कर्नाटक के नतीजों ने तीसरे मोर्चे का सपना तोड़ा!

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कर्नाटक के नतीजों ने तीसरे मोर्चे का सपना तोड़ा!

वरिष्ठ पत्रकार और समीक्षक अशोक जोशी का कॉलम

कर्नाटक विधानसभा के चुनावी परिणाम भले ही अप्रत्याशित नहीं हो, लेकिन इसके राजनीतिक परिणाम निश्चित ही अप्रत्याशित हो सकते हैं। इस जीत ने जहां बुझी ही कांग्रेस के मुंह में मिश्री घोलने का काम किया, वहीं इस जीत ने नीतीश कुमार और ममता बनर्जी सहित दूसरे विपक्षी दलों के मुंह का जायका बिगाड़ दिया। इस परिणाम ने विपक्षी एकता और तीसरा मोर्चा बनाने की संभावना को धूमिल करने का काम भी किया। इस जीत ने जहां कांग्रेस को अपने बल पर सरकार बनाने की शक्ति प्रदान की, वहीं उसमें इतना आत्मविश्वास जरूर दिया है कि वह लोकसभा चुनाव में अन्य राज्यों में भी अपने बल पर सत्तारूढ भाजपा को टक्कर देकर सत्ता से बेदखल करने की बेचैनी पैदा कर सकती है।

जरूरी नहीं कि जिस फिल्म के डायलॉग हिट हों, वह फिल्म भी हिट ही होगी। भाजपा के साथ भी यही हुआ। इस चुनाव में भाजपा के स्टार प्रचारकों ने कर्नाटक में आकर एक से बढ़कर एक धांसू डायलॉग बोले, तालियां भी बटोरी लेकिन जब ताली बजाने वाले हाथ जब ईवीएम पर बटन दबाने को उठे तो उन्होंने भाजपा को ठेंगा दिखाते हुए कांग्रेस पर अपना विश्वास जताया। यह भाजपा के लिए सोचने की बात है कि अब वो दिन लद गए जब मतदाताओं को चटपटे भाषणों से लुभाया जा सकता है। आज की जनता जमीनी हकीकत और स्थानीय समस्याओं से ज्यादा रूबरू रहती है। लेकिन, भाजपा ने सिर्फ हवाई किले बांधे और जमीन पर उतरने का प्रयास नहीं किया।

इस चुनाव में कांग्रेस का 40% वाली सरकार का नारा और फार्मूला चल निकला और भाजपा मुंह देखती रह गई। मतदाताओं ने वास्तव में भाजपा सरकार के दौरान कमीशनबाजी और रिश्वतखोरी को नजदीक से देखा। भाजपा ने उससे दूरी बनाकर सबसे बड़ी गलती की। यही कारण है कि न खाऊंगा और न खाने दूंगा की विचारधारा को पल्लवित करने वाले प्रधानमंत्री के लच्छेदार भाषणों पर मतदाताओं ने विश्वास नहीं किया। बेहतर होता कि यदि भाजपा चुनाव के दौरान अपनी गलती स्वीकार करती और सार्वजनिक मंच से नई सरकार बनने पर भ्रष्टाचार को खत्म करने का वादा करती। लेकिन, वह कांग्रेस के 40% के दांव में फंस गई और सफाई देने की कमी ने उसका सफाया कर दिया।

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कर्नाटक के मतदाता शेष भारत के मतदाताओं से ज्यादा समझदार हैं। उन्होंने इस चुनाव में साबित कर दिया कि उन्हें राजनीतिक हथकंडों से बरगलाया नहीं जा सकता। यही कारण है कि जगदीश शेट्टियार सहित भाजपा के जो कद्दावर नेता कांग्रेस सरकार बनने पर इनाम मिलने की गरज से भाजपा छोड़कर कांग्रेस में गए थे, मतदाताओं ने उन्हें भी बाहर का दर्जा दिखाकर अवसरवादी राजनीति को नकार दिया।

अस्सी के दशक में जब आपातकाल के बाद इंदिरा गांधी की सत्ता में जबरदस्त वापसी हुई थी, एक के बाद एक फ्लॉप फिल्म देने के बाद राजेश खन्ना की फिल्म ‘छैला बाबू’ सुपर हिट हुई थी। इस फिल्म की सफलता और फिल्मी दुनिया में अपनी शानदार वापसी पर इस फिल्म का पूरे एक पेज का बड़ा सा विज्ञापन एक फिल्म अखबार में दिया गया था। इसमें लिखा था इंदिरा गांधी एंड राजेश खन्ना आर लाइक फीनिक्स विच रिबर्थ फ्रॉम इट्स एशेज (राजेश खन्ना और इंदिरा गांधी उस अमर पक्षी की तरह हैं जो खुद अपनी राख से पैदा हो जाता है) कर्नाटक की जीत पर एक बार फिर यही बात साबित हुई कि जो लोग कांग्रेस मुक्त भारत का सपना देख रहे थे, जो कांग्रेस की राख को समंदर में प्रवाहित करने का भरम पाले थे, उसी राख से कांग्रेस ने फिर जिंदा होकर साबित कर दिया कि वह फीनिक्स की तरह अपनी राख से दोबारा उठकर खड़ा होने की कूबत रखती है।

इस घटना ने कांग्रेस की इस आस को फिर हरा-भरा कर दिया है कि वह केन्द्र में अपने बल पर अपनी सरकार बना सकती है। इस चुनाव में जेडीएस की करारी शिकस्त ने भी साबित किया कि महानायक ही महानायक होते हैं। जिनकी जगह एक्स्ट्रा कलाकार कभी नहीं ले सकते। इस परिणाम ने साबित किया कि जनता न तो खिचड़ी सरकार चाहती है और न क्षेत्रीय दलों का वर्चस्व स्वीकार कर सकती है। यही कारण है कि लोकसभा चुनाव में क्षेत्रीय दलों की भूमिका नगण्य ही रहने की संभावना है। इस संभावना को कांग्रेस ने बकायदा पढ लिया है, जिससे कांग्रेस को अपने साथ जोड़कर लोकसभा चुनाव की वैतरणी पार करने का सपना देखने वाले क्षेत्रीय दलों को भारी निराशा मिली।

पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस की सर्वेसर्वा ममता बनर्जी, बिहार में जेडीयू के नीतीश कुमार, महाराष्ट्र में एनसीपी के शरद पवार, शिवसेना से बिछडे उद्धव ठाकरे, ‘आप’ के केजरीवाल और उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के अखिलेश यादव ने आगामी लोकसभा चुनाव में कांग्रेस-भाजपा विरोधी ताकतों को एकजुट कर उसे राजनीति के अखाड़े में पटखनी देने की सोची थी। वे सब आज अपने आपको हारा हुआ मान रहे हैं। क्योंकि, इन परिणामों ने कांग्रेस को सेमीफाइनल खेले बिना सीधे फाइनल में पहुंचा दिया है। इस बात को राजनीति में सेफ खेलने वाले उड़ीसा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक ने पहले ही पहचान लिया था और दिल्ली जाकर नरेन्द्र मोदी से मुलाकात करने के बाद बयान जारी कर दिया कि तीसरे मोर्चे की कोई संभावना नहीं है।

कर्नाटक के परिणामों से यह भी तय हो गया है कि आगामी चुनाव आयपीएल की तर्ज पर देष विदेष के मिश्रित खिलाड़ियों की टीमों के साथ खेले जाने वाले टी ट्वेंटी की बजाए अलग-अलग देशों की अलग अलग टीमों के बीच खेले जाने वाले परंपरागत टेस्ट मैच की तरह ही होगा जिसमें कांग्रेस और भाजपा की प्रमुख टीमें होंगी। इसमें दूसरे दलों से आए खिलाडियों के लिए कोई जगह नहीं होगी । स्वस्थ राजनीति के लिए इसे एक अच्छा संकेत भी माना जाना चाहिए क्योंकि राजनीति एक गंभीर मामला है सर्कस की तरह कोई तमाशा नहीं!