Kashi Corridor: लीडरशिप की लंबी लाइन
काशी विश्वनाथ भारत की बेपटरी आजादी को पटरी पर लाने का एक ताजा प्रतीक हैं। आजादी की एक्सप्रेस अब तक उलट दिशा में अपने चिन्हित हितग्राहियों के हित में ही दौड़ रही थी। उसका मुंह सीधा कर दिया गया है।
ऊर्जा से भरे इस बदलाव के निमित्त हमारे समकालीन जो भी लीडर बने हों, लेकिन भारत की राजनीति में लीडरशिप की एक नई लाइन खिंच गई है। अब केवल खाने-कमाने, अपने चमचों-चापलूसों को ऊंचे पदों से नवाजने, अपने बीवी-बच्चों काे सत्ता पर लादने, कोरे भाषणों और जोड़तोड़ से जमे रहने, सबको खुश करके आगे चलने के जमाने लद गए हैं।
ऐसी सोच के लीडर अब एक्सपायरी डेट की दवाई की तरह कूड़ेदान में फिंका जाएंगे। अब कठाेर निर्णय लेने वाले लीडर ही चलेंगे, जिनके भ्रूण, अंडे और बच्चे कुर्सियों से दूर हों। जिन्हें भारत की चिंता हो, जिन्हें भारत के भोगे हुए अकथनीय कष्टों का अहसास हो। जिनके इरादे शातिर नहीं, साफ हों और जो कहने में कम और करने में ज्यादा यकीन रखते हुए समय सीमा में पूरे दमखम से वह करके दिखाएं, जो आम लोगों की सोच के परे हो।
जैसे काशी विश्वनाथ कॉरिडोर…
वाराणसी में विश्वनाथ कॉरिडोर (Kashi Corridor) को लेकर कहीं खुशी के आंसू बहे हैं तो कहीं सत्ता से दूरी और बढ़ने के गम ने हैरान किया हुआ है। असली-नकली का फर्क बिल्कुल ब्लैक एंड व्हाइट है। कोई किंतु-परंतु नहीं है। आैरंगजेब है तो है। शिवाजी भी हैं। देवी अहिल्या भी हैं। और बनारस वही है। वहीं का वहीं है। एक हजार साल की गुलामी की जानलेवा घुटन उतनी घातक नहीं थी, जितने भारी आजादी के बाद के ये सेक्युलर साल बीते।
अंग्रेजों के हाथों सत्ता के हस्तांतरण को लाल किले पर सफेद शेरवानी में सुर्ख गुलाब खोंसकर आजादी घोषित करने वाले भारत को बहुत सस्ता और सत्ता को कुछ ज्यादा ही गंभीर समझ रहे थे। उनके लिए मुल्क का बटवारा सीटों के बटवारे जैसा ही आसान था।
वे बटवारे के समय मचे खून-खराबे में भी खुशी-खुशी शपथ को ग्रहण करके पचाकर प्रसन्न हो सकते थे। वो उनका समय था। वो उनके बुलंद सितारों का समय था। वे अपने हिस्से का राजयोग भोगने के लिए ही सत्ता के आनंद भवन में आए थे। उन्होंने जड़ें इतनी गहरी फैलाईं कि चार पीढ़ियां सत्ता की खुरचन खाकर सियासी अनुकंपा नियुक्ति की आस लगा रह सकें।
मैं 2010 से 2014 के बीच पांच साल तक लगातार आठ बार पूरा भारत घूमा हूं। अयोध्या, मथुरा, इलाहाबाद और बनारस आठ से दस-दस बार गया होऊंगा। मुझे कहीं किसी गली में किसी भी मंदिर और घाट पर जाकर नहीं लगा कि देश आजाद हो चुका है।
भारत की आत्मा के अनुभव से कंपित इन प्राचीन नगरों में हर तरह की बदहाली चरम पर थी। बाबा विश्वनाथ की तरफ जाती गलियों में मीट-मटन की दुकानें कराची और लाहौर का अहसास कराती थीं। घाटों को छूकर गुजरती गंदी गंगा की कराहें सुनी थीं। राम न्यायालय की फाइलों में लंबित थे। हमने जालीदार टोपियों को मुकुट की तरह सजाए मुसलमानों से ज्यादा हिंदू नेताओं को रोजा-इफ्तारी में देखा था। रमजान न हुआ, अघोषित राष्ट्रीय पर्व ही हो गई।
उत्तरप्रदेश के शहरों में घूमते हुए हमने आए दिन के बयानों में आजम खां के कड़वे बादशाही तेवर देखे। मुख्तार अंसारी की ठसक किसे याद नहीं है। अतीक अहमद के घर चुनावी रौनक ईद जैसी ही हुआ करती थी। सैफई के सुलतानों को कब्रस्तानों की रखवाली के लिए खजाने खाेलने और आतंकी गतिविधियों में बंद युवाओं को बाइज्जत वापस लाने की घोषणा करते हुए लखनऊ के उनके ही दफ्तर में सुना था। सेक्युलर राजनीति के ये ऐसे घृणित प्रदर्शन थे, जिनकी परिणति यही निश्चित थी।
और तब हर बार मन में यह सवाल आता था कि यह देश आजाद अगर हुआ भी तो किसके लिए?
बटवारे के साथ ही देश का एक बड़ा हिस्सा और बड़ी हिंदू आबादी हड़प चुकी मजहबी ताकतें पाकिस्तान में जितने जोर भी थीं, उत्तरप्रदेश में उनकी फसलें उससे ज्यादा लहलहा रही थीं।
मैं सोचता था कि जवाहरलाल नेहरू के आगे पंडित क्यों लगाकर किसकी आंखों में धूल झोंकी जाती है? वे कैसे पंडित थे कि अपने उत्तरप्रदेश में उन्हें न राम की सुध थी, न कृष्ण की, न विश्वनाथ की, न गंगा की, न प्रयागराज की? वे तो गुजरात में सोमनाथ की साफ-सफाई तक से चिढ़े थे।
उन पर सफेद शेरवानी बिल्कुल शोभा नहीं देती थी, लेकिन वे लोकतंत्र की शोभा थे क्योंकि उनकी शोभायात्रा स्वतंत्रता के संघर्ष से होकर टॉप गियर में फर्राटे से ऐसी निकली कि उस संघर्ष के वास्तविक बलिदानी हैरत से भरकर हाशिए पर ही जा दुबके थे।
वे सिर्फ बुलंद सितारों की चैकबुक पर मनमानी रकम भर रहे थे और मरने के बाद चैकबुक अपनी औलादों को देकर जा रहे थे। वे सिर्फ वे ही वे थे। यह देश सिर्फ उनका ही था। उनकी बेटी का था। उनके बेटों का था। बेटों की बीवियों और दोस्तों का था। बच्चों का था। सड़कों, चौराहों, मूर्तियों, योजनाओं, स्मारकों में हर जगह उनकी ही छाप थी। ऐसे आजाद भारत में वे ही राम थे, वे ही कृष्ण, वे ही विश्वनाथ। उनके ही कीर्तन थे। उनके ही भंडारे।
केवल अध्यात्म ही भारत की आंतरिक ताकत रहा है। इसी विरासत की बदौलत भारत बचा रह सका। आजादी के बाद भारत की इसी पहचान को चमकाने की जरूरत थी। वह किसी धर्म का मामला नहीं था। वह भारत का मामला था। लेकिन उसे हिंदुओं के साथ नत्थी करके दोनों को ही कोने में डाल दिया गया।
न उन्हें धर्म से लेना-देना था, न भारत से, हिंदू तो थे ही किस खेत की मूली। उन्हें चाहिए थी सत्ता। भले ही देश बट जाए। उन्हें चाहिए थे वोट। भले ही देश के लोग बट जाएं। वे बांटने में यकीन रखते थे। बांटने के फायदे उन्हें अंग्रेजों ने सिखाए थे। वे जानते थे कि जो हिंदू दिल्ली में छह सौ साल के इस्लामी आतंक को झेल गया और दो सौ साल अंग्रेजों को लादे रहा, उसके डीएनए में झेलना ही लिखा है। मगर वे गलत थे।
दृश्य बदल चुका है। अयोध्या का भी और बनारस का भी। बेशक दोनों से पहले दिल्ली का भी। देश की जनता अब आजादी की लड़ाई के स्वयंभू योगदान के बदले चाैथी जोकर पीढ़ी को सियासी अनुकंपा देने के लिए तैयार नहीं है। हम अानंद भवन के नकली उत्तराधिकारियों को सियासी हताशा में जनता का मनोरंजन करते हुए ही बुढ़ाता देखेंगे। वो दिन दूर नहीं जब खामोश पार्टी उनके नीचे की दरी भी खींच लेगी।
एकतरफा सेक्युलरिज्म के ताजिए ठंडे हो चुके हैं। हमें नहीं पता कि मखमली टोपी वाले शाही इमाम कहां हैं और जहां भी हैं वहां उनकी सुबह कैसी होती है और शाम कैसी? बुखारियों के बस्ते बंद हैं। आजम, मुख्तार, अतीक आखिरकार वहीं हैं, जहां की उनकी पात्रता स्वयं सिद्ध थी। उनकी पालकियां ढोने वाले दोयम दरजे के कहारों को भी कोने में धकेल दिया गया है।
अयोध्या और काशी में जाे कुछ भी हो रहा है, उसके होने में पूरे 75 साल का आपराधिक विलंब है। आम लोगों ने बता दिया है कि जनपथ पर रहने से कुछ नहीं होता। जनपथ के दस नंबरियों के लिए भारत का मतलब राजनीतिक पर्यटन का ऐशोआराम होगा, लेकिन जनता को ऐसे बददिमाग, बदनीयत और बदशक्ल सियासी सैलानी नहीं चाहिए। उसे वाकई जन के पथ पर जन की आकांक्षा को समझने वाले हिम्मतवर लीडर चाहिए।
अयोध्या, केदारनाथ, काशी तो भारत की चेतना के ऐसे उपेक्षित संवेदनशील बिंदु हैं, जिनकी यह थैरेपी स्वतंत्रता के बाद से शेष थी। कश्मीर पर 370 का घाव धुला तो भी करोड़ों भारतीयों की आत्मा काशी कॉरिडोर जितनी ही तृप्त हुई। इस समय भारत अपने मूल की चमक में है और वो भी ऐसे विकट समय, जब सऊदी अरब का समाज भारत में पैदा हुई तबलीगी जमात को आतंक का दरवाजा कहकर अपने दरवाजे से दफा कर रहा है।
जब वहां हदीसों पर सवाल उठ रहे हैं आैर इस्लाम की साफ-सुथरी व्याख्या पर जोर है। जब इंडोनेशिया के राष्ट्रपति की मुस्लिम बेटी से लेकर लखनऊ के वसीम रिजवी तक अपनी जड़ों की तरफ लौट रहे हैं। ये सब काशी कॉरिडोर से एक के बाद एक आईं भारी-भरकम खबरें हैं।