हमारी लोकसंस्कृति के नायक हैं बाघ!

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हमारी लोकसंस्कृति के नायक हैं बाघ!

चीन भले ही अपने काल्पनिक/भुतहे ड्रैगन(अजदहा) को लेकर इतराता रहे लेकिन हम वास्तव में ‘टाइगर नेशन’ हैं। अधिकृत जानकारी के अनुसार भारत में बाघों की संख्या बढ़कर 2963 पहुँच गई जो विश्व की 70 प्रतिशत है। यह आँकड़े 2018 की बाघ गणना के निष्कर्ष हैं।

वर्ष 2000 से 2014 का अंतराल बाघों की सुरक्षा की दृष्टि से बेहद संकट पूर्ण रहा। 2006 बाघों की संख्या घटकर 1411 हो गई थी।

यह वही दौर था जब राजस्थान के सरिस्का और मध्यप्रदेश का पन्ना टाइगर रिजर्व बाघ विहीन हो चुका था। पन्ना टाइगर रिजर्व में तो 2009 में बाघों का पुनर्वास किया गया।

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पन्ना की यह घटना वन्यजीव जगत की अनोखी है, जहां कैपटिव टाइगर को वाइल्ड बनाया गया। आज पन्ना टाइगर इसकी बड़ी दिलचस्प कहानी है, अलग से सुनने सुनाने लायक।

बहरहाल 2014 से बाघ संरक्षण कार्यक्रम ने गति पकड़ा तब 2226 बाघ थे जो चार वर्ष में बढ़कर 2967 हो गए। अब स्थिति यह कि बाघों के लिए जंगल का दायरा ही छोटा पड़ने लगा।

बाघों की संख्या 6 प्रतिशत के मान से बढ़ रही है इसके मद्देनजर सरकार को कुछ और टाइगर रिजर्व बनाने की योजना पर विचार करना पड़ रहा है।

बाँधवगढ़ नेशनल पार्क व टाइगर रिजर्व को विश्व की सबसे घनी बाघ आबादी का गौरव बरकरार है। नेशनल जियाग्रफी और डिस्कवरी में दिखने वाला हर दूसरा बाघ यही का है। बाँधवगढ नेशनल पार्क की कोर एरिया और बफर में बाघों की संख्या बढ़कर 124 हो गई है।

इधर 2010 तक बाघ विहीन रहे संजय नेशनल पार्क में भी अब 12 से 14 बाघ बताए जाते हैं। इसका एक बड़ा हिस्सा अब छत्तीसगढ़ में गुरुघासीदास नेशनल पार्क के नाम पर है और वहां भी बाघों की अच्छी खासी आबादी बढ़ चुकी है।

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कान्हा-बाँधवगढ़-पन्ना और संजय नेशनल पार्क में बाघों का कारीडोर प्रस्तावित है लेकिन जरूरत इन्हें तत्काल जोड़ने की है नहीं तो बाघों की बढ़ती आबादी से जल्दी ही एक नया संघर्ष शुरू होने वाला है। जंगल में टेरीटरी बनाने के लिए और गाँवों को उस दायरे में शामिल करने के लिए।

भारत में बाघकथा बड़ी दर्दनाक रही है। सबसे पहले मुगलों ने बाघों के शिकार की परंपरा को नबावी बनाया। फिर अँग्रेजों ने इसे खेल में बदलते हुए गेम सेंचुरी का नाम दे दिया। यह गेम सेंचुरी देसी राजे रजवाड़ों के प्रबंधन में शुरू हुई।

आजादी के पहले तक भारत में गेम सेंचुरी का कारोबार 445 करोड़ रु. सालाने का था। विदेशों की टूर एवं ट्रेवेल एजेंसियां इसे संचालित करती थी।

राजाओं, इलाकेदारों के लिए यह व्यवसाय की भाँति था। ये शिकार अभियानों के साथ ही बाघ के शिरों की ट्राफी और उसकी खाल, नाखून व हड्डियों का व्यापार करते थे।

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यह सिलसिला 1972 तक चलता रहा जबतक कि वन्यसंरक्षण कानून अस्तित्व में नहीं आया। शिकार के इसी सिलसिले ने भारत के जंगलों से चीता का वंशनाश कर दिया।

एक बाघ के कटे हुए सिर ने इंदिरा गाँधी को इतना विचलित कर दिया कि जब वे प्रधानमंत्री बनीं तो वन्यजीवों के शिकार के खिलाफ कड़ा कानून बनाया। यह घटना बेहद मर्मस्पर्शी है और इसका एक सिरा रीवा से जुड़ा है इसलिए जानना जरूरी है।

पंडित नेहरू को रीवा के महाराज ने एक जवान बाघ के सिर की रक्त रंजित ट्राफी और खाल भेंट की..तो उसे देखकर इंदिरा जी का दिल दहल गया..आँखों में आँसू आ गए.. काश यह आज जंगल में दहाड़ रहा होता..। राजीव गाँधी को लिखे अपने एक पत्र में इंदिरा जी ने यह मार्मिक ब्योरा दिया है।

प्रधानमंत्री बनने के बाद इंदिरा जी ने वाइल्ड लाइफ प्रोटेक्शन एक्ट समेत वन से जुड़े सभी कड़े कानून संसद से पास करवाए। राष्ट्रीय उद्यान, टाइगर रिजर्व, व अभयारण्य एक के बाद एक अधिसूचित करवाए। आज वन व वन्यजीव जो कुछ भी बचे हैं वह इंदिरा जी के महान संकल्प का परिणाम है।

“इंदिरा जी का वो मार्मिक पत्र

‘‘हमें तोहफे में एक बड़े बाघ की खाल मिली है. रीवा के महाराजा ने केवल दो महीने पहले इस बाघ का शिकार किया था. खाल, बॉलरूम में पड़ी है. जितनी बार मैं वहां से गुजरती हूं, मुझे गहरी उदासी महसूस होती है. मुझे लगता है कि यहां पड़े होने की जगह यह जंगल में घूम और दहाड़ रहा होता. हमारे बाघ बहुत सुंदर प्राणी हैं….

-इंदिरा गांधी
(राजीव गांधी को 7 सितंबर 1956 को लिखे पत्र के अंश)”

इंदिरा जी ने वन्यजीव संरक्षण कानून 1972 बनाया। इसके बाद जब जंगलों का ही नाश होने लगा तो वन संरक्षण कानून 1980 आया।

2002 में वन्य संरक्षण कानून इतना कड़ा कर दिया गया कि आदमी की हत्या से कोई मुजरिम बच भी सकता है लेकिन शिड्यूल्ड प्राणियों की हत्या के आरोपी की जिंदगी जेल में ही कटेगी।

नेशनल पार्कों व टाइगर रिजर्व की परियोजनाओं का विस्तार के पीछे भी इंदिरा जी की ही सोच थी। आज देश में 50 से ज्यादा टाइगर रिजर्व हैं।

नेशनल क्राइम ब्यूरों की तर्जपर वन्यप्राणियों के प्रति अपराध रोकने के ब्यूरो और कानून बने। आप कल्पना कर सकते हैं कि यदि वन्यप्राणियों के संरक्षण के प्रति इंदिरा जी ने ऐसी दृढ़ इच्छाशक्ति न दिखाई होती तो आज हमारे जंगल चीतों की भाँति बाघों से भी विहीन होते।

बाघ हमारी संस्कृति के अटूट हिस्से हैं। वे दैवीय हैं और ईश्वर के अवतारी। इन्हें भौतिकवादी प्रगतिशीलों ने कभी इस नजरिए से नहीं देखा। बाघ सनातन से हमारी आस्थाओं में हैं। इसलिए बाघों के प्रति मेरा नजरिया वन्यप्रेमी, प्राणिशास्त्री से अलग हटकर है।

अपन को जब भी मौका मिलता है जंगल निकल लेता हूँ। जंगल प्रकृति की पाठशाला है, हर बार कुछ न कुछ सीख मिलती है। जानवर, पेंड़-पौधे, नदी, झरने सभी शिक्षक हैं, बशर्तें उन्हें ध्यान से देखिए, सुनिए समझिए। ये सब उस विराट संस्कृति के हिस्से हैं जो सनातन से चलती चली आ रही है। ये सह अस्तित्व के प्रादर्श थे कभी।

जब से सत्ता व्यवस्था शुरू हुई तभी से जंगल में संघर्ष की स्थिति बनी। समूचा वैदिक वांगमय जंगल में ही रचा गया। इसलिए पशु-पक्षियों की बात कौन करे पेड़-पौधे, नदी,पहाड़, झरने सभी जीवंत पात्र हैं। पुराण कथाओं में वे संवाद भी करते हैं।

रामायण, रघुवंश, अभिग्यान शाकुंतलम और भी कई ग्रंथों ने अरण्यसंस्कृति को स्थापित किया। इसके समानांतर एक लोकसंस्कृति की भी धारा फूटी जिसके अवशेष अभी भी वनवासियों के बीच देखने को मिलती है। इस बार के जंगल प्रवास में यही सबकुछ देखा और अंतस से महसूस भी किया।

सात साल पहले ..कहानी सफेद बाघ की..(Tale of the white tiger) पुस्तक की सामग्री जुटाने के तारतम्य में जंगल से जो रिश्ता बना वो साल दर साल गाढा होता गया।

एकांत क्षणों में मैं महसूस करता हूँ कि जंगल मुझे बुला रहा है। जब वहां जाता हूँ तो हर जगह देखकर ऐसा लगता है कि …हो न हो यह मेरा देखा हुआ..। मेरा ही क्यों हर किसी का यहाँ से जन्म जन्मांतर का रिश्ता है। जरूरत है श्रवणग्राहिता और दृष्टिक्षमता की।

सुनने और देखने का तरीका ही हमारी संवेदनाओं का सूचकांक है। जंगलों में पशु पक्षियों के शिकार वाल्मीकि और सिद्धार्थ से पहले भी होते रहे हैं। संवेदना ने वाल्मीकि को आदि कवि बना दिया और सिद्धार्थ को भगवान् गौतमबुद्ध।

ईश्वर ने आँख और कान सबको इन्हीं जैसे दिए हैं फिर भी कोटि वर्षों में कोई वाल्मीकि, कौई गौतमबुद्ध पैदा होता है। इसीलिए जंगल प्रकृति की ऐसी पाठशाला हैं जहाँ पढकर मनुष्य भी ईश्वर समतुल्य बनकर निकलता है।

वाणभट्ट ने कादंबरी में जिस विन्ध्याटवी का वर्णन किया है। वही विन्ध्याटवी सफेद बाघों का प्राकृतिक पर्यावास है। इतिहासवेत्ता और वनस्पतिशास्त्री इस क्षेत्र को बाँधवगढ, संजय नेशनल पार्क के साथ वर्णन जोड़ते हैं।

मेरे अध्ययन व भ्रमण का क्षेत्र भी यही रहा। सफेद बाघ मोहन जिसकी संतानें आज दुनियाभर के अजायबघरों में मौजूद हैं, संजय नेशनल पार्क के बस्तुआ बीट के बरगड़ी के जंगल से पकड़ा गया था।

इस जंगल में अभी भी पचास से ज्यादा वन्यग्राम हैं। वहां अब सभ्यता पहुंच गई,बिजली, मोबाइल, जैसी चीजें, फिर भी वनों की लोकसंस्कृति के अवशेष देखने को मिल जाते हैं।

पिछले प्रवास में एक घर के भित्तिचित्र ने ध्यान खींचा था,जिसमें हाथी बाघ से हाथ मिलाते हुए चित्रित था। उस घर के मालिक वनवासी भाई से पूछा तो उसके लिए बस यूं ही ऐसी कलाकारी थी,जो उसके पुरखे के जमाने से चलती चली आ रही है।

इस बीच संदर्भ के लिए ..प्रो.बेकर की पुस्तक.. बघेलखंड द टाईगर लेयर..पढने को मिली। तो पता चला कि विन्ध्य के जंगल कभी हाथियों की घनी आबादी के लिए जाने जाते थे।

यहां के राजा का हाथियों के बेचने का कारोबार था। सीधी जिले के जिस मडवास रेंज के वन्यग्राम में वो भित्तिचित्र देखा उसी मड़वास के हाथियों के बारे में ..रीवा राज्य का इतिहास..के लेखक गुरू रामप्यारे अग्नीहोत्री ने लिखा कि -“एक बार राजा ने यहां से 30 हाथी पकड़वाए इसके बाद वे यह भूल गए कि इनका करना क्या है परिणाम यह हुआ की तीसों हाथी भूख से तड़प के मर गए थे।” यानी इस जंगल में हाथी और बाघ सहअस्तित्व के साथ रहा करते थे।

भित्तिचित्र का संदेश भी दोनों की दोस्तीए की कथा बताता था। इसी क्षेत्र में सात सफेद बाघों के मारे जाने का रिकॉर्ड बाँम्बे जूलाजिकल सोसाइटी की जंगल बुक में दर्ज है।

रीमाराज्य की तीन पीढी के राजाओं ने अपने हिस्से के जंगल में तीस साल के भीतर 2 हजार बाघ मारे थे। सरगुजा के राजा के नाम से तो 17 सौ बाघों को मारने का विश्व रेकार्ड कायम है। इन्होंने भी इसी समयकाल में शिकार किए।

सात साल पहले मैं जब इस जंगल में गया था तब एक भी बाघ नहीं थे। हाथी तो इतिहास की बात हैं।

इस बार जंगल प्रवास में एक वन्यग्राम के घर में बने भित्तिचित्र ने फिर ध्यान खींचा। गोबर से लीपी हुई भीत पर कोयले के रंग से एक बाघ उसके सामने एक गाय और बीच में बछडे़ का चित्र था।

यह चकरा देने वाला मामला था। हाथी की दोस्ती तो चलो बराबरी की,पर इस गाय की भला बाघ के सामने क्या बिसात..? पूर्व की भाँति इस बार भी मकान मालिक का जवाब वही-पुरखों के समय से ऐसे ही कुछ न कुछ उरेहते आए हैं।

मेरे स्मृति पटल में कालिदास के रघुवंश की वह कथा आ गई जिसमें राजा दिलीप बाघ से यह निवेदन करते हैं कि गाय की जगह वह उन्हें अपना शिकार बना ले। पर इस भित्तिचित्र के साथ इस कथा का कोई तारतम्य जमा नहीं।

उधेड़बुन में माताजी का बहुला चौथ उपवास और वो ब्रतकथा याद आ गई। एक बार वह ब्रतकथा मुझे सुनानी पड़ी थी, क्योंकि पंडित नहीं आए थे।

संक्षेप में कथा कुछ इस तरह थी- जंगल चरने गई गाय से बाघ का सामना हो गया। बाघ शिकार करने ही वाला था कि गाय ने उससे विनती शुरू कर दी,बोली- आज मुझे मत खाओ, घर में मेरा बछड़ा भूखा इंतजार कर रहा होगा, मैं जाकर उसे अपना दूध पिला आऊं फिर मुझे खा लेना।

बाघ बोला-तू मुझे बुद्धू बना रही है, क्या गारंटी कि तू लौटके आएगी ही। कातर स्वर से गाय बोली- भैय्या मैं अपने बछडे़ की कसम खाती हूँ उसे दूध पिलाने के बाद पल भर भी नहीं रुकूंगी, मेरा विश्वास मानो भैय्या।

गाय के मुँह से भैय्या का शब्द बाघ के अंतस को छू गया, फिर भी बाघ तो बाघ। गाय ने फिर अश्रुपूरित स्वरों में कहा-आप जंगल के राजा जब आप ही मेरी बात का विश्वास नहीं करेंगे तो फिर क्या कहें, अब आपकी मर्जी।

इस बार बाघ कुछ पसीजा बोला- जा बछडे़ को दूध पिला आ, पर लौटके आना जरूर। गाय जंगल से भागती, रँभाती गांव पहुंची। बछडे़ से कहा चल जल्दी दूध पी ले।

बछडे़ को संदेह हुआ कि कुछ न कुछ बात जरूर है। वह बोला- माँ ..मेरी कसम,पहले सच सच बताओ क्या बात है तभी थन में मुँह लगाऊंगा। गाय ने बाघ वाली पूरी बात बता दी।

बछडे़ ने कहा- चिंता की कोई बात नहीं माँ कल सुबह मैं तुम्हारे साथ चलूंगा। कैसे भी रात बीती। पूरे गांव को गाय और बाघ की बात पता चल गई। वचन से बँधी गाय बाघ की मांद की ओर लंबे डग भरते हुए चल दी। बछड़ा आगे आगे।

बाघ ने दूर से देखा कि गाय तय वक्त से पहले ही आ रही है। जाकर गाय बाघ के सामने स्वयं को शिकार के रूप में प्रस्तुत किया। बछड़ा चौकड़ी भरता बीच में आ गया। बोला- बाघ मामा मुझे खा लो माँ को छोड़ दो, माँ बची रही तो आपके लिए मेरे जैसे शिकार पैदा करती रहेगी।

बाघ यह सुनकर सन्न रह गया। उसकी आँखों आँसू आ गए, गाय से बोला-जा बहना जा, भाँन्जे का ख्याल रखना। बाघ ने अभयदान दे दिया। इधर समूचा गांव ताके बैठा था कि क्या होगा..।

गोधूली बेला में जंगल से बछड़े के साथ सही सलामत आती गाय को देखकर सभी की जान में जान आई। घरों में चना जैसे कच्चे अन्न से गाँव वालों का उपवास टूटा।

तभी से बहुला चौथ की ब्रत अपनी परंपरा में आया, जिसमें माँ,बहने अपने भाई के कुशलमंगल के लिए यह ब्रत रखती हैंं। गाय बाघ के कुशलमंगल और दीर्घायु के लिए ब्रत रखे..विश्व के किसी विचार दर्शन और कथानक में इसकी कल्पना नहीं की जा सकती।

यह है हमारी अरण्यसंस्कृति, हमारी ल़ोकधारा जो जंगल से वन्यजीवों के बीच से फूटती है। वन्यजीव सरकारी सप्ताह के आयोजनों से नहीं बचेंगे।

हमारी संस्कृति और परंपरा ही बचा सकती है इन्हें। जंगल को सुनऩे व देखने की श्रवणग्राहिता और दृष्टिक्षमता लानी होगी और वह जंगल के सरकारी कानूनों से नहीं आने वाली।