होली आने की आहट, भगोरिया के हाट!

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होली आने की आहट, भगोरिया के हाट!

आदिवासी अंचल में प्रति वर्ष मनाया जाने वाला भगोरिया पर्व जनजाति समाज का मुख्य त्यौहार है। पश्चिमी मध्यप्रदेश के अलीराजपुर, झाबुआ और धार जिले के आदिवासी बहुल क्षेत्र में इसे होली से पहले उत्साह से मनाया जाता है। यह त्यौहार समीप के गांव के साप्ताहिक हाट में या जहां हाट नहीं लगता वहां साल में एक दिन मनाया जाता है। मांदल की थाप और बांसुरी की मदमाती धुन, जब महुआ के फूल की मादक खुशबू महकने लगती है! बौराए हुए आम की एक खास महक और ताड़ी का सुरूर अपने यौवन पर आ जाता है और होली का सप्ताह करीब हो, तो समझ लिया जाता है कि भगोरिया आ गया। होलिका दहन का दिन आखिरी भगोरिया पर्व और इसके 6 दिन पहले के यानी सात दिन तक यह पर्व मनता है।

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अंचल का लोकपर्व भगोरिया इस साल 1 मार्च से 7 मार्च तक चलेगा। साल में एक बार मनाए जाने वाले इस पर्व के कारण हफ्तेभर तक क्षेत्र में उल्लास छाया रहता है। पर्व मनाने के लिए पलायन स्थलों से भी ग्रामीण बड़ी संख्या में अपने गांव लौटेंगे। लगभग चार दर्जन स्थानों पर भगोरिया मेला लगेगा। जिस दिन का संस्कृति प्रेमी बेसब्री से इंतजार करते है, वह पर्व अब आरंभ हो चुका है। इसमें मस्ती व उल्लास रहेगा तो आदिवासी संस्कृति की झलक भी नजर आएगी। पेट की आग बुझाने के लिए क्षेत्र की 60 प्रतिशत जनता पलायन करती है। रोजगार की तलाश में दूर-दूर तक जाने वाले ग्रामीण जहां कहीं भी होंगे, भगोरिया की महक उन्हें अपने गांव लौटने के लिए वापस मजबूर करेगी।

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भगोरिया की प्रमुख विशेषता वे मेले हैं, जो सात दिन तक लगातार चलते हैं। हर दिन कहीं न कहीं भगोरिया मेला रहता है। इन मेलों में गांव के गांव उमड़ पड़ते है। छोटे बच्चे से लेकर वृद्ध तक अनिवार्य रूप से इसमें सहभागिता करते है। ढोल, मांदल, बांसुरी जैसे वाद्य यंत्रों की मीठी ध्वनि और लोक संगीत के बीच जब सामूहिक नृत्य का दौर भगोरिया मेले में चलता है तो चारों ओर उल्लास ही उल्लास बिखर जाता है। साथ ही होती है झूला-चकरी की मस्ती व पान तथा अन्य व्यंजनों की भरमार। चाहे जितने जीवन में संघर्ष हो लेकिन सब कुछ भूलकर हर ग्रामीण भगोरिया की मस्ती में डूबा दिखाई पड़ता है।

रियासत काल से चल रही परंपरा

रियासत काल से ही भगोरिया का यह पारंपारिक त्योहार यहां चल रहा है। पर्व को लेकर अलग-अलग इतिहास भी बताए जाते है। कुछ इतिहासकार कहते है कि ग्राम भगोर से यह पर्व आरंभ हुआ, इसलिए इसका नाम भगोरिया पड़ गया। कुछ लोगों का मानना है कि होली के पूर्व लगने वाले हाटों को गुलालिया हाट कहा जाता था। इसमें खूब गुलाल उड़ती थी। बाद में होली के पूर्व मनाए जाने वाले इन साप्ताहिक हाटों को भगोरिया कहा जाने लगा। मान्यता चाहे जो हो, लेकिन मैदानी हकीकत यह है कि यह सालाना पर्व अपनी संस्कृति की सुगंध हमेशा से चारों ओर बिखेर रहा है।

आदिवासी संस्कृति को बदनाम करने की साजिश

कुछ लोग (गैर-आदिवासी) आदिवासियों को बदनाम करने के लिए भोंगर्या हाट को परिणय पर्व या वैलेंटाइन डे से सम्बोधित करते हैं जो एक सोची-समझी साजिश के तहत पूरे आदिवासी समाज को बदनाम करने की कोशिश की जा रही हैं। इस पर्व में कभी भी पान खिलाकर और गुलाल लगाकर लड़की भगाने का जो मिथ्या प्रचार किया जाता रहा है, वह केवल सस्ती लोकप्रियता हासिल करने तथा आदिवासी संस्कृति को बदनाम करने की साजिश है। पूर्व में यहाँ जो गिने चुने फोटोग्राफर आते थे, उन्होंने अपनी छपास की भूख और प्रसिद्धि के कारण इस पर्व को गलत रूप में प्रचारित किया।
आदिवासी समाज के युवक और युवतियां अब जागृत हो चुके हैं और उनका कहना है कि मीडिया इस प्रकार का भ्रम फैलाना बंद करें। यह न तो कोई परिणय पर्व है और न कोई त्यौहार है। यह सिर्फ होली पूर्व एक विशेष हाट है, जिसमें आदिवासी बच्चों से लेकर बुजुर्ग उत्साह और जोश के साथ भोंगर्या हाट में जाकर ढोल-मांदल, थाली, बांसुरी की मिश्रित मधुर ध्वनि के साथ नाच गाकर एन्जॉय करते हैं और होली पूजन के लिए आवश्यक सामग्री की ख़रीदारी करते हैं।