कोटे के अंदर कोटा फैसले से दलित राजनीति में उभार!

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कोटे के अंदर कोटा फैसले से दलित राजनीति में उभार!

भारत के सबसे बड़े न्यायालय सुप्रीम कोर्ट ने कोटे के अंदर कोटा निर्धारित करने का एक नया रास्ता खोल दिया है और इसको लेकर अब राज्य सरकारों को अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति वर्गों में सब-केटेगरी बनाने का अधिकार मिल गया है, इस प्रकार बीस साल पुराना आदेश पलट गया है। इसके दूरगामी राजनीतिक परिणाम होने की सम्भावना को नकारा नहीं जा सकता और आगे चलकर कुछ दलित नेताओं और दलों के उदय का मार्ग खुल सकता है। इससे जो उपजातियां अभी तक अपना एकाधिकार बनाये बैठी थीं उनके हितों को चोट लग सकती है तो वहीं वास्तविक जरुरतमंद ऐसी जातियां जो अभी तक इसके लाभ से अपेक्षाकृत वंचित रह जाती थीं उन्हें अब अपने जीवन में भी प्रकाश की किरण नजर आयेगी।

सर्वोच्च न्यायालय का यह फैसला दीर्घकालीन प्रभाव डालने वाला होगा। फैसले की दो महत्वपूर्ण शर्तें यह हैं कि पहला- अनुसूचित जाति के भीतर एक जाति को 100 प्रतिशत कोटा नहीं दिया जा सकता और दूसरा-अनुसूचित जाति में शामिल किसी जाति का कोटा तय करने से पहले हिस्सेदारी का पुख्ता डेटा होना चाहिए। इस प्रकार इस फैसले के बाद लोकसभा में विपक्ष के नेता राहुल गांधी और इंडिया गठबंधन के दलों द्वारा जातिगत जनगणना का जो मुद्दा उठाया गया है उसे कराने की दिशा में दबाव बनाने के लिए इन दलों को एक और हथियार मिल गया है।

सुप्रीम कोर्ट के एक अगस्त को दिए फैसले से अनुसूचित जाति-जनजाति आरक्षण के बावजूद आगे बढ़ने से वंचित रहे दलित एवं आदिवासी समाज की विभिन्न जातियों को आरक्षण का लाभ सुनिश्चित करने का मार्ग प्रशस्त हो गया है। न्यायालय के इस फैसले में कहा गया है कि एसटी-एससी को आरक्षण का लाभ देने के लिए राज्य सरकारें उनके पारंपरिक पिछड़ेपन के आधार पर विभिन्न समूहों में उपवर्गीकृत कर सकते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो एसटी-एससी को सब केटेगरी में आरक्षण दिया जा सकता है। शीर्ष कोर्ट ने कहा है कि हाशिए पर जा चुके पिछड़े लोगों को अलग से कोटा देने के लिए इस प्रकार का उपवर्गीकरण जायज है।

इसके साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने 2004 में ईवी चितैया मामले में दिये गये पांच जजों की बेंच के उस फैसले को उलट दिया है जिसमें कहा गया था कि आरक्षण के लिए इन वर्गों में सब-केटेगरी नहीं बनाई जा सकती। संविधान में अनुसूचित जातियों के लिए 15 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था है। इस कोटे में कई राज्यों ने सब कोटा जोड़ दिया था, इसको लेकर सुप्रीम कोर्ट में 23 याचिकायें दायर की गयी थीं। सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश डीवाय चन्द्रचूड़ की अगुवाई वाली सात जजों की संविधान पीठ ने 6-1 के बहुमत से यह फैसला सुनाया है। जस्टिस बेला एम. त्रिवेदी ने अलग फैसला देते हुए कहा कि जाति के आधार पर एसटी-एससी कोटा मिलता है तो उसमें बंटवारे की जरुरत नहीं है। कार्यपालिका या विधायी शक्ति के अभाव में राज्य एसटी-एससी के सभी लोगों के लिए आरक्षित लाभों को उपवर्गीकृत नहीं कर सकते।

संविधान पीठ के फैसले की कुछ प्रमुख बातों में कहा गया है कि समूहों को कोटे में शामिल करने या बाहर करने को तुष्टीकरण की राजनीति तक सीमित नहीं किया जाना चाहिये। यह सुनिश्चित किया जाए कि सब-कोटा का ज्यादा लाभ पिछड़ी जातियों को मिले। एससी वर्ग में समरुपता नहीं है, इसमें अलग-अलग जातियां आती हैं उन्हें अलग-अलग ढंग के भेदभाव व परेशानियों का सामना करना पड़ता है।

राज्य सरकारें इस आधार पर या इस मान से सब-कोटा तय कर सकती हैं कि किन जातियों को ज्यादा भेदभाव का सामना करना पड़ता है। सब-कोटा जमीनी सर्वे के आधार पर होना चाहिये। यह बताना होगा कि किस जाति का सरकारी नौकरियों में और शिक्षण संस्थाओं में दाखिले में कितना प्रतिशत है। सब-केटेगरी पर राज्यों के फैसले की न्यायिक समीक्षा की जा सकती है। राज्यों को पिछड़ापन की सीमा के बारे में तय किये गये आधार को उचित ठहराना होगा और वर्गीकरण में किसी एक समूह को शत-प्रतिशत कोटा नहीं दे सकते। फैसले से वंचितों को फायदा पहुंचाने का रास्ता इस मायने में खुल गया है कि राज्य उन जातियों की मदद कर सकते हैं जिन्हें वे ऊपर उठाने में मदद देना चाहते हैं। विभिन्न राज्यों में एसटी-एससी का लाभ कुछ जातियां ज्यादा उठा रही हैं। फैसले से एसटी-एससी की विभिन्न जातियों में आरक्षण के समान लाभ का रास्ता खुलेगा। एससी की उन जातियों को आरक्षण का फायदा मिलेगा जो अन्य जातियों से पिछड़ कर शिक्षा व सरकारी नौकरियों से वंचित रह जाते हैं। ऐसी वंचित जातियों के लिए एससी के लिए निर्धारित आरक्षण में से कुछ हिस्सा यानी सब-कोटा तय होगा।

इस फैसले के बारे में रिटायर जजों में इलाहाबाद हाईकोर्ट के पूर्व जस्टिस गोविंद माथुर का कहना है कि पहली बार एसटी-एससी में वर्गीकरण होगा। फैसले में मान लिया गया है कि एसटी-एससी में वर्गीकरण बराबरी की अवधारणा के विपरीत नहीं है, सवाल है कि अनुसूचित जाति में ढेरों उपजातियां हैं। फैसले की पालना के लिए जातियों को नये सिरे से सेवाओं में प्रतिनिधित्व देना होगा। सेवानिवृत्त जस्टिस उप-लोकायुक्त मध्यप्रदेश एसके पालो का कहना है कि आरक्षण से समाज में समानता आना चाहिये, लेकिन अभी भी एसटी-एससी वर्ग में कई समूहों को आरक्षण का लाभ नहीं मिल रहा है, एक समूह अब भी वंचित है और सुप्रीम कोर्ट ने उसकी ही चिन्ता की है। अब वंचित उपजातियों को भी आगे बढ़ने का मौका मिलेगा।

 

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देश के आजाद होने के बाद 70 सालों से सरकारी नौकरियों व शिक्षण संस्थाओं में आरक्षण की लाभार्थी जातियों के अंदर भी इस प्रकार की आवाज उठने लगी थी कि आरक्षण का फायदा समान रुप से सभी जातियों को नहीं मिल पा रहा है, इस लाभ का वितरण नये और न्यायसंगत तरीके से किया जाना चाहिये। इस फैसले के दीर्घकालीन सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक परिणाम होने की संभावना को नकारा नहीं जा सकता, हालांकि कुछ लोगों ने इसे संविधान की मूल-भावना के विरुद्ध बताया है लेकिन कुल मिलाकर ज्यादातर हल्कों में सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले का स्वागत हुआ है। एक प्रकार से यह माना जा सकता है कि देश में आरक्षण की जो दस्तां 1882 में विलियम हंटर और ज्योतिबा फुले ने प्रारंभ की थी उसके लगभग 150 साल बाद उसमें अब एक और नया और निर्णायक आयाम जुड़ गया है।

इस फैसले का विरोध जिन क्षेत्रों में हो रहा है अथवा होने की संभावना है वह वे ही मुख्य जातियां हैं जिन्हें तुलनात्मक रुप से आरक्षण का अधिक फायदा मिला है और वह नहीं चाहेंगी कि उनका यह लाभ किसी भी हालत बंट जाये। कई जगहों पर तो यह लाभ पीढ़ीगत रुप में बदल गया है। यदि एससी श्रेणी की बात की जाए तो आरक्षण का लाभ लगभग एक दर्जन जातियों ने ही उठाया है जिनमें प्रमुख रुप से जाटव, महार, मेहरा, अहिरवार आदि शामिल हैं लेकिन उन्हीं की एक हजार से अधिक जातियों के लोग इस मामले में काफी पीछे छूट गये हैं। इसमें दो-मत नहीं हो सकते कि यदि सब-कोटा होगा तो आरक्षण की सुविधा का लाभ ज्यादा बेहतर व न्यायसंगत तरीके से बंट सकेगा।

यदि अनुसूचित जनजाति यानी आदिवासी वर्ग की बात की जाए तो वहां पर भी 744 जातियां ऐसी हैं, लेकिन आरक्षण का लाभ खासतौर पर भील, संथाल, गोंड आदि को ही मिला है। इसका एक बड़ा कारण यह है कि शिक्षा व जागरुकता का उनमें अभाव है। इस साल के अन्त में महाराष्ट्र, हरियाणा और झारखंड में होने वाले विधानसभा चुनावों में यह एक बड़ा चुनावी मुद्दा बन सकता है और हर राजनीतिक दल अपने-अपने नजरिये व ढंग से इसका लाभ उठाने की कोशिश करेंगे और ऐसे में राजनीतिक दलों के भीतर नये चेहरों का उभार हो सकता है या कुछ छोटे-मोटे राज्य स्तरीय राजनीतिक दल बन सकते हैं।