Netflix Movie: The Railwaymen के बहाने फिर याद आई दर्द की दास्तां ‘सवाल आज भी जिंदा हैं
भोपाल गैस त्रासदी की बरसी पर स्वाति तिवारी की विशेष रिपोर्ट
कल एक बार फिर जैसे मैं भोपाल की उन गलियों में घूम रही थी जैसे “सवाल आज भी जिन्दा हैं” पुस्तक लिखने के पहले इन गलियों में थी और लिखते हुए उस हादसे को घटते हुए महसूस कर रही थी. कहानी तो जैसे कंठस्थ सी है और पात्र अपने ही आसपास के, जिन्हें मैं व्यक्तिगत रूप से भी जानती हूँ. दरअसल मैं नेटफ्लिक्स पर ‘द रेलवेमैन’ फिल्म देख रही थी. यूनियन कार्बाइड और मिथाइल आइसोसाइनेट को अपनी किताब के पन्नों में उतारते हुए जिस दर्द पीड़ा से गुजरी थी. इस बार फिर सब कुछ जैसे परदे पर हो रहा था।
विधवा कालोनी हो या स्टेशन मास्टर की वह प्रतिमा सब कुछ जैसे मेरे लिए एक बार फिर उस हादसे के बीच रहना ही रहा जो उस समय जैसे अन्दर तक उतरा हुआ था।
फिल्म द रेलवेमैन केवल उस दिन भोपाल स्टेशन पर घटित हादसे पर केन्द्रित है जहाँ चार लोग हैं, जो भोपाल रेलवे स्टेशन पर अलग-अलग काम कर रहे हैं। कोई वर्दी में है तो किसी को रेलवे में नई-नई नौकरी मिली है। कार्बाइड फैक्ट्री के पास लगी बस्ती में एक विवाह समारोह है, जहाँ बाजे गाजे के साथ बारात आ रही है, हर तरफ खुशी का माहौल है। तभी एक हादसा होता है। एक फैक्ट्री में गैस रिसने लगती है। वो गैस हवा में घुल जाती है। कोई सांस लेते ही मौत की आगोश में चला जाता है तो किसी का दम घुटने लगता है। दूल्हा और सफ़ेद घोड़ा तक सब मर जाते हैं।
ये घटनाएँ केवल काल्पनिक कथा नहीं, भोपाल में घटा एक कड़वा सत्य है. आज भी भोपाल गैस त्रासदी का प्रभाव पूरे भोपाल में देखा जा सकता है। इतना बड़ा औद्योगिक हादसा विश्व के इतिहास में पहली बार हुआ था। भोपाल स्थित यूनियन कार्बाइड पेस्टिसाइड प्लांट में से लगभग तीस टन मिथाइल आइसोसाइनेट गैस निकली और पूरे शहर में फ़ैल गयी।
1984 में भोपाल में हुई गैस त्रासदी पर बनी वेबसीरीज ‘द रेलवेमैन’ भी अपनी ड्यूटी को पूरा करने वाले रेलवेकर्मियों की कहानी है, जहां भोपाल जंक्शन के स्टेशन मास्टर और उसके कुछ साथी यूनियन कार्बाइड प्लांट से जहरीली गैस लीक होने के बाद भोपाल स्टेशन पर मौजूद लोगों की सुरक्षा के लिए अपनी जान पर खेल कर दूसरों की जान बचाते हैं। ऐसा ही एक अनसुना नाम है ग़ुलाम दस्तगीर का, एक स्टेशन मास्टर जिन्होंने उस भयानक रात को लाखों लोगों की ज़िन्दगी बचाई। अगर ग़ुलाम उस दिन अपनी सूझ-बूझ न दिखाते, तो शायद परिणाम और भी भयंकर हो सकते थे। जब चारों तरफ हाहाकार हो, जीवन पानी के बुदबुदे सा दिखाई दे रहा हो, तब जाहिर है यह आसान नहीं था, लेकिन इसमें तत्कालीन उत्तर रेलवे के जीएम ने भी तमाम ऊपरी आदेशों को दरकिनार करते हुए भोपालवासी को राहत पहुंचाने का काम किया था।
नेटफ्लिक्स पर रिलीज हुई वाइआरएफ एंटरटेनमेंट की वेबसीरीज ‘द रेलवे मैन’ भोपाल में दो-तीन दिसंबर 1984 की दरमियानी रात को हुए हादसे के समय भारतीय रेल, भोपाल मंडल के कर्मचारियों द्वारा प्रदर्शित असाधारण वीरता की कहानी है। गैस रिसाव की भयावह रात में हवा में एक अदृश्य दुश्मन से लड़ते हुए अपने शहर और यात्रा कर रहे नागरिकों को बचाने के लिए सभी बाधाओं के बावजूद ये कर्मचारी वहीं डटे हुए थे। सच्ची कहानियों से प्रेरित यह मनोरंजक सीरीज मानवता की अदम्य भावना की अनूठी कथा है जो कभी ख़त्म नहीं होती।
ड्यूटी या फर्ज क्या होता है, बेरहम हुए हालात में भी मानवीय संवेदना के उस गहरे अहसास की कहानी है, द रेलवे मैन, जिसे सम्पूर्ण संप्रेषण के साथ फिल्माया गया है. दर्द की यह दास्ताँ द रेलवेमैन बड़ी खूबसूरती से यह कह पाने में सफल होती है। भोपाल जंक्शन के स्टेशन मास्टर बने केके मेनन ने हमेशा की तरह बेहतरीन किरदार निभाया है। उन्होंने फिल्म में जान डाल दी है मौत के मंजर में. रेलवेकर्मी बने बाबिल खान भी प्रभावित करते हैं।
भोपाल स्टेशन के प्लेटफॉर्म नंबर एक पर उन सभी की याद में एक मेमोरियल बनाया गया है जिन्होंने उस दिन अपनी ड्यूटी निभाते हुए अपनी जान गंवा दी थी। लेकिन इस मेमोरियल में ग़ुलाम दस्तगीर का नाम नहीं है, जिनकी मौत बाद में हुई। यह वेब सीरिज इन्हें ही समर्पित कही जा सकती है. यह किरदार केके मेनन ने जीवंत कर दिया. वे इस भूमिका को करते हुए, कहीं भी अदाकार नहीं लगे बल्कि सच्चा किरदार लगे हैं. इस अनसुने नायक की कथा सबको जाननी चाहिए जिसने अपनी परवाह किए बिना अनगिनत जीवन बचाए और यह वेब सीरिज इस कथा को शब्द शब्द उतारने में सफल हुई है.
नेटफ्लिक्स पर द रेलवेमैन बहुत मार्मिक और सांस रोक कर देखी जाने वाली एक सत्य कथा वेब सीरीज़ है। 1984 की भोपाल गैस त्रासदी पर केंद्रित यह वेब सीरीज भोपाल में यूनियन कार्बाइड में हुए जानलेवा गैस रिसाव के बाद बचाव और राहत के काम में कूद पड़े कुछ रेलवे कर्मचारियों और अन्य लोगों की जांबाज़ी की कहानी कहती है। 39 साल पहले हुए भोपाल गैस रिसाव हादसे में एक अनुमान के मुताबिक 15 हजार लोग मारे गये थे। चार एपिसोड की इस वेब सीरीज में आर माधवन, के के मेनन, दिव्येंदु शर्मा और बाबिल खान ने बहुत अच्छा काम किया है। उनके अलावा जूही चावला, रघुवीर यादव, मंदिरा बेदी, दिव्येंदु भट्टाचार्य, सनी हिंदुजा भी महत्वपूर्ण भूमिकाओं में हैं। के के मेनन का काम खासतौर पर कमाल का है। चार लंबी कड़ियों की इस वेब सीरीज के निर्माता हैं यश राज फिल्म्स। इस वेब सीरीज का निर्देशन राहुल रवैल के बेटे शिव रवैल ने किया है।
फिल्म देख कर थोड़ी सी कमी लगी, फिल्म के एक पात्र जो सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण थे उनके फिल्मांकन और उनके कार्य को उस तरह रेखांकित नहीं कर पायी जैसा और जितना उनके काम था. यह किरदार है सुप्रसिद्ध पत्रकार स्वर्गीय राजकुमार केसवानी का. 17 सितंबर, 1982 को भोपाल से निकलने वाले एक स्थानीय अखबार में एक लेख छपा. शीर्षक था- “कृपया हमारे शहर को बख्शें.” लेख लिखा था 32 साल के युवा पत्रकार राजकुमार केसवानी ने. उस लेख में अनेकों प्रमाणों और उदाहरणों के साथ केसवानी ने लिखा था कि यूनियन कार्बाइड फैक्ट्री एक दिन बड़ी आपराधिक आपदा की वजह बन सकती है और यह कोई असंभव कल्पना नहीं है. सारे तथ्य इस ओर इशारा कर रहे हैं कि यह आशंका किसी भी दिन सच हो सकती है. उन्होंने एक और लेख लिखा- “भोपाल: हम एक ज्वालामुखी पर बैठे हैं.” 10 सितंबर, 1982 को रपट साप्ताहिक के मुख्य पन्ने पर छपे इस लेख में उन्होंने लिखा, “वह दिन दूर नहीं, जब भोपाल एक मृत शहर होगा. तब सिर्फ बिखरे हुए पत्थर और मलबा ही इस त्रासद अंत के गवाह होंगे.” भोपाल के इस युवा पत्रकार ने शहर और सरकार को बार बार अलर्ट किया था, पर नतीजा ढाक के तीन पात ही रहा, और एक दिन भोपाल में वह सब घटित हो ही गया जिसको लेकर केसवानी अपनी कलम के माध्यम से बार बार अलर्ट कर रहे थे. उनके किरदार को कुछ और हाई लाईट किया जाना चाहिए था जैसा कि वे डिजर्व करते थे. फिर सूत्रों से ज्ञात हुआ है कि किरदारों के परिवारों से अनुमति भी नहीं ली गई. प्राप्त जानकारी अनुसार स्वर्गीय केसवानी जी की पत्नी श्रीमती सुनीता केसवानी से फिल्म मेकर्स ने उनसे पूरी जानकारी तो ली लेकिन नाम देने से इनकार कर दिया था तो केसवानी परिवार ने इसकी सहमति नहीं दी थी. हालांकि फिल्म के अंत में श्री केसवानी जी के फोटो के साथ उनका परिचय दिया गया है.
यूनियन कार्बाइड फैक्ट्री में काम करने वाले केसवानी के एक अजीज दोस्त मोहम्मद अशरफ की एक हादसे में मौत हो गई. एक रात जहरीली गैस फॉसजीन के पाइप में हुआ एक लीक ठीक करते वक्त उसकी कुछ बूंदें अशरफ पर पड़ीं. बस वो चंद बूंदें काफी थीं एक हंसते-खेलते नौजवान की जान लेने के लिए. अपने दोस्त की मौत के लिए गमगीन केसवानी जी ने दिन-रात जहर उगलने वाली इस फैक्ट्री के खिलाफ लिखा पर अफसोस कि वह सरकारों को समझ नहीं आया था. यह वेब सीरीज इस तरह चार नहीं पांच गुमनाम नायकों की कहानी है. इस विषय में शादाब दस्तगीर ने कहा कि मेरे पिता ने कई लोगों की जान बचाई थी। लेकिन पिछले चार दशक में उन्हें कोई सम्मान नहीं दिया गया। अब जब इस पर फिल्म बनी तो हमसे किसी ने संपर्क कर यह जानने की कोशिश नहीं की कि वास्तव में क्या हुआ था। शादाब के अनुसार ‘द रेलवे मैन’ में केके मेनन का किरदार मेरे पिता की कहानी पर आधारित है।
वेब सीरीज के इन जांबाज नायकों के साथ उन खलनायकों को भी थोड़ा सा दिखाया जाना चाहिए था जो कार्बाइड के सत्य को छुपाने या अपराधी को भगाने, या फैक्ट्री की अनुमति देने में कामयाब हुए थे. एक रात, एक रेलवे स्टेशन की बात कहते हुए भी यह शहर भर के कार्बाइड के दर्द को कहने में सफल कही जा सकती है.
भोपाल के जख्म अभी भी भरे नहीं हैं, और शायद कभी नहीं भरेंगे, यह बात मुझे भी उन लोगों के बीच जाकर उनकी पीड़ा को लिखने के दौरान ही समझ आ गई थी और जख्म बहुत गहरे नासूर हैं. यह मैंने अपने अगले लेखन के लिए किए गए काम के साथ महसूस किया कि अभी भी भोपाल गैस त्रासदी के कई पहलू और किरदार अनछुए और गुमनाम हैं.
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