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चार राज्यों में भाजपा और कांग्रेस के सामने चुनौतियां
2023 के अन्त में जिन प्रमुख चार राज्यों में राज्य विधानसभा के चुनाव होना हैं वहां टीआरएस जो अब बीआरएस हो चुकी है के मुखिया और मुख्यमंत्री के. चन्द्रशेखर राव, राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत, मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के सामने अपनी-अपनी सरकार को बचाने के रास्ते में कांटे बिछाने में विपक्षी दल कोई कोर-कसर बाकी नहीं रखेंगे। भाजपा और कांग्रेस के सामने सबसे अधिक चुनौतियों का हिमालय खड़ा हुआ है जिसे पार करने के बाद ही ये अपना मन चाहा लक्ष्य प्राप्त कर पायेंगे। भाजपा की चाहत है कि मध्यप्रदेश में उसकी सरकार जो कि उधारी के सिंदूर पर बनी है वह बची रहे और राजस्थान व छत्तीसगढ़ में भी वह अपनी सरकार बना सके। वहीं तेलंगाना में कांग्रेस और भाजपा के सामने आपस में एक-दूसरे पर बढ़त लेने की चुनौती है क्योंकि वहां केसीआर की सत्ता को हिलाना फिलहाल तो आसान नजर नहीं आ रहा। लेकिन इन दोनों में से कौन बड़ी पार्टी बनेगी इसकी इनमें होड़ होगी।
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कर्नाटक में कांग्रेस की चमकदार जीत के बाद उसके हौंसले अधिक बुलंद हैं तथा उसे भरोसा है कि मध्यप्रदेश में वह फिर 2018 के चुनाव नतीजों को दोहरायेगी तथा अपनी सरकार बनाएगी। जबकि, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में वह फिर से सत्ता में आ जायेगी। तेलंगाना में भी वह बीआरएस को टक्कर देने के मंसूबे पाल रही है। के. चन्द्रशेखर राव भी तेलंगाना से बाहर पैर पसारने के लिए दोनों दलों के दलबदलुओं पर नजर लगाये हुए हैं। भाजपा को राजस्थान में कांग्रेस नेता सचिन पायलट से काफी उम्मीदें हैं तो छत्तीसगढ़ में वह नये लोगों को पार्टी से जोड़ने की कोशिश कर रही है। फिलहाल मंसूबे और हसरतें तो हर दल की हिमालयीन उछाल मार रही हैं लेकिन असली फैसला तो मतदाताओं के हाथ में है और यह चुनाव नतीजों से पता चल सकेगा कि उसे किसके चुनावी वायदों और नेतृत्व पर भरोसा है।
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जहां तक मध्यप्रदेश का सवाल है भाजपा को इस बात का पक्का भरोसा है कि उसके बूथ सशक्तिकरण अभियान तथा अपनी पिछली ताकत के साथ ज्योतिरादित्य सिंधिया के भी साथ आ जाने से उसे इस बार चुनाव जीतने में कोई परेशानी नहीं होगी। पिछली बार की भांति किनारे लगने के थोड़ा पहले ही उसकी नौका डावांडोल नहीं होगी। वहीं दूसरी और ज्योतिरादित्य सिंधिया के भाजपा में जाने के बाद से कांग्रेस भले ही सरकार चली गई हो, लेकिन राहत की सांस ले रही है। क्योंकि, उसे भरोसा है कि अब आपसी गुटबंदी न्यूनतम हो गई है और सब नेता मिलकर काम कर रहे हैं। कमलनाथ व दिग्विजय सिंह जैसे दो बड़े चेहरे कांग्रेस के पास हैं इसलिए वह भी मजबूत पायदान पर है। फिलहाल कांग्रेस के सभी छोटे-बड़े नेता यहां सक्रिय हो चुके हैं और जिसे जो काम दिया गया है उसे वह पूरी शिद्दत के साथ कर रहा है।
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कमलनाथ जहां मैदानी मोर्चा संभाले हुए हैं तो दिग्विजय सिंह कार्यकर्ताओं को एकजुट करने और उनसे यह वायदा लेने में भिड़ गए हैं कि यदि टिकट नहीं मिलेगी तो भी वह पार्टी का काम करेंगे तथा बतौर निर्दलीय चुनाव नहीं लड़ेंगे। जहां तक भाजपा का सवाल है उसके पास एक मजबूत संगठन है और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के कार्यकर्ताओं की फौज भी है। इस सबके बावजूद उसके सामने सबसे बड़ी चुनौती बकौल भाजपा नेताओं, यही है कि वह ‘महाराज भाजपा, नाराज भाजपा और शिवराज भाजपा‘ के बीच तालमेल कैसे बैठाए। मध्यप्रदेश में केसीआर आदिवासियों व पिछड़े वर्गो के कुछ नेताओं को अपने साथ लाकर तीसरी राजनीतिक ताकत बनने की कोशिश कर रहे हैं। फ्यूज बल्बों के सहारे वह अपना आशियाना रोशन करना चाहते हैं। अभी तक तो भाजपा-कांग्रेस के अलावा किसी अन्य दल के लिए यहां की धरा उर्वरा नहीं रही है इसलिए केसीआर के मंसूबे कितने परवान चढ़ेंगे या फिर निराशा हाथ लगेगी यह चुनाव बाद ही पता चल सकेगा।
राजस्थान में गहलोत के सामने चुनौती
राजस्थान की परम्परा लम्बे समय से हर पांच साल में सरकार बदलने की रही है और इस बार बारी भाजपा की है। लेकिन जहां तक गुटबंदी का सवाल है कांग्रेस में गहलोत और सचिन पायलट के दो ही खेमे हैं। दूसरी ओर भाजपा में लगभग आधा दर्जन नेता मुख्यमंत्री बनने के सपने देख रहे है और उनकी प्राथमिकता कांग्रेस से पहले पूर्व मुख्यमंत्री और भाजपा नेता वसुंधरा राजे सिंधिया को किनारे लगाने की है। राजनीतिक जानकारों का मानना है कि आज भी वसुंधरा की मजबूत पकड़ यहां बनी हुई है। इसी प्रकार गहलोत ने सामाजिक सरोकारों और हितग्राहियों को सीधे लाभ पहुंचाने वाली कुछ ऐसी योजनायें चालू कर दी हैं जिससे उनका ग्राफ काफी बढ़ गया है।
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यदि सचिन पायलट और उनके बीच जुगलबंदी हो जाती है तथा दोनों अपने मनभेद और मतभेद भुलाकर एक हो जाते हैं तो फिर कांग्रेस की चुनावी नौका आसानी से पार लग जायेगी और यहां की रिवायत भी बदल जायेगी। लेकिन यह इतना आसान नहीं है क्योंकि दोनों के बीच परस्पर अविश्वास की खाई कम होने की जगह बढ़ती नजर आ रही है। कांग्रेस आलाकमान ने सुलह-समझौते के जो प्रयास किए थे उसका कितना असर हुआ और जो फार्मूला तय किया था उसका कितना अमल होता है इस पर ही गहलोत व पायलट के बीच मिलकर काम करने की स्थितियां पैदा होंगी। ‘मिले सुर मेरा तुम्हारा तो सुर बने हमारा‘ यदि हो जाता है तभी कांग्रेस की चुनावी संभावनायें यहां कुछ चमकीली हो सकती हैं। वैसे जब से गहलोत मुख्यमंत्री बने हैं उसी समय से उनके और सचिन पायलट के बीच अनबन चालू हो गयी थी और दिन प्रतिदिन कम होने की जगह बढ़ती ही गयी, फिर भी जितने उपचुनाव हुए उनमें कांग्रेस सफल रही और भाजपा अधिकांश स्थानों पर तीसरे, चौथे और अंतिम पायदान तक खिसक गयी। यहां पर भाजपा की चुनावी सम्भावनायें तभी चमकीली हो सकती हैं जब यहां के नेताओं और वसुंधरा के बीच पटरी बैठ जाये, क्योंकि भाजपा आलाकमान ही वसुंधरा को दरकिनार कर नये नेतृत्व को उभारना चाहता है। लेकिन क्या वह इस सीमा तक जायेगा जिससे कि उसकी सत्ता में आने की संभावनायें ही धूमिल हो जायें।
छत्तीसगढ़ में बढ़ता बघेल का कद
छत्तीसगढ़ की राजनीति में इन दिनों मुख्यमंत्री भूपेश बघेल का कद काफी बढ़ा हुआ है और भाजपा उनके सामने कितनी टिक पायेगी यह कुछ समय बाद ही पता चलेगा। फिलहाल तो वह चुनौतीहीन स्थिति में नजर आ रहे हैं। जहां तक विधायकों का सवाल है यहां पर भाजपा विधायकों की संख्या डेढ़ दर्जन से भी कम है और जितने उपचुनाव हुए उनमें सारी सीटें कांग्रेस ने भाजपा और अजीत जोगी की पार्टी से छीन ली हैं। फिलहाल कमजोर भाजपा को मजबूत पायदान पर लाने के लिए प्रदेश प्रभारी ओम माथुर एड़ी-चोटी का जोर लगा रहे हैं और दलबदल का तड़का भी लगाया जा रहा है। बघेल की राह कितनी मुश्किल होगी यह इस पर निर्भर होगा कि माथुर के प्रयास कितना रंग लाते हैं। इसके साथ ही यदि भाजपा ने गुजरात व कर्नाटक के फार्मूले पर स्थापित चेहरों को दरकिनार करने की कोशिश की तो उसे यहां इसका खामियाजा भी भुगतना पड़ सकता है। क्योंकि कुछ नेताओं की अपनी भी छवि है और क्षेत्रों में पकड़ भी है।
और यह भी
तेलंगाना में अभी भी मुख्यमंत्री केसीआर का जादू मतदाताओं के सिर चढ़ कर बोल रहा है और फिलहाल जब तक कि कोई चमत्कार न हो उनकी सत्ता को खतरा नजर नहीं आ रहा। हालांकि चुनावों में अक्सर चमत्कार की गुंजाइश भी बनी रहती है। असददुदीन ओवेसी की पार्टी से उनका तालमेल है और यदि यह तालमेल बना रहता है तो इससे कांग्रेस की उम्मीदों पर घड़ों पानी फिर सकता है, ऐसे में भाजपा कुछ अच्छे नतीजे लाते हुए यहां कांग्रेस से आगे निकल सकती है।
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अरुण पटेल
मध्य प्रदेश के वरिष्ठ पत्रकार है