MP Assembly Election-2023: मध्य प्रदेश के मन में मोदी+जननायक शिवराज+लाड़ली बहना+राष्ट्रवाद=प्रचंड बहुमत
रमण रावल का राजनीतिक विश्लेषण
मध्यप्रदेश में भारतीय जनता पार्टी की जीत पर यूं तो कभी संदेह था ही नहीं, मसला बस इतना था कि सीटें 140 के कितने ऊपर जायेंगी। यदि राजनीतिक विश्लेषक थोड़ा अतीत में झांकेंगे तो उन्हें साफ नजर आयेगा कि भाजपा के प्रादेशिक और राष्ट्रीय नेतृत्व ने प्रारंभ से ही लक्ष्य रखा था-इस बार डेढ़ सौ पार। तब से ही संगठन ने अपनी तैयारियों को उसी तरह से आकार दिया। एक और जो बात मायने रखती है, वह यह कि राजस्थान और छत्तीसगढ़ में भी यदि भाजपा ने सत्ता में वापसी की है तो इसका बेहद साफ मतलब और संदेश यह है कि इन तीनों राज्यों की जनता ने कांग्रेस को खारिज कर दिया है।
चूंकि मप्र की प्रचंड जीत का श्रेय लाड़ली बहना को दें तो राजस्थान, छत्तीसगढ़ में तो यह योजना नहीं थी, तब भी वहां सरकार तो भाजपा की ही बन रही है। याने मोदी वहां की जनता के मन में भी बसे हैं। बेशक मप्र में भी सरकार भाजपा की ही बनती, लेकिन यदि लाड़ली बहना योजना न होती तब बहुमत का आंकड़ा 120 से 130 के बीच ही रहता । बहरहाल।
इस तरह से भाजपा ने 2018 में हारे तीनों प्रांतों पर अपनी पताका फहरा दी है। भले ही मप्र करीब डेढ़ साल बाद हासिल कर लिया था, लेकिन वह मैदानी लड़ाई की जीत नहीं थी।
इसके साथ ही जो पहला और प्रबल सवाल हिलोरे ले रहा है कि मप्र में मुख्यमंत्री कौन बनेगा? तो मेरा स्पष्ट तौर पर मानना है कि वे शिवराज सिंह चौहान ही होंगे। किसी विकल्प की ओर देखने की जरूरत अभी तो नहीं है। इस मसले पर गौर करना हुआ भी तो मई 2024 में लोकसभा चुनाव निपट जाने के बाद। भाजपा का राष्ट्रीय नेतृत्व भली प्रकार जानता है कि डेढ़ सौ पार निकाल ले जाने में शिवराज सिंह चौहान का भी उल्लेखनीय योगदान है। वे मप्र के निर्विवाद भाजपा नेता के तौर पर स्थापित हो चुके हैं।
एक बार संक्षेप में फिर से उन मुद्दों को याद कर लेते हैं कि आखिरकार मप्र में भाजपा इतनी अधिक सीटें कैसे ले आईं? तो मेरा आकलन अब भी वही है- लाड़ली बहना, मप्र के मन में मोदी, प्रदेश के चप्पे-चप्पे तक शिवराज की पहुंच, राष्ट्रवाद और छह महीने बाद ही होने जा रहे लोकसभा चुनाव, जिसमें डबल इंजिन सरकार का मानस भी प्रमुख था। इसके अलावा कांग्रेस की तमाम हरकतें भी भाजपा का जनाधार बढ़ाते जाने में सहायक रहता ही है। कांग्रेस जितना तुष्टिकरण, जातिवाद और गांधी परिवारवाद पर अवलंबित रहेगी, वह उतना ही अब एक बड़े वर्ग के समर्थन से वंचित रहेगी। जितना जल्दी वह इस बात को समझ लेगी, उतनी ही वह सहानुभूति पा सकती है, वरना तो बंटाढार है ही।
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अब याद करें कि किस तरह से तकरीबन एक साल से प्रदेश में भाजपा सरकार के प्रति एंटी इंकबेंसी (सरकार विरोधी लहर) की रट लगाई जा रही थी। यह कांग्रेस की पहली ब़डी रणनीतिक चूक थी। कुछ ऐसे कि वह यह मान बैठी कि शिवराज सरकार विरोधी हवा उसे विजयश्री दे देगी। जबकि वह तो एक झोंके बराबर भी नहीं था। फिर प्रदेश के दो दिग्गज कमलनाथ-दिग्विजय सिंह के बीच तालमेल कमतर होकर अविश्वास की हद तक पहुंच गया। बचे जो दूसरे क्षेत्रीय नेता थे, वे जनाधार न होते हुए भी टिकट वितरण में अड़ंगेबाजी करते रहे, जिससे टिकटों की घोषणा में देर होती रही। कांग्रेस आलाकमान ने इसमें बड़ी-सी कील तब ठोंक दी, जब उसने कमलनाथ विरोधी नेताओं के हाथ में चुनाव संचालन की अलग-अलग जिम्मेदारियां सौंप दीं।
गौर कीजिये कि छह माह पहले कांग्रेस संभली,सजग और आगे बढ़ती नजर आ रही थी, जबकि मतदान की तिथि नजदीक आते-आते वह हाशिये पर सिमटती चली गई। पहले तो स्क्रूटनी कमेटी बनाकर भंवर जितेंद्र सिंह व दो अन्य को भेज दिया गया। फिर रणदीप सूरजेवाला जैसे जनाधारविहीन नेता तो मप्र का प्रभारी बना दिया। रही-सही कसर पूरी कर दी चुनाव संचालन समिति में प्रदेश भर के खारिज नेताओं को बिठाकर। इसके बाद कांग्रेस बिखरने लगी और अंतत: उसे भाजपाई हवा ले उड़ी।
दूसरी तरफ भाजपा उतरोत्तर मजबूत होती गई। संगठन ने सारे गलियारे बंद किये। मोदी-शाह ने मोर्चा संभाला। शिवराज दुगने जोश से भिड़ गये। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने मैदान पकड़ लिया। मुद्दविहीन कांग्रेस ऐसा कोई तुरुप का पत्ता चल ही नहीं पाई, जो मप्र की जनता का ध्यान आकर्षित कर सके। उसके खिलाफ हिंदू या बहुसंख्यक विरोधी होने की जो छाप अमिट होती जा रही है,उसे धोने का कोई जतन तो वह करती नहीं, उलटे अपने दुराग्रह से ज्यादी चिपक जाती है। इस बीच कांग्रेस ने अपनी सरकार आने पर जातिगत जनगणना का हल्ला बोल कर अपने ताबूत में एक मोटी कील और ठोंक दी।
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कांग्रेस और काफी हाउस में शाब्दिक जुगाली करने वाले शिवराज को बेहद हलके में लेते रहे, जबकि वे मप्र के हाल-फिलहाल एकमात्र ऐसे नेता हैं, जो ठेठ सुदूर के इलाके तक अपनी पैठ-पहचान बना चुके हैं। लाड़ली बहना,लाड़ली लक्ष्मी, लेपटॉप, साइकिल, स्कूटी के जरिये वे युवा और प्रौढ़ से लेकर तो मजदूर वर्ग तक से अटूट रिश्ता बना चुके हैं, जिसे कोई समझ ही नहीं पाया। इसीलिये इस बेहतरीन जीत के बाद उसका सुखद व अनुकूल प्रतिफल पाने के वे पूरी तरह से अधिकारी भी हैं। किसी अन्य की ताजपोशी कर भाजपा नेतृत्व बैठे-ठाले किसी असंतोष को बढ़ावा भला क्यों देने लगा। मप्र,राजस्थान,छत्तीसगढ़ की जीत से उत्साहित भाजपा का राष्ट्रीय नेतृत्व अब लोकसभा चुनाव 400 पार के लक्ष्य के साथ लड़ने की रणनीति पर ध्यान देगा।