भारत माता के यह दो लाल,दादा भाई और माखनलाल …

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भारत माता के यह दो लाल,दादा भाई और माखनलाल …

भारत की आजादी के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर करने वाले लालों की एक लंबी श्रंखला है। इनमें भारत माता के दो लाल शामिल हैं। आजादी के लिए संघर्ष के दौर के वयोवृद्ध पुरुष दादा भाई नौरोजी और मध्यप्रदेश की माटी के सपूत पंडित माखनलाल चतुर्वेदी। देश की आजादी अपनी 75 वर्ष की उम्र पूरा करने को है, तब 30 जून 2023 को दादा भाई को विदा हुए 106 साल हो गए और दादा माखनलाल को गए 56 साल हो गए हैं। दादा भाई का निधन 30 जून 1917 को 92 वर्ष की उम्र में हुआ था, तो पंडित माखनलाल ने 30 जून 1968 को इस दुनिया से विदा ली थी। आजादी के संघर्ष का हर सिपाही देश का महानायक है, इसमें दादा भाई ब्रिटिश सांसद बनने वाले पहले एशियाई थे।

1892 से 1895 तक वे युनाइटेड किंगडम के हाउस ऑफ कॉमन्स के सदस्य थे। सदस्य बनने का ध्येय भी यही था कि अपने देश को अंग्रेजों की काली छाया से मुक्त किया जाए। देश को इसी दिशा में आगे बढ़ाकर भारत का यह वयोवृद्ध पुरुष दूसरे लोक को गमन कर गया। मोहनदास करमचंद गांधी को भी दादा भाई ने राह दिखाई थी। तो दूसरी महान शख्सियत पंडित माखनलाल चतुर्वेदी थे, जिन्होंने प्रभा और कर्मवीर जैसे प्रतिष्ठत पत्रों के संपादक के रूप में ब्रिटिश शासन के खिलाफ जोरदार प्रचार किया और नई पीढ़ी का आह्वान किया कि वह गुलामी की जंज़ीरों को तोड़ कर बाहर आए। इसके लिये उन्हें अनेक बार ब्रिटिश साम्राज्य का कोपभाजन बनना पड़ा। पर आजादी के नायक बन जहां अंग्रेजी हुकूमत को मुंहतोड़ जवाब दिया, तो साहित्य के सिपाही बतौर उससे भी बड़ी लड़ाई लड़कर आज भी हम सबके बीच जिंदा हैं। इनका स्मरण हमारा फर्ज है, क्योंकि इनके कर्ज से हम भारतवासी कभी मुक्त नहीं हो सकते।

दादाभाई नौरोजी (4 सितम्बर 1825 – 30 जून 1917) ब्रिटिशकालीन भारत के एक पारसी बुद्धिजीवी, शिक्षाशास्त्री, कपास के व्यापारी, राजनैतिक एवं सामाजिक नेता, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के संस्थापकों में से एक थे। उन्हें ‘भारत का वयोवृद्ध पुरुष’ (ग्रेंड ओल्ड मैन ऑफ इंडिया) कहा जाता है। वह  दादाभाई नौरोजी ने भारत में विश्वविद्यालयों की स्थापना के पूर्व के दिनों में एलफिंस्टन इंस्टीटयूट में शिक्षा पाई, जहाँ के ये मेधावी छात्र थे। उसी संस्थान में अध्यापक के रूप में जीवन आरंभ कर आगे चलकर वहीं वे गणित के प्रोफेसर हुए, जो उन दिनों भारतीयों के लिए शैक्षणिक संस्थाओं में सर्वोच्च पद था। साथ में उन्होंने समाजसुधार कार्यों में अग्रगामी और कई धार्मिक तथा साहित्य संगठनों के, यथा “स्टूडेंट्स लिटरेरी ऐंड सांइटिफिक सोसाइटी के प्रतिष्ठाता के रूप में अपना विशेष स्थान बनाया। उसकी दो शाखाएँ थीं, एक मराठी ज्ञानप्रसारक मंडली और दूसरी गुजराती ज्ञानप्रसारक मंडली। रहनुमाई सभा की भी स्थापना इन्होंने की थी।’ “रास्त गफ्तार’ नामक अपने समय के समाज सुधारकों के प्रमुख पत्र का संपादन तथा संचालन भी इन्होंने किया। दादा भाई ने इंग्लैंड में उच्च शिक्षा के लिए जानेवाले विद्यार्थियों की भलाई के लिए काम किया। जो विद्यार्थी उन दिनों उनके संपर्क में आए और उनसे प्रभावित हुए उनमें सुप्रसिद्ध फीरोजशाह मेहता, मोहनदास कर्मचंद गांधी और मोहम्मद अली जिन्ना का नाम उल्लेखनीय है।

दादा भाई ने भारतीयों की राजनीतिक दासता और दयनीय स्थिति की ओर विश्व लोकमत का ध्यान आकृष्ट करने के लिए महान प्रयास करने का निश्चय किया जिसका परिणाम हुआ उनकी वृहदाकार पुस्तक “पावर्टी एंड अनब्रिटिश रूल इन इंडिया”। इसमें बहुत से लेख, भाषण, निबंध और उच्चाधिकारियों से पत्र-व्यवहार तथा समितियों और आयोगों के समक्ष दी गई उनकी गवाहियाँ तथा कितने ही महत्वपूर्ण अधिनियमों और घोषणाओं के उद्धरण थे। हाउस ऑफ कामन्स की सदस्यता प्राप्त करने में उनकी अद्भुत सफलता लक्ष्यपूर्ति के लिए एक साधन मात्र थी। उनका लक्ष्य था भारत का कल्याण और उन्नति, जो संसद की सदस्यता के लिए संघर्ष करते समय भी उनके मस्तिष्क पर छाया रहता था। वे बराबर नेशनल कांग्रेस के लिए प्रचार करते रहे और भारत में अपने मित्रों को लिखे विविध पत्रों में पारसियों की राष्ट्रीय संग्राम से दूर रहने की प्रवृत्ति की निंदा करते रहे। अपने लंबे जीवन में दादाभाई ने देश की सेवा के लिए जो बहुत से कार्य किए।

स्वशासन के लिए अखिल भारतीय कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन (1906) में उन्होंने अपने भाषण में स्वराज्य को मुख्य स्थान दिया। उन्होंने कहा कि हम कोई कृपा की याचना नहीं कर रहे हैं, हमें तो केवल न्याय चाहिए। आरंभ से ही अपने प्रयत्नों के दौरान में मुझे इतनी असफलताएँ मिली हैं जो एक व्यक्ति को निराश ही नहीं बल्कि विद्रोही भी बना देने के लिए पर्याप्त थीं, पर मैं हताश नहीं हुआ हूँ। मुझे विश्वास है कि उस थोड़े से समय के भीतर ही, जब तक मै जीवित हूँ, सद्भावना, सच्चाई तथा सम्मान से परिपूर्ण स्वायत्त शासन की माँग को परिपूर्ण, करने वाला संविधान भारत के लिए स्वीकार कर लिया जाएगा। पूर्व और पश्चिम में कांग्रेसी कार्यकर्ता तथा उनके मित्र भारत की नई पीढ़ी की आशाओं के अनुसार सांवैधानिक सुधारों को मूर्त रूप देने के लिए प्रस्ताव तैयार करने में व्यस्त थे। परंतु 20 अगस्त 1917 की घोषणा के दो महीने पूर्व दादाभाई की मृत्यु हो चुकी थी। इस घोषणा के द्वारा प्रशासनिक सेवाओं में अधिकाधिक भारतीय सहयोग तथा ब्रिटिश साम्राज्य के अंतर्गत क्रमश: भारत में उत्तरदायी शासन के विकास के लिए मार्ग प्रशस्त हुआ। इस प्रकार भारत के इस वयोवृद्ध नेता ने जो माँग की थी, उसकी बहुत कुछ पूर्ति का आश्वासन मिल गया।

तो पंडित माखनलाल चतुर्वेदी (4 अप्रैल 1889-30 जनवरी 1968) भारत के ख्यातिप्राप्त कवि, लेखक और पत्रकार थे, जिनकी रचनाएँ अत्यंत लोकप्रिय हुईं। सरल भाषा और ओजपूर्ण भावनाओं के वे अनूठे हिंदी रचनाकार थे। वे सच्चे देशप्रेमी थे और 1921-22 के असहयोग आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग लेते हुए जेल भी गए। उनकी कविताओं में देशप्रेम के साथ-साथ प्रकृति और प्रेम का भी चित्रण हुआ है, इसलिए वे सच्चे अर्थों में युग-चारण माने जाते हैं। माखनलाल चतुर्वेदी का जन्म मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जिले में बाबई (अब माखनलाल नगर) नामक स्थान पर हुआ था। प्राथमिक शिक्षा के बाद घर पर ही इन्होंने संस्कृत, बांग्ला, अंग्रेजी, गुजराती आदि भाषाओं का ज्ञान प्राप्त किया। वह मात्र 16 वर्ष की आयु में शिक्षक बन गए।माखनलाल चतुर्वेदी का तत्कालीन राष्ट्रीय परिदृश्य और घटनाचक्र ऐसा था जब लोकमान्य तिलक का उद्घोष- ‘स्वतंत्रता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है’ बलिपंथियों का प्रेरणास्रोत बन चुका था। दक्षिण अफ्रीका में सत्याग्रह के अमोघ अस्त्र का सफल प्रयोग कर कर्मवीर मोहनदास करमचंद गाँधी का राष्ट्रीय परिदृश्य के केंद्र में आगमन हो चुका था।

आर्थिक स्वतंत्रता के लिए स्वदेशी का मार्ग चुना गया था, सामाजिक सुधार के अभियान गतिशील थे और राजनीतिक चेतना स्वतंत्रता की चाह के रूप में सर्वोच्च प्राथमिकता बन गई थी। ऐसे समय में माधवराव सप्रे के ‘हिंदी केसरी’ ने सन 1908 में ‘राष्ट्रीय आंदोलन और बहिष्कार’ विषय पर निबंध प्रतियोगिता का आयोजन किया। खंडवा के युवा अध्यापक माखनलाल चतुर्वेदी का निबंध प्रथम चुना गया। अप्रैल 1913 में खंडवा के हिंदी सेवी कालूराम गंगराड़े ने मासिक पत्रिका ‘प्रभा’ का प्रकाशन आरंभ किया, जिसके संपादन का दायित्व माखनलालजी को सौंपा गया। सितंबर 1913 में उन्होंने अध्यापक की नौकरी छोड़ दी और पूरी तरह पत्रकारिता, साहित्य और राष्ट्रीय आंदोलन के लिए समर्पित हो गए। इसी वर्ष कानपुर से गणेश शंकर विद्यार्थी ने ‘प्रताप’ का संपादन-प्रकाशन आरंभ किया। 1916 के लखनऊ कांग्रेस अधिवेशन के दौरान माखनलालजी ने विद्यार्थीजी के साथ मैथिलीशरण गुप्त और महात्मा गाँधी से मुलाकात की। महात्मा गाँधी द्वारा आहूत सन 1920 के ‘असहयोग आंदोलन’ में महाकौशल अंचल से पहली गिरफ्तारी देने वाले माखनलालजी ही थे। सन 1930 के सविनय अवज्ञा आंदोलन में भी उन्हें गिरफ्तारी देने का प्रथम सम्मान मिला। उनके महान कृतित्व के तीन आयाम हैं : एक, पत्रकारिता- ‘प्रभा’, ‘कर्मवीर’ और ‘प्रताप’ का संपादन। दो- माखनलालजी की कविताएँ, निबंध, नाटक और कहानी। तीन- माखनलालजी के अभिभाषण/ व्याख्यान।

1943 में उस समय का हिन्दी साहित्य का सबसे बड़ा ‘देव पुरस्कार’ माखनलालजी को ‘हिम किरीटिनी’ पर दिया गया था। 1954 में साहित्य अकादमी पुरस्कार की स्थापना होने पर हिंदी साहित्य के लिए प्रथम पुरस्कार दादा को ‘हिमतरंगिनी’ के लिए प्रदान किया गया। ‘पुष्प की अभिलाषा’ और ‘अमर राष्ट्र’ जैसी ओजस्वी रचनाओं के रचयिता इस महाकवि के कृतित्व को सागर विश्वविद्यालय ने 1959 में डी.लिट्. की मानद उपाधि से विभूषित किया। 1963 में भारत सरकार ने ‘पद्मभूषण’ से अलंकृत किया। 10 सितंबर 1967 को राजभाषा हिंदी पर आघात करने वाले राजभाषा संविधान संशोधन विधेयक के विरोध में माखनलालजी ने यह अलंकरण लौटा दिया। 16-17 जनवरी 1965 को मध्यप्रदेश शासन की ओर से खंडवा में ‘एक भारतीय आत्मा’ माखनलाल चतुर्वेदी के नागरिक सम्मान समारोह का आयोजन किया गया। तत्कालीन राज्यपाल श्री हरि विनायक पाटसकर और मुख्यमंत्री पं॰ द्वारकाप्रसाद मिश्र तथा हिंदी के अग्रगण्य साहित्यकार-पत्रकार इस गरिमामय समारोह में उपस्थित थे। भोपाल का माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय उन्हीं के नाम पर स्थापित किया गया है।

दादा भाई नौरोजी और पंडित माखनलाल चतुर्वेदी जैसे संघर्ष के नायक ही हमारी वह धरोहर हैं, जिनकी वजह से हम आजाद गगन में उड़ पा रहे हैं तो हरी भरी धरती पर खुली हवा में सांस ले पा रहे हैं। अब यह बोझ हमारे कंधों पर है कि हमारे देश की हवा जहरीली न हो पाए और हमारी अगली पीढ़ियां गर्व से कह सकें कि हां हम भारतवासी हैं…।