झूठ बोले कौआ काटे! ये लवली मौसम या खतरे की घंटी

झूठ बोले कौआ काटे! ये लवली मौसम या खतरे की घंटी

दुनिया में सबसे बड़ी जनसंख्या वाला देश तो हम बन ही चुके हैं। फिर, मई में उत्तर भारत के लोग जब गुनगुना रहे थे, ‘मौसम-मौसम, लवली मौसम’ तो, लखनऊ में 3 मई को आईपीएल मैच बारिश और खराब मौसम के कारण आधा रास्ता तय करने से पहले ही रद करना पड़ा। बिजली की भयंकर कड़कड़ाहट भी लोगों को डरा रही थी। लोगों को गर्मी में सर्दी का अहसास हो रहा था। यह लवली मौसम और आबादी कहीं हमारे लिए खतरे की घंटी तो नहीं?

झूठ बोले कौआ काटे! ये लवली मौसम या खतरे की घंटी

बोले तो, 2023 जनवरी में ठंड ने 11 साल का रिकॉर्ड तोड़ दिया। वहीं, फरवरी में गर्मी ने 17 साल का रिकॉर्ड तोड़ दिया। जनवरी-फरवरी में देश के 264 जिलों में बारिश की एक बूंद भी नहीं पड़ी। मात्र 54 जिलों में सामान्य वर्षा हुई। दूसरी ओर, मार्च की बात करें तो चार साल में इतनी बारिश नहीं हुई थी जितनी इस बार हुई। वहीं अप्रैल में भी मौसम में बदलाव होता रहा। और अब, मई के पहले ही दिन से ठंडी हवा औऱ बारिश ने मौसम का मिजाज बदल दिया। तेज धूप के तुरंत बाद कब बारिश होने लगे, यह तय नहीं है। पहाड़ों पर बर्फबारी हो रही तो, उत्तर-पश्चिम भारत में 6 मई से बारिश का एक नया दौर शुरू होने के आसार हैं।

यही नहीं, मौसम वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि आने वाले दिनों में हीटवेव पिछले सालों के मुकाबले ज्यादा परेशान करेगी। बढ़ती गर्मी के चलते फसलों के नुकसान का खतरा भी मंडरा रहा है। वैज्ञानिकों के अनुसार, मौजूदा मौसम की स्थिति के लिए ‘ग्लोबल वार्मिंग’ जिम्मेदार है। वैश्विक औसत तापमान में निरंतर वृद्धि पश्चिमी विक्षोभ जैसी बड़ी मौसम संबंधी घटनाओं की गतिशीलता को प्रभावित कर रही है।

भारतीय पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय की जून 2020 की जलवायु परिवर्तन संबंधी रिपोर्ट में कहा गया है कि 1986 से 2015 के बीच गर्म दिनों का तापमान 0.63 डिग्री सेल्सियस और सर्द रातों का तापमान 0.4 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ा है। इसमें यह भी अनुमान लगाया गया है कि अगर यही रूझान आगे भी रहा तो वर्ष 2100 तक गर्म दिनों का तापमान 4.7 और सर्द रातों का तापमान 5.5 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ जाएगा। अर्थात्, तब गर्म दिनों की संख्या 55 प्रतिशत तक और सर्द रातों की संख्या 70 प्रतिशत तक बढ़ना तय है। इसका अर्थ ये भी है कि गर्मी के दिनों में लू वाले दिनों की संख्या तीन-चार गुना बढ़ जाएगी।

उधर, विश्व बैंक ने 2015 में एक अन्य रिपोर्ट में बताया था कि सारी सावधानियां बरतने के बावजूद 2050 तक भारत का तापमान एक से दो डिग्री सेल्सियस तक बढ़ना तय है। दुनिया के 30 सबसे प्रदूषित शहरों में से 21 भारत के बताए जाते हैं। ग्रीन हाउस गैसों के वैश्विक उत्सर्जन में भारत की हिस्सेदारी 7.1 प्रतिशत है। हालांकि, संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम की उत्सर्जन रिपोर्ट के अनुसार, प्रमुख देशों में भारत ही है जो ऐतिहासिक पेरिस समझौते के तहत निर्धारित अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने के रास्ते पर है।

मौसम विशेषज्ञों के अनुसार, वर्तमान में दक्षिण-पश्चिम मानसून ‘शुष्क युग’ से गुजर रहा है। इसकी शुरूआत 1971 से 1980 के दशक में हुई, जिसके आगे 2021 से 2030 के दशक में तटस्थ रहने की आशा है। इसके पश्चात् 2031-2040 के दशक से दक्षिण-पश्चिम मानसून ‘नम युग’ में प्रवेश करेगा।

ऐसे में क्या आपको मालूम है कि जल जोखिम का शिकार होकर मिस्र का प्राचीन शहर हेरास्लोइन 12सौ साल पहले डूब गया था, भूकंप ने 15सौ साल पहले मिस्र के अलेक्जेंड्रिया का नामोनिशां मिटा दिया था, भारत की खंभात की खाड़ी में साढ़े नौ हजार साल पहले समा गया शहर मिला। चीन के चेंग शहर को 1950 के दशक में झील ने लील लिया। केवल एसियाई देशों की बात करें तो अब वर्ष 2100 तक चेन्नई, कोलकाता, यांगून, बैंकाक, ची मिन्ह सिटी और मनीला जैसे एशियाई शहरों पर जल जोखिम का खतरा मड़रा रहा है।

यही सब कारण हैं कि वर्ष 2019 में 153 देशों के 11 हजार से अधिक वैज्ञानिकों ने जलवायु आपातकाल की घोषणा कर दी थी। इन वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी कि अगर जीवमंडल के संरक्षण के लिए तत्काल कदम नहीं उठाए जाते हैं तो “अनकही पीड़ा” सामने आएगी। उन्होंने चेतावनी देते हुए कहा, “जलवायु संकट आ गया है और वैज्ञानिकों की उम्मीदों से कहीं अधिक तेजी से यह बढ़ रहा है।”

झूठ बोले कौआ काटेः

ग्लोबल वार्मिग के कारण प्रकृति में बदलाव आ रहा है। कहीं भारी वर्षा तो कहीं सूखा और कहीं लू व कहीं ठंडक हो रही है। एक अध्ययन के अनुसार अंटार्कटिका का तापमान एक सदी पहले तक माइनस 50 डिग्री होता था। अब माइनस 11 डिग्री होता है। ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं। ऐसे ही चलता रहा तो एक दिन नदियां सूख जाएंगी और समुद्र के किनारे के शहर डूब जाएंगे। ग्लोबल वार्मिंग से स्वास्थ्य समस्याओं में सबसे ज्यादा बढ़ोतरी हो रही है। कई जीवों व पशुओं की प्रजातियां विलुप्त हो गई हैं। बाढ़ व सुनामी जैसी प्राकृतिक आपदाएं होती हैं।

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दरअसल, ग्लोबल वार्मिंग से ग्रीन हाउस प्रभाव (हरित प्रभाव) असंतुलित होता है। इसमें कार्बन डाइ आक्साइड, मेथेन व जल वाष्प की मात्रा आवश्यकता से अधिक होने लगती है, तो पृथ्वी में तापमान बढ़ता है। मौसम विभाग के अनुसार वर्ष 1880 से 2012 की अवधि के दौरान पृथ्वी के औसत सतही तापमान में 0.85 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि दर्ज की गयी थी।

ब्रिटेन के एक अध्ययन के अनुसार, ताप उर्जा, तूफानी बादलों के लिए इंधन का काम करती है। आशंका है कि अगर तापमान बढ़ता रहा तो आकाश में बिजलियों की कड़कड़ाहट बढ़ जाएगी, जिसके चलते जंगली आग एक समस्या बन सकती है। निष्क्रिय अवस्था में पड़े ज्वालामुखी सक्रिय हो सकते हैं। ग्लेशियर पिघलने से पृथ्वी की भीतरी परत पर पड़ने वाला दबाव घटेगा, जिसका असर मैग्मा चैम्बर पर पड़ेगा और ज्वालामुखियों की गतिविधियों में वृद्धि होगी।

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विशेषज्ञों के अनुसार, जलवायु परिवर्तन के चलते बड़े ग्लेशियर टूट सकते हैं, जो समुद्री यातायात को प्रभावित करेंगे। जलवायु परिवर्तन का असर विमानों की उड़ान पर भी होगा। विमानों को आकाश में अधिक हलचल (टर्ब्युलेंस) का सामना करना पड़ेगा। इसमें लगभग 148 प्रतिशत की वृद्धि होगी। रेगिस्तान में कुछ ऐसे बैक्टीरिया होते हैं जो मिट्टी के क्षरण को रोकने के लिए बायोक्रस्ट जैसी मजबूत परत का निर्माण करते हैं लेकिन तापमान बढ़ने से इनका आवास स्थान प्रभावित होगा और मिट्टी का क्षरण बढ़ेगा जिससे रेगिस्तान में रेत कम होगी। इसके अतिरिक्त मनुष्य, पशु-पक्षियों के व्यवहार में भी चिंताजनक परिवर्तन देखने को मिलेगा।

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हमारे खेतों और कृषि उत्पादों की अच्छी उपज के लिए ‘मध्यम बारिश’ बेहद जरूरी है। जलवायु परिवर्तन का असर जिन देशों पर सबसे ज्यादा होगा, उस सूची में भारत 5 वें स्थान पर है। वैश्विक आबादी बढ़ने के साथ पूरी दुनिया में खाद्यान्नों की वैश्विक मांग में भी बढ़ोतरी हो रही है। भारत की आबादी 140 करोड़ के पार पहुंच गई है। ऐसी स्थिति में भारत के लिए चुनौतियां भी ज्यादा हैं।

इसलिए, जलवायु परिवर्तन और तापक्रम को ठीक रखने के लिए सबसे पहले हमें कार्बन उत्सर्जन रोकना होगा। साथ ही पृथ्वी को ज्यादा से ज्यादा हरा भरा बनाने की जरूरत है। प्राकृतिक संसाधनों का अत्यधिक दोहन करने की बजाए उन्हें संरक्षित करने पर ध्यान देने की जरूरत है। कृषि योग्य भूमि को खाली और सूखा नहीं रखना चाहिए।

फुटपाथ पर सीमेंट वाली ईंटों के स्थान पर इंटरलाकिंग टाइल्स का इस्तेमाल किया जाना चाहिए, ताकि वर्षा का पानी जमीन के अंदर प्रवेश कर सके। कंक्रीट का प्रयोग कम करना होगा, क्योंकि इमारतें बनाने में प्रयोग होने वाली सीमेंट, कंक्रीट आदि वस्तुएं भी ऊष्मा को लंबे समय तक अवशोषित करती हैं और रात के समय उसे उत्सर्जित करती हैं।

तो, लवली मौसम पर इतराइये, मस्ती भी करिये लेकिन समय रहते जाग भी जाइय़े। भारी न पड़ जाए ये मौसम-मौसम!

और ये भी गजबः

मौसमी गतिविधियों पर पिछले कुछ दशकों से अल नीनो और ला नीना जैसी घटनाओं का असर बढ़ता हुआ दिख रहा है। ऐसे में सवाल उठता कि आखिर ये अल नीनो और ला नीनो है क्या? और इन दोनों का मौसम पर किस तरह असर पड़ता है?

अमेरिकन जियोसाइंस इंस्टीट्यूट के अनुसार इन दोनों टर्म का संदर्भ प्रशांत महासागर की समुद्री सतह के तापमान में होने वाले बदलावों से है। इस तापमान का असर पूरी दुनिया के मौसम पर पड़ता है। एक तरफ अल नीनो है जिसके कारण तापमान गर्म होता है तो वहीं, ला नीना के कारण तापमान ठंडा।

5 और ये भी गजब

प्रशांत महासागर में पेरू के निकट समुद्री तट के गर्म होने की घटना को अल नीनो कहा जाता है। जिस साल अल नीनो की सक्रियता बढ़ती है, उस साल दक्षिण-पश्चिम मानसून पर इसका असर पड़ता है, जिससे धरती के कुछ हिस्सों में भारी वर्षा होती है तो कुछ हिस्सों में सूखे की गंभीर स्थिति सामने आती है। हालांकि कभी-कभी इसके सकारात्मक प्रभाव भी हो सकते हैं, उदाहरण के तौर पर अल नीनो के कारण अटलांटिक महासागर में तूफान की घटनाओं में कमी आती है।

ला नीना का स्पेनिश अर्थ है ‘छोटी लड़की’। इसे कभी-कभी अल विएखो, एंटी-अल नीनो या “एक शीत घटना” भी कहा जाता है। यह स्थिति भूमध्यरेखीय प्रशांत महासागर क्षेत्र के सतह पर निम्न हवा का दबाव होने से पैदा होती है। ला नीनो बनने के कई अलग-अलग कारण माने जाते हैं लेकिन सबसे मशहूर कारण है, जब ट्रेड विंड, पूर्व से बहने वाली हवा काफी तेज गति से बहती हैं तो समुद्र की सतह का तापमान गिरने लगता है। इस कम होते तापमान को ही ला नीनो कहते हैं। इस स्थिति का पैदा होना पूरी दुनिया के तापमान पर असर डालता है और इसके कारण उस वर्ष तापमान औसत से ज्यादा ठंडा हो जाता है।