MP Election: संभलें शिवराज, किस्मत कब तक देगी साथ ?

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MP Election: संभलें शिवराज, किस्मत कब तक देगी साथ ?

MP Election: संभलें शिवराज, किस्मत कब तक देगी साथ ?

मध्यप्रदेश भारतीय जनता पार्टी में शिवराज सिंह सबसे अधिक भाग्यशाली नेता हैं। वे 29 नवंबर 2005 को जब पहली बार मुख्यमंत्री बनाये गये, तब से लेकर तो अभी तक किस्मत बेहद बुलंद रही,जो बार-बार बागडोर थामते रहे। उनके भाग्य की प्रबलता तो तब सामने आई, जब नवंबर 2018 में भाजपा के चुनाव हारने के बाद अच्छी भली चल रही कांग्रेस सरकार में बगावत हुई और ज्योतिरादित्य सिंधिया के नेतृत्व में डेढ़ दर्जन कांग्रेस विधायक भाजपा में चले गये,जिसने एक बार फिर मप्र में 23 मार्च 2020 को भाजपा सरकार बनवा दी। वह भी शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्व में। क्या नवंबर 2023 में भी किस्मत उनका हाथ पकड़े रहेगी या पक़ड ढीली होती जा रही है? जानकारों का मानना है कि शिवराज सिंह चौहान ने समय रहते राजनीतिक उपाय और अनुष्ठान नहीं किये तो किस्मत रूठ सकती है।

दरअसल, सबके जीवन में कुछ ऐसे संयोग उपस्थित होते हैं, जो सकारात्मक परिणाम देते हैं। ये संयोग ही सांसारिक भाषा में किस्मत कहलाते हैं। यदि परिणाम विपरीत हो जायें तो बद्किस्मती कहलाती है। शिवराज जब 2005 में मुख्यमंत्री बने थे, तब भी अनेक वरिष्ठ नेता कतार में थे और उम्मीद से भी थे। 2020 में तो बिना आसार उन्हें राज सिंहासन मिल गया। तब भी कहने वाले नहीं चूके कि उनके नेतृत्व में तो 2018 का विधानसभा चुनाव हार गये थे, तब उनकी ही ताजपोशी किसलिये? यहीं जाकर किस्मत का खेल प्रारंभ होता है।

MP Election: संभलें शिवराज, किस्मत कब तक देगी साथ ?

राजनीतिक विश्लेषकों को लग रहा है कि शिवराज का आभा मंडल कमजोर पड़ रहा है। निश्चय ही वे आज भी पूरे प्रदेश में सबसे अधिक मान्यता प्राप्त भाजपा नेता हैं। उनका चेहरा जाना-पहचाना है। वे 18 बरस में तकरीबन पूरा प्रदेश नाप चुके हैं। वे अपने से वरिष्ठ,समकक्ष और कनिष्ठ कार्यकर्ताओं,नेताओं को नामजद जानते-पहचानते हैं। वे भी शिवराज से अवगत हैं। किसी मोर्चे पर यदि ये बातें लाभकारी हैं तो फिर से चुनावी चेहरा बनने को लेकर ऊहापोह भी है। सामान्य जन से लेकर तो कार्यकर्ता के स्तर पर भी दबी-छुपी आवाजें उठने लगी हैं कि नया चेहरा सामने लाया जाना चाहिये।

कहने को तो ये ही कहा जाता है कि जब कांग्रेस में भी कमलनाथ जैसा पुराना चेहरा ही सामने है तो भाजपा को नये चेहरे का जोखिम क्यों उठाना चाहिये? कुछ पुराने कार्यकर्ता इससे सहमत नहीं हैं। उनका तर्क है कि चूंकि 18 वर्ष से अधिक समय से भाजपा सत्तारूढ़ है और केवल दो वर्ष उमा भारती और बाबूलाल गौर मुख्यमंत्री रहे,शेष समय शिवराज सिंह चौहान ही सामने रहे। इस नाते प्रदेश की जनता और कार्यकर्ता उकताने लगा है। हालांकि ये तर्क कितना खरा और प्रासंगिक है, यह तो राष्ट्रीय नेतृत्व तय करेगा, किंतु इतना जरूर है कि इस मुद्द‌े ने भाजपा के भीतर हलचल अ‌वश्य पैदा कर रखी है।यह भी कहा जा रहा है कि कमलनाथ के पास खोने के लिये कुछ नहीं है, लेकिन शिवराज ने खोया तो नुकसान पूरी भाजपा को उठाना पड़ेगा। खासकर, तब जब अगले वर्ष लोकसभा चुनाव भी है। हिमाचल और कर्नाटक में कमल के मुरझाने और कांग्रेस के हाथ की लकीरें चमकने के बाद यदि मप्र को भी खो दिया तो 2024 में मुश्किलें बढ़ जायेंगी।

अब जबकि विधानसभा चुनाव में मात्र पांच महीने ही बचे हैं,इसलिये मुख्यमंत्री का चेहरा तो वही रहेगा, लेकिन फिर से भाजपा बहुमत ले आती है तो 1985 का इतिहास दोहराया जा सकता है। याद ही होगा कि 1980 से 1985 तक मप्र में अजुर्नसिंह के नेतृत्व में कांग्रेस सरकार थी और 1985 का चुनाव भी जीतकर आने के बाद अजुर्नसिंह के दोबारा मुख्यमंत्री बनने पर किसी को भी संदेह नहीं था। इसी बीच यकायक घटनाक्रम घूमा और अजुर्नसिंह को शपथ ग्रहण से ऐन पहले पंजाब का राज्यपाल बनाकर भेज दिया गया था। क्या इस बार भाजपा के सत्ता में लौटने पर मप्र में वैसा ही कुछ हो सकता है? बहरहाल।

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आखिरकार, ऐसा माहौल क्यों बनाया जा रहा है या बन भी रहा है तो क्यों? शिवराज सिंह चौहान जनमत भाजपा के पक्ष में करने के भरपूर जतन कर रहे हैं। चारों दिशाओं की परिक्रमा भी वे कर ही रहे हैं। राष्ट्रीय नेतृत्व को साधने में भी कोई कसर नहीं रख रहे। उनकी निष्ठा पर भी दल में किसी को संदेह नहीं । जो भी प्रमुख दावेदार हैं, प्रत्यक्षत: वे उनके साथ भी तालमेल बनाकर चल रहे हैं। इन कवायदों के बीच भी आम भाजपाई आश्वस्त नहीं है कि शिवराज सिंह चौहान चुनाव वैतरणी पार करवा सकेंगे। संभवत: खुद शिवराज सिंह भी समझ नहीं पा रहे हैं कि वे कैसे अपनी सेना के बीच भरोसे का भाव जागृत करें।

MP Election: संभलें शिवराज, किस्मत कब तक देगी साथ ?

शिवराज के सामने चुनौतियां विविध रूपों में सामने आने वाली हैं। सबसे पहली, कार्यकर्ता में उत्साह और भरोसा पैदा करना। दूसरी,सिंधिया के समर्थकों को लेकर मूल भाजपाई के मन में जो संदेह पनपा है,उससे पार पाना। तीसरी, सिंधिया समर्थकों के टिकट कटे तो कहीं उनके बगावती तेवर पार्टी को नुकसान न पहुंचा दे। चौथी, नौकरशाही पर नकेल न कस पाने की वजह से पनपा असंतोष चुनावी बेला में कैसे दूर करें। पांचवीं, राष्ट्रीय नेतृत्व को पूरी तरह से प्रदेश फतह के प्रति आश्वस्त कैसे करें।

ऐसा लग रहा है कि शिवराज सिंह युद्ध‌ के मैदान में दुविधा के द्वंद्व‌ में घिरे हैं। वे चक्रव्यूह को भेदने की कला जानते हैं, लेकिन लौटने के रास्ते अपनों ने ही बंद कर रखे हैं। इस समय उनके पास ऐसा कोई कृष्ण नहीं है, जो उन्हें अपनों से भी निपटने का द्वंद्व दूर कर सके और सेना का मनोबल भी बढ़वा सके। अभी तो सेना ही उनके नेतृत्व का खामोश बहिष्कार किये हुए हैं। तब सोचने वाली बात यह है कि क्या कोई भी युद्ध‌ अंतर्द्वंद्व के चलते, कमजोर मनोबल वाली सेना के भरोसे,अपनों द्व‌ारा रचे गये चक्रव्यूह को भेदकर जीता जा सकता है?