओं दीपक तिवारी और पूनम तिवारी मुख्य अभिनेता रहे। एनएसडी पास आउट राजगढ के डा. चौबे सिने जगत में वैसे ही संभावनाएं पैदा करते हैं जैसे कि सतना के अशोक मिश्र। श्याम बेनेगल के प्रायः हर फिल्म प्रोजेक्ट्स के स्क्रिप्ट राइटर श्री मिश्र आज की तारीख में बालीवुड में अपनी लेखन विधा में सर्वश्रेष्ठ है। उनकी नई फिल्म ‘कटहल’ में उनकी प्रतिभा देख सकते हैं।

 

यद्दपि कुमुद मिश्र इस फेस्टिवल में नहीं आए पर उनकी चर्चा रही। चाकघाट के समीप एक गाँव में जन्मे कुमुद आज बालीवुड में मनोज वाजपेयी, पंकज त्रिपाठी के साथ गांव से निकली प्रतिभाओं की त्रयी के हिस्सा है। उन्हें हर दूसरी फिल्मों या बेव सिरीज़ में देखा जा सकता है।

 

फिल्म फेस्टिवल की शुरूआत सतना के ही स्वर्गीय सभाजीत शर्मा की फीचर फिल्म ‘रक्तचंदन’ की स्क्रीनिंग के साथ हुई। श्री शर्मा ने 1986 में स्थानीय प्रतिभाओं के साथ इस फिल्म को बनाने दुस्साहस किया था। फिल्मफेस्टिवल में उन्हें शिद्दत से याद किया गया। मंचीय कार्यक्रमों की शुरूआत ध्रुवतारे की भाँति स्थापित हो चुकी मैथिली ठाकुर के गायन के साथ हुई। देश के चर्चित नाटककार योगेश त्रिपाठी की कृति ‘आदि शंकराचार्य’ का मंचन रंग उत्सव नाट्यसमूह ने किया। निदेशक थे अंकित मिश्र और शंकराचार्य के किरदार में शुभम पान्डेय। फिल्मफेस्टिवल के योजनाकार व सूत्रधार यही दोनों जुनूनी रंगकर्मी हैं जो रंगजगत में संभावनाओं का द्वार खोलते हैं।

 

फेस्टिवल में भोपाल के संजय मेहता ‘संत कबीर’ लेकर आए थे। कबीर के दोहों,साखी और पदों के साथ बुनेहुए नाटक में लोई की भूमिका में अंजना तिवारी ने अविस्मरणीय भूमिका अदा की। संजय मेहता ने कबीर के स्वर्गारोहण के दृष्य के जैसा रचा यह उनकी प्रतिभा की पराकाष्ठा है। पूरे फिल्मफेस्टिवल में रंगकर्मी व अभिनेता विभू सूरी इपीसेंटर रहे।

 

इधर कुछेक साल से विन्ध्य में रंगक्रांति सी मची है। भोपाल में भारत भवन व अन्य सरकारी आयोजनों को छोड़ दें तो रीवा और सीधी मध्यभारत में रंगमंच के नए सांस्कृतिक केन्द्र बनकर उभरे हैं।

सीधी में नरेन्द्र सिंह रंगजगत के ऐसे एकल योद्धा हैं जिन्होंने ‘कर्णभारम’ जैसे क्लिष्ट नाटक को बोधगम्य बघेली में प्रस्तुत किया। नरेन्द्र का बड़ा काम लोकपरंपरा व लोकगीतों को मौलिक रूप से सहेजने का है। उनकी रचनावली कई खंडों में प्रकाशित होकर आ रही है। नीरज कुंदेर और रोशनी मिश्र लगातार रंगकर्म की राष्ट्रीय कार्यशालाओं में प्रतिभाओं को निखारने के काम में जुटे हैं। प्रसन्न सोनी का समूह भी सक्रिय है।

 

रीवा में युवा रंगकर्मी मनोज मिश्र को हाल ही में संगीत नाटक अकादमी से पुरस्कृत किया गया है। उनका मंडप आर्ट एक सक्रिय रंगसमूह है। स्टेट ड्रामा स्कूल में अध्ययनरत अमर द्विवेदी और प्रदीप तिवारी संभावनाओं के अभिनेता निदेशक हैं। प्रदीप के निर्देशन में टैगोर की कहानियों के कोलाज की नाट्यप्रस्तुति ने रंगजगत का ध्यान खींचा। शैलेन्द्र द्विवेदी निर्देशित आधे-अधूरे नाटक ने यह साबित किया कि ड्रामा के क्लिसिक्स भी हमारी स्थानीय प्रतिभाएं कुशलतापूर्वक प्रस्तुत कर सकती हैं। हीरेन्द्र सिंह रंगमंच में तीन दशक से लगातार सक्रिय हैं। सुधीर सिंह के कला कार्यशाला में नौनिहाल पेंटिंग्स, टेराकोटा, वुड कर्विंग व शिल्प पर हाथ आजमाते मिल जाएंगे। कई प्रतिभाएं राष्ट्रीय ख्याति अर्जित कर चुकी हैं।

 

रीवा में एक बावनी परिवार भी है। शिल्प आर्ट और पेंटिंग्स पीढ़ियों से जुटे इस परिवार ने ‘बघेली कलम’ को अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति तक पहुँचाया। देवेन्द्र और तेजेन्द्र की कृतियाँ पेरिस और बर्लिन की कलावीथिकाओं में प्रदर्शित होती हैं। पिछले दो दशकों में रीवा में जितनी भी प्रतिमाएं लगीं वे तेजेंद्र की ही तराशी हुई हैं..चाहे वह विवेकानंद स्मारक हो या हाल ही अनावृत कल्पना चावला की प्रतिमा।

 

रीवा सीधी में एक नई पीढ़ी उभरकर सामने आई है जिसने रंगजगत में विन्ध्य का बाना फहराया है। सतना में अनामिका सिंह के समूह में शुभम बारी और अमित शुक्ल होनहार अभिनेता व निदेशक हैं। हिन्दी की प्रथम नाट्यकृति ‘आनंद रघुनंदन’ की मंचीय प्रस्तुति इनकी प्रतिभा की गवाह है। द्वारका दाहिया और सविता दाहिया सतना के रंग क्षितिज को विस्तार दे रहे हैं।

 

गीत संगीत में प्रतिभा सिंह, मुकुल सोनी, अनामिका त्रिपाठी ने बालीवुड में दस्तक दी है। अविनाश तिवारी की बघेली फिल्म ‘बुधिया’ ने भाषाई सिनेजगत का ध्यान आकृष्ट किया है। कुलमिलाकर विन्ध्य में अब हम वह सब होते हुए देख रहे हैं जिसकी कभी कल्पना करके रह जाते थे। खेल और संस्कृति किसी भी क्षेत्र की सम्पन्नता और वैभव को प्रकट करते हैं। ओलंपिक की पदक सूची देखें तो उसमें सम्पन्न व धनी देशों का दबदबा रहता है। देश और क्षेत्र के पैमाने पर भी यही कसौटी लागू होती है..अब हमारे बच्चे जब भारतीय क्रिकेट टीम का हिस्सा बनते हैं तो चौकाते नहीं बल्कि स्वाभाविक लगते हैं। विन्ध्य भौतिक, बौद्धिक और सांस्कृतिक कायांतरण के दौर से गुजर रहा है। इसे महसूसिए और सराहिए..हो सके तो रंगमंच, खेल के मैदानों पर पहुँचकर प्रोत्साहित करिए। विन्ध्य अब ऊँची उड़ान के लिए तैयार खड़ा है सभी साजोसामान के साथ।