कठिन डगर है ईमानदार राजनीति से सफलता की

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कठिन डगर है ईमानदार राजनीति से सफलता की

स्वतंत्रता दिवस पर लाल किले से भाषण के दौरान प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने एक महत्वपूर्ण सुझाव सामने रखा | उन्होंने इच्छा व्यक्त की कि आने वाले वर्षों में देश की लोकतान्त्रिक व्यवस्था में पंचायत , नगर पालिका – निगम , विधान सभा और संसद तक एक लाख ऐसे नए लोग आएं जिनका परिवार कभी राजनीति में नहीं रहा हो | प्रधान मंत्री इस तरह राजनीति में परिवारवाद और जातिवाद के विरुद्ध अपने अभियान को आगे बढ़ा रहे हैं | इसी तरह अपना कोई राजनीतिक नुक्सान होने का खतरा उठाते हुए वह भ्रष्टाचार के खिलाफ अभियान जारी रखने का संकल्प भी व्यक्त किया |

निश्चित रुप से दोनों प्रयास सराहनीय हैं | इससे राजनीति में एक नई तरह की बयार , शुचिता , वैचारिक सामाजिक विविधता भी आ सकती है | लेकिन पुराने नए व्यवहारिक अनुभव बताते हैं कि आज़ादी के करीब 25 साल बाद से राजनीति में आए बदलावों से केवल ईमानदारी और सेवा से सफल होने की डगर बहुत कठिन हैं | शिक्षा , प्रशासन , विधि न्याय , सिनेमा , कृषि , उद्योग – व्यापार , पुलिस , सेना , एन जी ओ , धार्मिक संस्थान जैसी गैर राजनीतिक पृष्ठभूमि से आए लोग भी राजनीति में ईमानदारी के आदर्शों से बहुत कठिनाई से सफल हो पाते हैं |

इसी मुद्दे से जुड़ा एक दिलचस्प तथ्य यह है कि संविधान निर्माता बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर स्वयं लोक सभा के दो चुनाव कांग्रेस पार्टी से पराजित हुए | महात्मा गाँधी के पोते राजमोहन गाँधी पहले अमेठी से और फिर पूर्वी दिल्ली से लोक सभा का चुनाव लड़े लेकिन पराजित हुए | दूसरे पोते गोपाल कृष्ण गांधी उप राष्ट्रपति के चुनाव में पराजित हो गए | पंडित लालबहादुर शास्त्री के पुत्र सुनील शास्त्री और अनिल शास्त्री एक दो बार चुनाव लड़कर जीते , उत्तर प्रदेश में मंत्री भी बने , लेकिन अपनी आदर्शवादिता के कारण राजनीति में सफल नहीं कहला सके | हाँ नेहरु गाँधी परिवार लगातार राजनीति में सफल होता रहा , लेकिन आरोपों के अम्बार रहे | प्रधान मंत्रियों में चौधरी चरण सिंह , इन्दर कुमार गुजराल और एच डी देवेगौड़ा के परिजन जीते हारे और आरोपों से भी घिरे रहे |

यह कहा जा सकता है कि विभिन्न प्रदेशों में विभिन्न पार्टियों के मुख्यमंत्रियों , केंद्रीय या राज्यों के मंत्रियों , सांसदों , विधायकों , पार्षदों , पंचों या पार्टी पदाधिकारियों के परिवारों के सदस्य चुनावों में विजयी अथवा पराजित होते रहे हैं | प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के इस विचार से व्यापक सहमति हो सकती है कि किसी भी परिवार का व्यक्ति ‘ राजशाही ‘ उत्तराधिकारी की तरह पार्टी का प्रमुख और सत्ता या विपक्ष का नेता न बने | अपनी पार्टी , क्षेत्र , समाज में सक्रिय सेवा के बल पर चुनाव लड़कर पद पा सकता है | इसी तरह जाति , धर्म , सम्प्रदाय के नाम पर राजनीतिक स्वार्थ पूरे करना अनुचित है |

अब सवाल उठता है अन्य क्षेत्रों का | शिक्षा के क्षेत्र से राजनीति में आने के लिए कई लोग छात्र शिक्षक और राजनीतिक गुटबाजी से सफल हुए , लेकिन क्या बहुत सीमित आर्थिक संसाधनों के बिना चुनाव जीत सके और बाद में भी क्या भ्रष्ट आचरण आरोपों से बच सके ? कुछ सांसदों – नेताओं ने ईमानदारी से काम करने का प्रयास किया , लेकिन चुनावी राजनीति में अधिक सफल नहीं हो सके | क़ानूनी पेशे से राजनीति में आने का सिलसिला आज़ादी के आंदोलन से चलता रहा है , लेकिन उन्हें पार्टी के समर्थन के साथ न्यायिक जगत में कामकाज और पुराने संबंधों , भ्रष्ट या आपराधिक मामलों में फंसे नेताओं की पैरवी करके सत्ता सुख मिलता रहा है |

नौकरशाहों के राजनीतिक रुझान और रिटायरमेंट के बाद कई अधिकारी राजनीतिक पार्टियों में न सिर्फ शामिल हुए बल्कि चुनाव भी लड़े और मंत्री भी बने. लेकिन सरकारी सेवा में रहते ही यदि कोई अधिकारी स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति लेकर राजनीतिक पार्टी में शामिल होकर चुनाव लड़ने की तैयारी करने लगे तो सेवा के दौरान उसकी निरपेक्षता पर संदेह होना स्वाभाविक है |

नौकरशाहों के सरकारी सेवा छोड़कर तुरंत राजनीति में स्थापित होने की स्थिति न सिर्फ शासन और प्रशासन के लिहाज से ठीक है और न ही राजनीति के लिहाज से | अधिकारियों के इस तरह के राजनीतिक प्रवेश से पार्टियों के संगठन और उनके कार्यकर्ताओं पर भी असर पड़ता है. जिस व्यक्ति ने दशकों तक अफसर बनकर काम किया होगा वो जनता और कार्यकर्ताओं के साथ समन्वय बनाकर नहीं चल पाएगा. दूसरे, वो आते ही राजनीति में यदि स्थापित हो जाता है तो लंबे समय से पार्टियों में काम कर रहे कार्यकर्ता भी मायूस होते हैं | राजनीतिक विश्लेषक इस प्रवृत्ति को इसलिए भी लोकतंत्र के लिए खतरनाक बताते हैं क्योंकि नौकरी छोड़कर तुरंत सत्ताधारी पार्टी में या किसी अन्य पार्टी में शामिल होना यह दिखाता है कि अमुक अधिकारी उस दल के प्रति निरपेक्ष नहीं रहा होगा और अधिकारियों से यह अपेक्षा नहीं की जाती है कि वो सरकार के बजाय किसी खास दल के प्रति निष्ठावान रहे | खासकर तब, जब अधिकारी रिटायरमेंट लेकर सत्तारूढ़ दल में शामिल हो जाए |

उत्तर प्रदेश में 1967 में फैजाबाद के डीएम रहे केके नायर जनसंघ के टिकट पर बहराइच से लोकसभा पहुंचे थे. यूपी के डीजीपी रहे श्रीशचंद्र दीक्षित पहले भाजपा में आए और बाद में विश्व हिन्दू परिषद में चले गए और राममंदिर आंदोलन में भी उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई | वीएचपी नेता अशोक सिंघल के भाई बीपी सिंघल, यूपी के डीजीपी रहे | हाल के वर्षों में विदेश मंत्री एस जयशंकर, रेल मंत्री अश्विनी वैष्णव , ब्रजलाल , आर के सिंह , एस पी सिंह , अरविन्द शर्मा जैसे कई अधिकारी भाजपा में शामिल होकर सफल हैं , लेकिन सीधे चुनाव लड़ने के लिए उन्हें आदर्शवादिता से कुछ समझौते करने पड़ेंगे |

भारतीय चुनाव व्यवस्था में व्यापक सुधार के लिए सम्मानित रहे ईमानदार प्रशासक टी एन शेषन स्वयं कोई चुनाव नहीं जीत सके | यशवंत सिन्हा सरकारी नौकरी छोड़कर जयप्रकाश नारायण , चंद्रशेखर , अटल आडवाणी के समर्थन से सत्ता में पहुंचे लेकिन भ्र्ष्टाचार और बड़े आर्थिक घोटाले के आरोप लगते रहे हैं | बहुत पहले प्रशासनिक सेवा और राज परिवार से निकले गोविन्द नारायण सिंह दलबदल कर मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री बने , लेकिन संविद सरकार अधिक नहीं चल सकी | आई ए एस अफसर रहे एकमात्र अजीत जोगी कांग्रेस पार्टी के बल पर मुख्यमंत्री बने , लेकिन प्रशासनिक सेवा और राजनीति में भ्रष्टाचार तथा अन्य अपराधों के आरोपों से कलंकित हुए और आदिवासी बहुल छत्तीसगढ़ के सामाजिक आर्थिक हितों को बहुत नुकसान पहुँचाया | प्रशासनिक राजस्व सेवा और एन जी ओ से निकले दूसरे मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल पद पर रहते हुए घोटाले भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों से जेल में हैं | वह तो अन्ना हजारे के ईमानदार राजनीति के नारे वाले आंदोलन से पार्टी बनाकर सत्ता में आए थे | लेकिन स्वयं और पार्टी के कई नेता गंभीर आरोपों में फंसते चले गए |

व्यापार उद्योग क्षेत्र से राजनीति में आने वाले कुछ नेता स्वयं भले ही ईमानदार रहे , लेकिन उन्हें पार्टियों की फंडिंग या अन्य समझौते करने पड़े | सिनेमा उद्योग से निकले अधिकांश लोग अपनी फ़िल्मी लोकप्रियता के बल पर चुनावी मैदान में सफल हुए | अपने चुनाव क्षेत्र और जनता को अधिक लाभ नहीं पंहुचा सके | दक्षिण भारत में एम् जी रामचंद्रन , जय ललिता , करुणानिधि को अवश्य मुख्यमंत्री के नाते काम के अवसर मिले , लेकिन भ्र्ष्टाचार के आरोपों की कीचड से नहीं बच सके | बहरहाल कड़वे अनुभवों और चुनौतियों के बावजूद लोकतंत्र में नया खून , नए लोग और नई आशा अपेक्षा विश्वास के साथ आगे बढ़ने की कोशिश तथा उम्मीद रहनी चाहिए |

Author profile
ALOK MEHTA
आलोक मेहता

आलोक मेहता एक भारतीय पत्रकार, टीवी प्रसारक और लेखक हैं। 2009 में, उन्हें भारत सरकार से पद्म श्री का नागरिक सम्मान मिला। मेहताजी के काम ने हमेशा सामाजिक कल्याण के मुद्दों पर ध्यान केंद्रित किया है।

7  सितम्बर 1952  को मध्यप्रदेश के उज्जैन में जन्में आलोक मेहता का पत्रकारिता में सक्रिय रहने का यह पांचवां दशक है। नई दूनिया, हिंदुस्तान समाचार, साप्ताहिक हिंदुस्तान, दिनमान में राजनितिक संवाददाता के रूप में कार्य करने के बाद  वौइस् ऑफ़ जर्मनी, कोलोन में रहे। भारत लौटकर  नवभारत टाइम्स, , दैनिक भास्कर, दैनिक हिंदुस्तान, आउटलुक साप्ताहिक व नै दुनिया में संपादक रहे ।

भारत सरकार के राष्ट्रीय एकता परिषद् के सदस्य, एडिटर गिल्ड ऑफ़ इंडिया के पूर्व अध्यक्ष व महासचिव, रेडियो तथा टीवी चैनलों पर नियमित कार्यक्रमों का प्रसारण किया। लगभग 40 देशों की यात्रायें, अनेक प्रधानमंत्रियों, राष्ट्राध्यक्षों व नेताओं से भेंटवार्ताएं की ।

प्रमुख पुस्तकों में"Naman Narmada- Obeisance to Narmada [2], Social Reforms In India , कलम के सेनापति [3], "पत्रकारिता की लक्ष्मण रेखा" (2000), [4] Indian Journalism Keeping it clean [5], सफर सुहाना दुनिया का [6], चिड़िया फिर नहीं चहकी (कहानी संग्रह), Bird did not Sing Yet Again (छोटी कहानियों का संग्रह), भारत के राष्ट्रपति (राजेंद्र प्रसाद से प्रतिभा पाटिल तक), नामी चेहरे यादगार मुलाकातें ( Interviews of Prominent personalities), तब और अब, [7] स्मृतियाँ ही स्मृतियाँ (TRAVELOGUES OF INDIA AND EUROPE), [8]चरित्र और चेहरे, आस्था का आँगन, सिंहासन का न्याय, आधुनिक भारत : परम्परा और भविष्य इनकी बहुचर्चित पुस्तकें हैं | उनके पुरस्कारों में पदम श्री, विक्रम विश्वविद्यालय द्वारा डी.लिट, भारतेन्दु हरिश्चंद्र पुरस्कार, गणेश शंकर विद्यार्थी पुरस्कार, पत्रकारिता भूषण पुरस्कार, हल्दीघाटी सम्मान,  राष्ट्रीय सद्भावना पुरस्कार, राष्ट्रीय तुलसी पुरस्कार, इंदिरा प्रियदर्शनी पुरस्कार आदि शामिल हैं ।