4- In Memory of My Father: मिल मजदूर से लेकर मॉर्डन लॉन्ड्री की स्थापना तक का सफ़र

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- In Memory of My Father: मिल मजदूर से लेकर मॉर्डन लॉन्ड्री की स्थापना तक का सफ़र
- In Memory of My Father: मिल मजदूर से लेकर मॉर्डन लॉन्ड्री की स्थापना तक का सफ़र
In Memory of My Father / मेरी स्मृतियों में मेरे पिता

जीवन में जितना पिता का महत्व है उतना शायद किसी और का नहीं है, पिता वो है जो हमारे खुशियों के लिए ना जाने कितनी ऐसी अपनी खुशी को हमारे लिए हंसते हंसते कुर्बान कर देते हैं। और उसकी भनक तक हमें लगने नहीं देते हैं। पिता वो फरिश्ता है जो हमें सिर्फ और सिर्फ देता है। पिता वो है जो हमें जिंदगी में पहला कदम रखने पर हमारी उंगली पकड़ हमें दुनिया दारी सिखाता है। पिता वो है जो कभी भी हमें दर्द में देखना नहीं चाहता है। पिता की जगह इस दुनिया में कोई नहीं ले सकता है ।जब पिता नहीं होते तब होता है पिता की  स्मृतियों में ही सही हम  कुछ सुकून खोज लेते है कई समस्याओं के हल पिता के स्मरण से ही स्वत: मिल जाते हैं । महात्मा  गांधी जिन्हें हम राष्ट्र पिता बुलाते हैं ,एक पिता जी जिम्मेदारी अपने परिवार के लिए निभाते हैं गांधीजी ने पूरे देश के लिए निभाई थी  इसीलिए उन्हें दुनिया बापू कहती है , हमने  बापू  की इस जयंती से पिता को लेकर एक शृंखला शुरू की  हैं मेरे मन मेरी स्मृतियों में मेरे पिता।इसकी 4 क़िस्त में   मीडियावाला के मौसम  विशेषज्ञ  श्री दिनेश सोलंकी अपने पिता स्वर्गीय श्री  मूलचंद सोलंकी जी का संघर्ष याद करते हुए उन्हें सादर  नमन  कर रहे हैं –

 

4- In Memory of My Father: मिल मजदूर से लेकर मॉर्डन लॉन्ड्री की स्थापना  तक का सफ़र

      साइकल से महू से इंदौर मिल तक ,वहां से  लेकर लॉन्ड्री स्थापना तक का लंबा सफर तय किया  

                           पिता स्वर्गः पिता धर्मः पिता परमकं तपः ।
                           पितरि प्रीतिमापन्ने सर्वाः प्रीयन्ति देवताः ॥

     हिंदी अनुवाद- “मेरे पिता मेरे स्वर्ग हैं, मेरे पिता मेरे धर्म हैं, वे मेरे जीवन की परम तपस्या हैं।
      जब वे खुश होते हैं, तब सभी देवता खुश होते हैं !

आज सोचता हूँ कि कैसे तय किया होगा उन्होंने यह कठिन सफ़र ,याद आती है तो आँखे नम हो जाती है ,शायद पिता होना इसी को कहते  हैं. मेरे पिता स्वर्गीय मूलचंद सोलंकी का जीवन कड़ी मेहनत और संघर्ष के दौर से बीता है। बेहद सीधे और सरल स्वभाव के मेरे बाबूजी जवानी में साइकिल से इंदौर तक का सफर प्रतिदिन किया करते थे और मिल में जाकर साल खाता चलाते थे। मेरी मां उनके लिए सुबह 4:00 बजे उठकर प्याज और जुवार की रोटी बांधकर कर देती थी। तब पिता के पास इंदौर महू के बीच चलने वाले रेल शटल का मात्र 5 रुपए मासिक पास का किराया भी नहीं होता था। एक एक पाई की बचत उनके लिए बहुत मायने रखती थी .

कड़ी मेहनत, लगन और शराफत को देखते हुए 1952 में तीन पार्टनरों ने मेरे पिता को चौथे पार्टनर के रूप में आमंत्रित किया और एम जी रोड स्थित रामपुरा वाला बिल्डिंग में मॉर्डन लॉन्ड्री की स्थापना की। साझेदारी में यह फर्म आज तक चल रही है।

मेरे पिता ने अपने दम पर न सिर्फ लॉन्ड्री चलाई, बल्कि तीन मंजिला भवन भी महू में स्थापित किया। वह 11 बच्चों के पिता थे। मेरे पिता ने लॉन्ड्री में जबरदस्त ख्याति प्राप्त की थी। वह लॉन्ड्री का काउंटर संभालते थे।
मुझे याद है तब देवास की महारानी यहां कपड़े धुलवाने आती थीं। कोई और पार्टनर की बजाय वह सीधे बोलती थी कि मूलचंद जी को बुलाइए। तब पिता को ही वे धुलाई के कपड़ों का आदान-प्रदान करती थीं।

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1992 में हमारे लॉन्ड्री के एक पार्टनर द्वारा गुंडों को लाकर दो पार्टनरों के साथ धोखाधड़ी की गई। उन्होंने मेरे पिता उनके दूसरे पार्टनर को दुकान से बाहर निकाल दिया। कोरे कागजों पर हस्ताक्षर करवा लिए। पिता इतने सीधे थे उन्होंने यह बात घर पर आकर किसी को नहीं बताई। वह रोज सुबह समय अनुसार घर से निकलते थे और शाम को महू घर पर लौटते थे। यदि घर पर कोर्ट का समन नहीं आता तो हमें पता ही नहीं चलता कि पिताजी से लॉन्ड्री छीनी जा चुकी थी और मामला उनके खिलाफ कोर्ट में लगा दिया गया था। वह उनके लिए बहुत मुश्किल समय था .लेकिन परिवार पर उन्होंने उसका असर नहीं आने दिया ,अकेले ही संघर्ष करते रहे .

मैं पिता की बहुत इज्जत करता था इसलिए मैंने संघर्ष किया और लॉन्ड्री में उन्हें साझेदारी के रूप में फिर से स्थापित करवाया।
आखरी समय में उनकी याददाश्त कमजोर हो गई थी लेकिन ऐसी कमजोर याददाश्त में भी वह लॉन्ड्री के 30 साल पुराने ग्राहकों को  नाम से याद करते थे और उन्हें ऐसा लगता था जैसे वह ग्राहक सामने ही खड़ा है उनसे बात भी करने लग जाते थे. आखरी बार एक दिन मैंने उनकी इच्छा पूछी थी क्या खाओगे बोले- मुझे बर्फ वाला गोला खाना है, मैं तुरंत लेकर आया था और अपने हाथ से खिलाया था। अफसोस यह भी है उनकी अंतिम सांस के समय मैं उनके पास नहीं था…

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आज मेरे पिता नहीं है मगर उनकी ईमानदारी, मेहनत ,उनके संघर्ष मेरी स्मृतियों में है,शायद वही सब रक्त बन कर  मेरे शरीर में भी बह रहा है. ये मेरी खुश नसीबी है ,मुझे गर्व है अपने संघर्षशील पिताजी , मैं गर्व से कहता हूँ मैं उनका बेटा हूँ । मैं उन्हें सादर नमन करता हूं।

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दिनेश सोलंकी.

लेखक पत्रकार हैं 

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