Jai Ganesh Deva: अबोध बालकों की चेतना में जो आनन्द का बीज बो दे, वही है लोक देवता!

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जय गणेश देवा
जय गणेश देवा

Jai Ganesh Deva: अबोध बालकों की चेतना में जो आनन्द का बीज बो दे, वही है लोक देवता!

डॉ. सुमन चौरे

हमारे आवासीय परिसर में एक छोटी-सी बगिया हैं। शाम के समय उसमें छोटे-छोटे बच्चे खेला करते हैं। मैं भी कभी-कभी उनके पास वहाँ बैठ जाती हूँ। बच्चे वहीं  कोई चार-पाँच और छः  साल के। कोई प्ले स्कूल तो कोई, केजी, नर्सरी स्कूल जाते ही हैं। वे वहाँ क्या सीखते हैं। सब कुछ शाम को बगीचे में वैसा ही करते रहते हैं। कोई, सीमा टीचर बन जाता है, तो मोहित सर। उनके संवादों से पता चलता है कि उनमें भरपूर जिज्ञासा है।

बगीचे में दूर्वा के ऊपर पेड़ों की सूखी पत्तियाँ और बारीक-बारीक टहनियाँ गिरती हैं। बच्चे उनकों उठाकर बताते है। ‘‘टीचर यह सी (अंग्रेजी का ‘सी’ अक्षर) है। टीचर कहती ‘गुड’ कोई लेकर आया टीचर यह एन (अंग्रेजी का अक्षर) है ना, यह डी (अंग्रेजी का अक्षर)  है ना’’ और टीचर गुड कहती है – बच्चे बड़े खुश। एक छोटी-सी बेटी ने एक बारिक डाल उठाकर टीचर को दी और कहा में ‘‘यह एल (अंग्रेजी का अक्षर) है ना टीचर।’’ टीचर ने कहा ‘‘हाँ‘’। पर उसी क्षण उसके हाथ से वह बारीक लकड़ी खींचकर दूसरी छोटी बेटी ने कह ‘‘नई टीचर यह तो गनेसजी हैं।’’ गनेसजी की सूँड नई दिख रई क्या? सभी बच्चे सहमत हो गये कि यह गणेशजी की सूंड है और तालियाँ कूटते-कूटते नाचने लगे।

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जयगणेशदेवा, जयगणेशदेवा,     श्रीगणेशादेवाजयमंगलमूर्ति, जयगणेशदेवा

कहकर नाचने लगे। वे लोग इतने आनन्दित होकर उछल-उछलकर नाच रहे थे, मानो गणपति देव उनके रोम-रोम में रच बस कर नर्तन कर रहे हों। यही तो है लोक देवता। यही तो है आदि देव। यही तो है प्रथम पूज्य। यही तो है, सुखकर्ता दुःखहर्ता। यह वह आनन्दा देवा है, जो कहीं भी, कैसे भी कोई भी जैसे भी चाहे स्मरण कर आनन्द मना लें। किसी भी विधान से पूजकर मंगलयाचना कर लें। अबोध बालकों की चेतना में जो आनन्द का बीज वो दे वही है लोक देवता! वही ‘गणपति’।

भारतीय संस्कृति में देवताओं की मंत्रोपचार से पूजन का विधान है, उसमें गणेश की पूजा प्रथम की जाती है। जिन परिवारों में त्रिदेव विग्रहों की नित्य पूजा होती है, उन सभी के घर गणपति, बालगोपाल और शिवलिंग स्थापित रहते है। धार्मिक अनुष्ठान करना हो या कार्य सिद्धि हेतु किया जाना वाला आयोजन, शास्त्रोक्त पद्धति से गणेशजी का आव्हान करते हैं। गणेशजी को प्रथम पूज्य के रूप में कार्य निर्विघ्न सम्पन्न कराने के लिये निमंत्रित करते हैं। लोक संस्कृति में तो गणपति स्वयं कार्य सिद्ध करने के लिए आते हैं।

प्रथम पूज्य गणेश के विग्रह की बात करें तो कितने सहज देवता हैं, पान पर या धेला (सिक्का) सुपारी और अक्षत रखे, मंत्रोच्चार किया या फिर लोकगीत गाए और प्राण प्रतिष्ठा हो गई। गणेश जी उसी क्षण साक्षात उपस्थित हो जाते हैं।

लोक में गणेशजी की दैनिक पूजा के साथ ही विविध व्रत-उपवास, मंगलकारज आदि पर विशेष अर्चन की भी परंपरा है। प्रति मास की चतुर्थी के दिन गणेश आराधना का बड़ा महत्व रहता है। इन चतुर्थियों में से कई चतुर्थियों का एक विशेष पूजा, कामना प्रयोजन से होता है। लोकोक्त विधि से अनुष्ठान करने का बड़ा महत्व है। किस मास की चतुर्थी पर किस विधान से पूजाकर कौन-सी कथा का वाचन कर किस वस्तु का भोग लगायें यह सब लोक परंपरानुसार किया जाता है।

मध्यप्रदेश के निमाड़ क्षेत्र में भादव मास में इक्कीस दिन तक सिद्ध गणेश का व्रत किया जाता है। यह व्रत भादव की गणेश चतुर्थी से शुरू किया जाता है। जिसमें गणेशजी को आम की लकड़ी के एकपाट पर बैठाया जाता है। इस  पाट के चारों ओर गेहूँ के खेत की मिट्टी रखी जाती है जिसमें गेहूँ डाल दिये जाते हैं। यह घर के देवालय में पूजन किए जा रहे पीतल, चाँदी, ताँबे या पाषाण की प्रतिमा होती है। गणेश जी को स्नान कराया जाता है। गणेशजी को चंदन-सिंदूर लगाकर प्रथम दिन नाड़ा (लाल-सिंदूरी रंग  का सूत) और जनेउ पहनाए जाते हैं। इसके बाद इक्कीस दूब, इक्कीस फूल, इक्कीस अक्षत और इक्कीस गेहूँ चढ़ाये जाते हैं। इक्कीस दिन तक पूजा की जाती है, जब तक पाट पर बोये गेहूँ उगकर बड़े-बड़े हो जाते है। जिन जवारों के बीच गणेशजी विराजमान रहते हैं। इक्कीस  दिन तक प्रतिदिन एक वार्ता (लोककथा) कही जाती है। सिद्ध गणेश का व्रत घर की महिलाएँ सामूहिक रूप से एवं एकल रूप से भी करती हैं। इक्कीस दिन पूरे होने पर इक्कीस मोदक के बनाकर गणेशजी को भोग लगाकर प्रसाद बाँटा जाता है। साथ ही एक जोड़े (पति-पत्नी) को भोजन करवाया जाता है। इक्कीस वर्ष तक यह व्रत किया जाता है, फिर बाद में उद्यापन किया जाता है, जिसमें इक्कीस जोड़ों को भोजन करवाया जाता है और उनको छाबड़ी (टोकनी) में सौभाग्य का सामान रखकर इन इक्कीस जोड़ों को दिया जाता। गणपतिजी की वार्ता भी बड़ी रूनुक झुनुक-सी लगती है। जितनी भी बार सुनो हर बार नवीन लगती है और सुनाने वाले और सुनने वाले श्रद्धापूर्वक आनन्द में डुबकियाँ लगाते हैं।

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निमाड़ क्षेत्र में जो भी लोकोत्सव मनाये जाते हैं उनमें श्री गणेश की स्थापना कर उत्सव का आरंभ किया जाता है। इस अवसर पर कभी तो अनुष्ठानिक पर्व के अनुसार गणपतिजी का विग्रह स्थापित किया जाता है। जैसे सिद्ध गणेश में तो धातु की प्रतिमा रखी जाती है, क्योंकि इक्कीस दिन प्रतिदिन स्नान करवाने का भी विधान है। फिर तो अन्य अवसरों पर विविध सामग्रियों से प्रतिमा का निर्माण किया जाता है जैसे मिट्टी से, गोबर से, तिल्ली से एवं आटे से गणेश विग्रह बनाकर अवसरानुसार पूजा और व्रत किया जाता है।

निमाड़ में गणेश चतुर्थी पर जो व्रत-उपवास व पूजन किया जाता है, उसमें पूर्णिमा के बाद की चतुर्थी तिथि पर चन्द्रमा के दर्शन करने के बाद गणेशजी का पूजन करते हैं। फिर वार्ता सुनकर प्रसाद ग्रहण करने के बाद उपवास तोड़कर व्रत पूर्ण किया जाता है। इस अवसर पर दीवाल पर सिंदूर से चंद्रमा और त्रिशूल बनाकर चतुर्थी पूजन की जाती है। मकर संक्रांति के बाद की चतुर्थी को तिल गणेश कहते हैं। तिलकूट गणेश बनाकर पूजा की जाती है। काली तिल को गुड़ के साथ बांध कर गणेश प्रतिमा बनाकर पूजते हैं।

भादव मास की चतुर्थी को बड़ी गणेश चतुर्थी मानते हैं। इसमें गणेशजी की माटी की प्रतिमा स्थापित कर दस से ग्यारह दिन तक गणेशजी का पूजन अर्चन कर, इस प्रतिमा का विसर्जन कर दिया जाता है।

विवाह का शुभारंभ गणेश पूजन से होता है। यह बहुत बड़ा आयोजन होता है। बेटे का विवाह हो तो गेहूँ के आटे से ग्यारह गणेश और बेटी का हो तो तेरह गणेश और उतने ही दीये आटे से बनाये जाते हैं। आटे में हल्दी डालकर उसे पानी से कड़क गूंथ कर उसी आटे से गणेश जी का स्वरूप देकर उन्हें आम के वृक्ष के लम्बे-चौड़े पाट पर बैठाया जाता है। लम्बा पाट इसलिए लेते हैं ताकि ग्यारह या तेरह गणेश प्रतिमा को एक कतार में बैठाया जा सके। पाट इतना चौड़ा रहता है कि एक गणेश के आगे आटे का एक दीया रखा जाता है। गणेश जी को अक्षत के ढेर पर बैठाया जाता है।

लोक से अपनापन इतना अभिन्न भाव जन-जन की कामना पूरी करने की जिम्मेदारी लिए लोक मंगलकारी गणेश सच में सबके हृदयों के राजा हैं, स्वामी हैं, तभी तो इतनी सरलता से बालक एक घास का तिनका लाकर गणपति देवाधिदेव की कल्पना कर नाचने लगते हैं, ‘‘देवा श्री गणेशा, जय जय श्री गणेश देवा’’।

डॉ. सुमन चौरे, लोक संस्कृतिविद् और लोक साहित्यकार, भोपाल

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