नवरात्रि पर विशेष : लुढ़कती प्रतिमा को स्थापित किया था उन सिद्ध बाबा ने!

मां महिषासुर मर्दिनी के दरबार में नवरात्रि में लगता है मेला, मन्नत पूरी होने पर करते हैं उसे पूरी!

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नवरात्रि पर विशेष : लुढ़कती प्रतिमा को स्थापित किया था उन सिद्ध बाबा ने!

रमेश सोनी की खास खबर

Ratlam : मध्य प्रदेश का रतलाम शहर और शहर के पूर्वी छोर पर स्थित सिद्धस्थल जिसे उकाला नाम से पहचाना जाता हैं, इस सिद्धस्थल पर विराजित हैं मां महिषासुर मर्दिनी माता, जिनकी कई किवदंतियां हैं। बता दें कि यह मंदिर मैढ़ क्षत्रिय मारवाड़ी स्वर्णकार समाज का हैं। इस मंदिर में विराजित अद्भुत, नयनाभिराम और अलौकिक प्रतिमा के चेहरे के तेज का ऐसा चमत्कार हैं कि जो भी दर्शनार्थी यहां दर्शन करने पंहुचते हैं बस मां के अनन्य भक्त बन जाते हैं। और उनकी जो भी मन्नत होती हैं वह मां के आशीर्वाद से पुरी होती हैं।

1658 से 1682 के दौरान रियासत काल के महाराजा रामसिंह द्वारा इस प्रतिमा की स्थापना होना बताया जाता हैैं। परमार कालीन वास्तुशिल्प कला के आधार पर इस मंदिर की स्थापना को लेकर राजस्थान से आए कारीगरों को बहुत परेशान होना पड़ा था। वजह थी इस प्रतिमा का आसन पर विराजमान नहीं होना और बार-बार लुढ़क जाना।

आपको यह भी बता दें कि यह प्रतिमा राजस्थान से मध्य प्रदेश के मालवा क्षेत्र के रतलाम में बेलगाड़ी के जरिए लाई गई थी और प्रतिमा लाते-लाते बेलगाड़ी इसी स्थान पर थम गई थी, जिस स्थान पर आज मंदिर बना विद्यमान हैं। बड़ी दिक्कतों से इस प्रतिमा को बेलगाड़ी से उतारा गया और जब मिस्त्री और पंडितों ने मंत्रोच्चार के साथ प्रतिमा को आसन पर स्थापित करने का प्रयास किया तो प्रतिमा बार-बार लुढ़क रहीं थी। इस बात की जानकारी सिद्धस्थल पर तप कर रहें हठयोगी को लगी तो वह आए और मूर्ति को स्थापित करने की कोशिश की फिर भी प्रतिमा लुढ़कती जा रहीं थी ऐसे में हठयोगी को गुस्सा आया और उन्होंने माताजी को ऊंची आवाज में कहा था, फिर कहीं जाकर प्रतिमा स्थापित हों सकी थी, और उसके बाद जो हुआ वह आपको हेरत में डाल देगा।

हठयोगी द्वारा मां महिषासुर मर्दिनी की प्रतिमा को स्थापित करने के लिए की गई जबरदस्ती से वह प्रतिमा स्थापित तो हों गई। अमूमन उनका चेहरा तिरछा हो गया और आज भी तिरछा ही हैं। दुसरी और कहा जाता है कि जिन हठयोगी ने माताजी को जबरदस्ती बैठने को मजबुर किया उन्हें प्रतिमा स्थापित होने के कुछ दिनों बाद ही लकवा हो गया और अन्ततः उनकी मौत हो गई। आज भी इसी मंदिर परिसर में हठयोगी की समाधि मां महिषासुर मर्दिनी की प्रतिमा के ठीक सामने स्थापित हैं।

इस मंदिर के तात्कालिक महंत (पुजारी) स्वर्गीय दुर्लभराम थे, जो ब्रह्मचारी थे और कड़क मिजाज से पहचाने जाते थे। गर्मी हो, सर्दी हो या घनघोर बारिश हो यह अपनी माताजी की भक्ति में कभी भी कोताही नहीं बरतते थे। अपने नियमानुसार प्रातः 4-30 बजे जंगल से माहौल में बगैर लाइट के इंतजाम के वह यहां पुजा पाठ करते थे। उन्हें भी मां महिषासुर मर्दिनी का आशीर्वाद प्राप्त था।
हम आज उनको लेकर प्रचलित एक बात बताते हैं कि महाराज दुर्लभराम अपने निजी कार्य को लेकर रतलाम से कहीं जा रहें थे, ट्रेन में टिकट लिए बगैर बैठे थे चेकिंग पर आए टीसी ने महाराज से टिकट मांगा तो उन्होंने टिकट नहीं होने का कहा था तब टीसी और महाराज के बीच बहुत बहसबाजी हुई थी और टीसी ने अगले स्टेशन पर महाराज दुर्लभराम को ट्रेन से उतर जाने का कहा था। अगला स्टेशन आने पर महाराज दुर्लभराम बगैर कहें ट्रेन से उतरे और पैदल चल पड़े थे।

उसके बाद स्टेशन पर रुकी हुई ट्रेन आगे नहीं बढ़ी l ट्रेन चालक परेशान हो गया तब उस ट्रेन के कोच में बैठे यात्रियों ने कहा कि जिन महाराज को आपने उतार दिया हैं उन्हें वापस बुलाओ और बिठाओ तब ट्रेन चल सकेगी और अंततः टीसी और ट्रेन में चल रहे स्टाफ के लोग महाराज दुर्लभराम के पास दोडते दोडते पंहुचे और माफी मांगी तब महाराज वापस आए थे और ट्रेन चली थी।

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आपको बता दें कि 1675 के आसपास मंदिर निर्माण की प्रक्रिया शुरू हुई थी। 300 साल बाद मंदिर केे जीर्णशीर्ण होने पर मंदिर को नया रुप देने की प्रक्रिया प्रारंभ हुई। 1992 में ग्वालियर की महारानी राजमाता सिंधिया के मुख्य आतिथ्य में मैढ़ क्षत्रिय मारवाड़ी स्वर्णकार समाज अध्यक्ष श्यामलाल कडेल और संरक्षक गणपत लाल मींडिया के कार्यालय में जीर्णोद्धार का कार्य प्रारंभ हुआ था और आज यह प्रदेश के प्रसिद्ध मंदिरों में माना जाता हैं जहां भक्त अपनी मन्नत लेकर आते हैं वह पूरी भी होती हैं। मां महिषासुर मर्दिनी दिन में 3 बार रुप बदलती हैं। सिद्धपीठ पर स्थित मंदिर परिसर में मां अन्नपूर्णा माता, नवगृह तथा हनुमानजी का मंदिर भी है। यहां विशेषकर दोनों नवरात्रि में मेले सा माहौल रहता है सुबह 4 बजे से देर रात तक श्रद्धालुओं का जमावड़ा लगा रहता है।

45 फिट चौड़े और 120 फिट लम्बे इस मंदिर की सारी व्यवस्थाएं देखने वाला मैढ़ क्षत्रिय मारवाड़ी स्वर्णकार समाज हैं। यहां के स्वर्णकारों नेे अपनी ईमानदारी, कर्तव्यनिष्ठा और उम्दा आभूषण निर्माण की कला से रतलाम का नाम स्वर्णाक्षरों में लिखा हैं। यहीं कारण हैं कि रतलाम के सोने की शुद्धता की साख से समूचा देश वाकिफ हैं। आज इस मंदिर तक पंहुचने के लिए टुलेन सड़क बन चुकी जो इंदौर मुंबई के राजमार्ग को जोड़ती हैं।