भाजपा में कुछ बड़ा होने की आहट, दिल्ली में फाइल अभी बंद नहीं हुई!

मध्यप्रदेश के राजनीतिक हालात पर हेमंत पाल की टिप्पणी

2011

भाजपा में कुछ बड़ा होने की आहट, दिल्ली में फाइल अभी बंद नहीं हुई!

 

मध्यप्रदेश भाजपा में इन दिनों कुछ ख़ास चल रहा है। निश्चित रूप से इसे तूफान से पहले की आहट समझा जा सकता है। इस पर कांग्रेस के अलावा भाजपा की भी नजर है। भाजपा का दिल्ली हाईकमान भी सारी स्थितियों को समझ रहा है, वहां फाइल खुली हुई है! भाजपा के नजरिए से आकलन किया जाए तो पार्टी को प्रदेश के किसी भी अंचल में ताकतवर नहीं आंका जा रहा। मालवा-निमाड़ में भाजपा की कमजोरी पिछले चुनाव में ही सामने आ गई थी। महाकौशल और विंध्य में भी उसका प्रभाव एकछत्र वाला नहीं है। ग्वालियर-चंबल में इस बार सिंधिया समर्थक भाजपाइयों और मूल भाजपा में खींचतान होना तय है।

मध्यप्रदेश में विधानसभा चुनाव का माहौल अब धीरे-धीरे जोर पकड़ने लगा है। कांग्रेस और भाजपा दोनों में एक जैसी तैयारियां हैं। दोनों एक-दूसरे पर छिटपुट हमले भी करते नजर आ रहे हैं। कांग्रेस के पास खोने को कुछ नहीं, लेकिन भाजपा के लिए किसी भी स्थिति में अपनी सरकार बचाना सबसे बड़ी चुनौती है। जो हालात दिखाई दे रहे हैं, उनका आकलन किया जाए, तो माहौल भाजपा के पक्ष में नहीं है। कांग्रेस की भी स्थिति भी बहुत अच्छी नहीं कही जा सकती। लेकिन, भाजपा का जो नुकसान होगा, वहीं कांग्रेस के लिए राजनीतिक फायदा होगा।

अभी चुनाव की रणभेरी नहीं बजी, पर दोनों तरफ सेनाएं सज गई है। ऐसी स्थिति में भाजपा के सामने ज्यादा चुनौती ज्यादा है। ज्योतिरादित्य सिंधिया के पार्टी में आने के बाद भाजपा कार्यकर्ता और नेताओं की नाराजगी को संभालना आसान दिखाई नहीं दे रहा। कई सीटों पर इस तरह का संकट दिखाई दे रहा है। सबसे ज्यादा चुनौती ग्वालियर-चंबल संभाग में है। यहां सिंधिया के साथ भाजपा में आए उनके समर्थक नेता जब टिकट मांगेंगे, तो राजनीतिक विवाद शुरू होंगे। यही स्थिति बुंदेलखंड में भी बनती दिखाई दे रही है, जहां सिंधिया समर्थक मंत्रियों और मूल भाजपा के मंत्रियों में खींचतान शुरू हो गई। गोपाल भार्गव, भूपेंद्र सिंह और गोविंद राजपूत के बीच में पिछले दिनों जो विवाद चला वह अभी शांत नहीं हुआ।

कर्नाटक जैसे हालात मध्यप्रदेश में भी
इन सबके बीच सबकी नजरें इस बात पर लगी है कर्नाटक चुनाव से भाजपा को जो सबक मिला, उसका मध्य प्रदेश के चुनाव में क्या असर होगा। क्योंकि, दोनों राज्यों में स्थिति करीब-करीब समान है। मध्यप्रदेश की ही तरह कर्नाटक में भी भाजपा ने जोड़-तोड़ से सरकार बनाई थी। इस बार के कर्नाटक विधानसभा चुनाव में तो भाजपा सत्ता से बाहर हो गई। जोड़-तोड़ की ठीक वैसी स्थिति मध्यप्रदेश में भी बनी थी। ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ कांग्रेस से आए 22 विधायकों ने कमलनाथ की सरकार को पलट दिया था। उस समय तो भाजपा ने उपचुनाव में 7 सीटें हारकर भी अपनी सरकार बना ली। लेकिन, अब स्थिति इतनी आसान दिखाई नहीं दे रही। पार्टी में जिस तरह के खींचतान वाले हालात बताते हैं, वो चुनाव में पार्टी को नुकसान पहुंचाने वाले हैं।

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कांग्रेस में अपेक्षाकृत गुटबाजी कम
कांग्रेस सत्ता में नहीं है, उसे नुकसान का कोई खतरा नहीं है। एक सकारात्मक पक्ष यह भी है, कि भाजपा की तरह कांग्रेस में अपेक्षाकृत गुटबाजी कम दिखाई दे रही। कमलनाथ की अगुवाई में पार्टी चुनाव लड़ेगी, इसमें कोई शक नहीं। यदि बहुमत मिलता है, तो वे मुख्यमंत्री भी होंगे। दिग्विजय सिंह जिस तरह से कमलनाथ का समर्थन कर रहे हैं, उससे स्पष्ट है कि अब कमलनाथ की राह में कोई बड़ा संकट नहीं है। यदि कोई सिर उठाने की कोशिश भी करता है, तो उसका कोई मतलब नहीं होगा। नेता प्रतिपक्ष डॉ गोविंद सिंह ने कुछ बयानबाजी करके माहौल बदलने की कोशिश जरूर की थी, पर उसका कोई असर दिखाई नहीं दिया, तो वे भी शांत हो गए।

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भाजपा को संगठन की कमजोरी का खतरा
हाल के घटनाक्रम से एक बात साफ़ हो गई कि विधानसभा चुनाव में सबसे ज्यादा असर भाजपा संगठन की कमजोरी का सामने आएगा। प्रदेश अध्यक्ष विष्णु दत्त शर्मा ने अपने कार्यकाल में कोई ऐसी उपलब्धि हासिल नहीं की, जिससे लगे वे पार्टी की सरकार बनाने लायक बहुमत जुटाने में मददगार बन सकते हैं। क्योंकि, उन्होंने अपने कार्यकाल में भाजपा में गुटबाजी को जितना बढ़ाया, अब उसका नुकसान सामने दिखाई देने लगा है। इसलिए यह समझा जा रहा है कि वे रहेंगे तो पार्टी को ज्यादा नुकसान देंगे। यदि उन्हें हटाया जाता है तो कोई नया अध्यक्ष हालात को संभाल सकेगा, उसमें भी शंका है। आशय यह कि विष्णु दत्त शर्मा के होने या न होने दोनों स्थितियों में पार्टी को नुकसान ज्यादा है। पार्टी भी इस बात को अच्छी तरह से समझ रही है।

भाजपा में संगठन में सुधार के क्या उपाय
कहा जा सकता है कि चुनाव से पहले यदि भाजपा में कोई बड़ा फेरबदल होता है, तो वह प्रदेश अध्यक्ष का जाना ही होगा। लेकिन, बाकी बचे चार-पांच महीने में भाजपा में ऐसा कौन सा नेता है, जिसके पास बाजी पलटने की ताकत है, तो वह दिखाई नहीं दे रहा। विकल्प के रूप में राजेंद्र शुक्ला पर पार्टी दांव खेल सकती है। लेकिन, वे विंध्य के नेता हैं, इसलिए मध्य प्रदेश के बाकी हिस्सों में उनका कोई असर नहीं है। जबकि, भाजपा को सबसे बड़ी चुनौती पश्चिम मध्य प्रदेश से मिलेगी। यहां आदिवासियों पर आज भी कांग्रेस का असर है।

भाजपा सरकार और संगठन में अब बदलाव यानि भटकाव...

ऐसी स्थिति में संभव है कि पार्टी कैलाश विजयवर्गीय पर दांव खेले! पार्टी की कमजोर कड़ी महाकौशल भी है। बुंदेलखंड में भाजपा पिछले विधानसभा चुनाव में भारी थी, इस बार वहां उसकी वो ताकत दिखाई नहीं दे रही। ग्वालियर चंबल संभाग में तो निश्चित रूप से कांग्रेस को फायदा होगा। क्योंकि, यहां टिकट बंटवारे के साथ ही सिंधिया समर्थकों और मूल भाजपा के नेताओं में विवाद होना तय है। इन सारे हालात को देखकर लगता है कि पार्टी में कोई बड़ा बदलाव संभावित है। वो क्या होगा, इसका इंतजार कीजिए!