IAS Saw Innocence of Tribals : बजरी प्रतीक है आदिवासियों के संतोषी स्वभाव की!

इस परिवार के पास कुछ नहीं, पर उन्हें कुछ चाहिए भी नहीं!- अभय बेडेकर

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IAS Saw Innocence of Tribals : बजरी प्रतीक है आदिवासियों के संतोषी स्वभाव की!

Alirajpur : आदिवासियों को लेकर मैंने अभी तक जो कुछ सुना था उसे बजरी ने बिल्कुल बदल दिया। मैं ये तो जानता था कि आदिवासी समुदाय बेहद सीधा-साधा और सहज होता है। उसकी जरूरतें बेहद सीमित होती है और उनकी कोई चाह नहीं होती! लेकिन, बजरी पति केर सिंह से मिलकर लगा कि आदिवासियों जैसा संतोषी समुदाय शायद ही कोई हो सकता है।

प्राणदायिनी माँ नर्मदा नदी की गोद में स्थित आदिवासी बहुल जिले अलीराजपुर के सोंडवा ब्लॉक की ककराना पंचायत के पेरियोत्तर फलिया के इस परिवार से मिलकर जमीन के प्रति उनका जो लगाव देखा वो अतुलनीय है। जिला मुख्यालय से करीब 50-55 किलोमीटर दूर की ककराना पंचायत मां नर्मदा की गोद में बसी है। इस पंचायत के आठ फलियों में से एक है ‘पेरियोत्तर फलिया।

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ये सरदार सरोवर के डूब क्षेत्र में आने वाले गांव का एक फलिया है। जब ये फलिया डूब में आया तो सरकार ने जमीन मालिकों को मुआवजा दिया। बजरी के ससुर तूर सिंह को भी 5 एकड़ ज़मीन गुजरात में दी गई। पर, आदिवासियों का ज़मीन से प्रेम इतना प्रगाढ़ होता है कि सारी कठिनाइयों के बाद भी वे अपनी ज़मीन छोड़कर जाना नहीं चाहते … बजरी के ससुर भी नहीं गए।

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तूर सिंह खांटी आदिवासी है। उनके 8 बेटे और बेटियां हैं। जब मैंने उनसे पूछा ’10 बच्चे हैं आपके, फिर राशन कार्ड में तो सिर्फ़ 2 बच्चों साय सिंह और भाय सिंह के ही नाम ही क्यों लिखवाए! उसने मासूमियत से जवाब दिया ‘सिर्फ़ ये दोनो ही मेरे साथ रहते है!’ मेरा अगला सवाल था ‘बाक़ी?’ तूर सिंह का जवाब था ‘बाक़ी ने अपने घर अलग बना लिए!’

मुझे ये भी लगा कि आज से 20-25 साल पहले बच्चों के बचने की प्रत्याशा कम होने से शायद आदिवासी ज्यादा बच्चे पैदा करते होंगे?

जल, जंगल और ज़मीन से जैसे आदिवासी जुड़े हैं, वैसे शायद ही कोई और जुड़ सकता है! आप उनसे उनके प्राण मांग सकते हो, पर ज़मीन नहीं। आदिवासियों की जमीन ज़बरदस्ती लेना उनके प्राण लेने जैसा है।

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… हम बात कर रहे थे बजरी की।

पेरियोत्तर फलिया में एक 10×10 के मिट्टी के घर (झोपड़े) में बजरी अपने पति केर सिंह और 3 बेटियों के साथ रहती है। उस मिट्टी के घर में न बिजली है, न सोने के लिए कोई पलंग और न कोई कुर्सी या मेज़!

न अनाज रखने के कोई कोठार हैं, न ज्यादा बर्तन है न गैस कनेक्शन!

ओह … जीवन क्या इतना कठिन भी हो सकता है। … पर बजरी का तो है।

फिर भी लगा कि जैसे बजरी कह रही हो ‘तुझसे नाराज़ नहीं ज़िंदगी …।’ जीवेत: शरदं शतम।

बजरी की उम्र कोई 27-28 साल होगी और जीवन के इतने कठिन दिन उसने देख लिए या देख रही है कि हमें सोच के भी घबरा जाएं।

सोंडवा तहसील से लगभग 5 किमी बाद नर्मदा के बैक वॉटर में से नाव से होते हुए करीब 5 किमी और चलकर वो पहाड़ी आती है, जिस पर बजरी का घरौंदा बना है। मतलब कि यदि किसी काम से उन्हें मेन लैंड पर जाना पड़े, तो वो कठिन टास्क से कम नहीं है। जाने के पैसे तो लगते ही हैं, पर जो कष्ट होता होगा, वो भी अतुलनीय हैं।

पहाड़ी से उतरो, नाव पकड़ो और उफनती नदी पार करो। फिर धरती पर पहुंचो। … फिर वहाँ से पैदल 5 किमी है तहसील ऑफ़िस। काम होगा या नहीं ये कोई नहीं जानता। वहां डेटा और सिग्नल भी नहीं मिलते। फिर काम कैसे हो! पर हिम्मत है, जिजीविषा है, ज़मीन से प्यार है और हम रह रहे हैं ‘सभी आदिवासियों को जोहार है।’

हम थोड़ा पढ़-लिखकर सबसे पहले अपनी जमीन, अपने देश और अपना घर छोड़कर बाहर जाकर सेटल होने के लिए तैयार रहते हैं। पर आदिवासी अपने पुरखों की जमीन को छोड़कर कहीं जाना नहीं चाहता।

‘जहां हमारे बाप-दादा सो रहे हैं, उस ज़मीन में ही एक दिन हम भी सो जाएंगे।’ यही कहा तूर सिंह ने।

क्या पढ़ लिख जाने से ये भावना ख़त्म हो जाती है? मैं सोच में पड़ गया। उनकी कष्ट सहने की ताकत, हिम्मत और उसके बावजूद भी किसी के प्रति कोई दुर्भावना नहीं, कोई शिकायत नहीं, शासन के प्रति अपशब्द नहीं और न प्रशासन के लिए कोई अल्टीमेटम!

किस मिट्टी के बने हैं ये हमारे भाई बहन। जिन्हें न तो कोई अपेक्षा है और न कोई शिकायत!

जब मैंने बजरी और केर सिंह से पूछा कि तुमको क्या चाहिए!’

कोई मांग ही नहीं उनकी। सड़क, पानी, बिजली जैसी मांग तो दूर … पर जीवन से जुड़ी खाद्यान्न या दवाई की मांग तक नहीं।

क्या सच में इतना संतोषी भी हो सकता है!

 

जिले के कलेक्टर के नजरिए से सोचकर मैं बजरी और उसके परिवार से मिलने अलीराजपुर के सभी प्रशासनिक अधिकारियों को लेकर पेरियोत्तर फलिया गया। प्रशासन के सभी विभागों के अधिकारी हमारे साथ थे, इसलिए हमने बजरी व उसके पति का गरीबी रेखा कार्ड, आयुष्मान कार्ड, राशन के लिए पात्रता पर्ची सब बनवा दी। शासन की सभी योजनाओं का लाभ उन्हें मिले, ये हमारी ज़िम्मेदारी है और हम आदिवासियों तक सभी सुविधाओं को पहुंचाकर रहेंगे।

समाज की अंतिम पंक्ति में खड़े अंतिम व्यक्ति का जब उद्धार होगा, तभी वास्तविक ‘अंत्योदय’ होगा।

यही हमारा ध्येय है, संकल्प भी और कर्तव्य भी!