Silver Screen: गुरू दत्त एक अबूझ पहेली, जिसे आज तक हल नहीं किया जा सका!
हिंदी सिनेमा के सौ साल से ज्यादा लंबे इतिहास में इतना कुछ घटा है कि सब कुछ याद रखना आसान नहीं। इस दौरान इतनी शख्सियतें दर्शकों के सामने से गुजरी कि सभी का जिक्र करना भी मुश्किल है। सोहराब मोदी, दिलीप कुमार, कमाल अमरोही, देव आनंद, राज कपूर से शुरू किया जाए तो नामों की फेहरिस्त अंतहीन है। लेकिन, फिर भी एक नाम ऐसा है जिसने बहुत कम फ़िल्में बनाई, गिनती की फिल्मों में अभिनय किया, पर वो अपनी छाप छोड़ गया। ये शख्स है गुरू दत्त, जिनका जिक्र किए बिना कभी वर्ल्ड सिनेमा की बात पूरी नहीं होगी। कहा जा सकता है कि अपने समय काल में गुरू दत्त वर्ल्ड सिनेमा के लीडर थे। 1950-60 के दशक में गुरू दत्त ने कागज़ के फूल, प्यासा, साहब बीवी और गुलाम और चौदहवीं का चांद जैसी फिल्में बनाई। इसमें उन्होंने कंटेंट के लेवल पर फिल्मों के क्लासिक पोयटिक एप्रोच को बरकरार रखते हुए रियलिज्म का इस्तेमाल किया।
गुरू दत्त अपने आप में एक फिल्म मूवमेंट थे। इसलिए उन्हें किसी और मूवमेंट के ग्रामर पर नहीं कसा जा सकता। गुरू दत्त के बारे में कहा जाता है, कि वे सबसे ज्यादा अपने आप से ही नाराज रहते थे। उनकी इस नाराजगी के कई प्रमाण भी सामने आए। ‘कागज के फूल’ की असफलता के बाद गुरू दत्त ने कहा भी था ‘देखो न मुझे डायरेक्टर बनना था, डायरेक्टर बन गया! एक्टर बनना था एक्टर बन गया! अच्छी पिक्चर बनाना थी, बनाई भी! पैसा है सब कुछ है, पर कुछ भी नहीं रहा।’ उनकी जिद के कई किस्से आज भी याद किए जाते हैं। अपनी कालजयी फिल्म ‘प्यासा’ में वे दिलीप कुमार को बतौर नायक लेने वाले थे। उनकी इस बारे में बात भी हो चुकी थी। लेकिन, किसी बात पर मतभेद हो गए और उन्होंने फिल्म में काम नहीं किया। बाद में गुरू दत्त ने खुद ही इस फिल्म में काम किया। दरअसल, ऐसा कई बार हुआ। मिस्टर एंड मिसेज़ 55, साहेब बीवी और गुलाम और ‘आर पार’ में भी वे जिस कलाकार को लेना चाहते थे, उन्होंने किसी न किसी कारण इंकार कर दिया था। ‘मिस्टर एंड मिसेज़ 55’ में सुनील दत्त को लेने वाले थे, पर ऐसा नहीं हो सका। ‘साहेब बीवी और गुलाम’ के लिए शशि कपूर और विश्वजीत से बात की, लेकिन यहां भी बात टूट गई। अंत में उन्होंने ही वो भूमिका निभाई।
‘साहेब बीवी और गुलाम’ फिल्म के दौरान गीता दत्त से उनके संबंध खराब हो गए थे। इसका कारण थी वहीदा रहमान। निजी जिंदगी की परेशानियों के कारण ही गुरू दत्त ने ‘साहेब बीवी और गुलाम’ का निर्देशन अपने दोस्त अबरार अल्वी से करने को कहा था। इस फिल्म को साहित्यकार बिमल मित्रा ने लिखा था। गुरु दत्त ने इस फिल्म में भी हमेशा की तरह वहीदा रहमान को लेने पर जोर दिया जो उनके और गीता दत्त के रिश्तों में खटास का एक बड़ा कारण थीं। गीता दत्त ने ‘साहिब बीबी और गुलाम’ को गुरुदत्त और अभिनेत्री वहीदा रहमान की वास्तविक जीवन की कहानी के रूप में माना। 1962 में आई इस फिल्म को अपने समय काल से बहुत आगे माना जाता है। इस फिल्म में व्यभिचार के मुद्दे, विवाह और पितृसत्ता को चुनौती दी गई थी।
गुरु दत्त एक ऐसे व्यक्ति की कहानी है, जिसकी रचनात्मक प्रतिभा को बहुत कम उम्र में तब अभिव्यक्ति मिली, जब परिवार कलकत्ता चला गया। अल्मोड़ा में उदय शंकर के नृत्य विद्यालय में उनके कार्यकाल ने उनकी फिल्म बनाने की प्रवृत्ति को आकार दिया। सिनेमा की दुनिया में खुद के लिए एक जगह खोजने के लिए उनका संघर्ष और देव आनंद के साथ उनकी मुलाकात उनकी किस्मत बदलने का एक बहाना था। एक निर्देशक के रूप में उनकी सफलता अजीबो-गरीब क्राइम थ्रिलर, जबकि उनका आंतरिक स्व कुछ और सार्थक करने के लिए तरस रहा था, जो उन्होंने प्यासा (1957) के साथ पूरा किया। बॉक्स ऑफिस पर उनकी इस फिल्म की पराजय के साथ उनकी पूरी निराशा भर गई, जिसे अब उनकी महान रचना माना जाता है। गुरुदत्त रचनात्मक व्यक्ति थे इसमें शक नहीं, उन्होंने अपने सपनों को आकार भी दिया, लेकिन उसके आंतरिक संघर्ष और कशमकश ने इन सपनों को तोड़ने में भी देरी नहीं की। यहां तक कि उन्होंने अपने आलीशान पाली हिल वाले बंगले को भी नहीं बख्शा और तोड़ दिया।
अपनी फिल्मों के पारंपरिक सौंदर्य के साथ जमीनी सच्चाई का इस्तेमाल करते हुए गुरू दत्त अपने समकालीनों से मीलों आगे थे। गुरुदत्त ने 1951 में अपनी पहली फिल्म ‘बाज़ी’ बनाई। यह देवानंद के नवकेतन की फिल्म थी। इस फिल्म में 40 के दशक की हॉलीवुड की फिल्म तकनीक और तेवर को अपनाया गया था। इस फिल्म में गुरुदत्त ने 100 एमएम लेंस के साथ क्लोज-अप शॉट्स का इस्तेमाल किया था। इसके अलावा पहली बार कंटेट के लेवल पर गानों का इस्तेमाल फिल्म की कहानी को आगे बढ़ाने के लिए किया था। तकनीक और कंटेट दोनों के लेवल पर ये भारतीय सिनेमा को गुरुदत्त की बड़ी देन हैं। ‘बाज़ी’ के बाद गुरुदत्त ने ‘जाल’ और ‘बाज’ बनाई। इन दोनों फिल्मों को बॉक्स ऑफिस पर कुछ खास सफलता नहीं मिली थी। आर-पार (1954), मिस्टर और मिसेज 55, सीआईडी और ‘सैलाब’ के बाद उन्होंने 1957 में ‘प्यासा’ बनाई।
‘प्यासा’ के साथ रियलिज्म की राह पर कदम बढ़ाने के साथ ही गुरू दत्त तेजी से डिप्रेशन की तरफ बढ़ रहे थे। 1959 में बनी ‘कागज के फूल’ गुरू दत्त की इस मनोवृत्ति को व्यक्त करती है। इस फिल्म में सफलता के शिखर तक पहुंचकर गर्त में गिरने वाले डायरेक्टर की भूमिका गुरू दत्त ने खुद निभाई थी। यदि ऑटर थ्योरी पर यकीन करें तो यह फिल्म पूरी तरह से गुरुदत्त की फिल्म थी। इस फिल्म में वे एक फिल्मकार के रूप में सुपर अभिव्यक्ति रहे। 1964 में शराब और नींद की गोलियों का भारी डोज़ लेने के चलते हुई गुरुदत्त की मौत के बाद देवानंद ने कहा था, वो एक युवा व्यक्ति था उसे डिप्रेसिव फिल्में नही बनानी चाहिए थीं। फ्रेंच वेव के अन्य फिल्मकारों की तरह गुरू दत्त सिर्फ फिल्म बनाने के लिए फिल्म निर्माण नहीं कर रहे थे, बल्कि उनकी हर फिल्म शानदार उपन्यास या काव्य की तरह कुछ न कुछ कह रही थी। वे अपनी खास शैली में फिल्म बनाते रहे और उस दौर में वर्ल्ड सिनेमा में जड़ें भी पकड़ रहे ऑटर थ्योरी को भी सत्यापित कर रहे थे। एक फिल्म के पूरा होते ही गुरू दत्त रुकते नहीं, बल्कि दूसरी फिल्म की तैयारी में जुट जाते थे।
कुलीन बंगाली परिवार की बेहद प्रतिभाशाली और लोकप्रिय गायिका गीता दत्त के साथ उनके अशांत विवाह से उनके जीवन का ज्यादातर संघर्ष उत्पन्न हुए। गीता के साथ अपने संबंधों को गुरु दत्त ने पाखंड कहकर उजागर भी किया। उन्होंने अपनी फिल्मों में उन्होंने ‘कामकाजी महिलाओं’ के बारे में बात की और समाज की पुरातन परंपराओं पर सवाल भी उठाए। जबकि, अपने निजी जीवन में वे चाहते थे कि उनकी पत्नी अपने गायन करियर को छोड़ दें और शादी और मातृत्व के पारंपरिक मूल्यों का पालन करें। फिल्म निर्माण कंपनी के मालिक के रूप में गुरु दत्त अपने सभी कर्मचारियों के जीवन और आजीविका के लिए जिम्मेदार थे। फिर भी, उनके रचनात्मक आग्रह का मतलब था कि वह अक्सर यह तय नहीं कर पाते थे कि उन्हें क्या चाहिए। वे मर्जी से फिल्में बनाना शुरू कर देते थे।
10 अक्टूबर 1964 को यह अनोखा अभिनेता मृत पाया गया। कहा जाता है कि वह शराब और नींद की गोलियां मिलाकर पीता था। यह उनका तीसरा और आत्महत्या का प्रयास था। 1963 में वहीदा रहमान के साथ उनके संबंध समाप्त हो गए। गीता दत्त को बाद में एक गंभीर नर्वस ब्रेकडाउन का सामना करना पड़ा। 1972 में उनका भी निधन हो गया। एक बार उन्होंने कहा था लाइफ क्या है? दो ही तो चीज है, कामयाबी और फेल्यर। इन दोनों के बीच कुछ भी नहीं है। फ्रेंच वेव की रियलिस्टिक गूंज उनके इन शब्दों में सुनाई देती है, देखो ना, मुझे डायरेक्टर बनना था, बन गया, एक्टर बनना था बन गया, पिक्चर अच्छी बनानी थी, अच्छी बनी। पैसा है सबकुछ है, पर कुछ भी नहीं रहा। हालांकि समय के साथ गुरुदत्त की फिल्मों को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मजबूत पहचान मिली है। टाइम पत्रिका ने प्यासा को 100 सदाबहार फिल्मों की सूची में रखा है। इतनी सारी खासियतों के कारण ही गुरू दत्त आजतक अबूझ पहेली बने हुए हैं।