26.In Memory of My Father: आजादी के आंदोलन में पत्नी सहित जेल में रहे मेरे फ्रीडम फाइटर पिता स्व. श्री गोविंद लाल बरोनिया

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In Memory of My Father / मेरी स्मृतियों में मेरे पिता

पिता को लेकर mediawala.in में शुरू की हैं शृंखला-मेरे मन /मेरी स्मृतियों में मेरे पिता। इस श्रृंखला की 26th किस्त में आज हम प्रस्तुत कर रहे हैं पूर्व IFS अधिकारी श्री अशोक बरोनिया को। उनके पिता  स्व. श्री गोविंद लाल बरोनिया स्वतंत्रता संग्राम सेनानी रहे हैं. वे असहयोग आन्दोलन में किशोरावस्था से ही  जुड़ गए थे.उन्हें एक वर्ष के कारावास की सजा हुई थी .उनके परिवार का उस समय का संघर्ष दो बेटियों सहित पत्नी का भी जेल जाना बहुत बड़ी घटना थी .उन संघर्षों के साथ अपने पिता को याद करते हुए अपनी भावांजली दे रहे हैं अशोक बरोनिया …..

चिर प्रणम्य यह पुण्य अहन्, जय गाओ सुरगण,

आज अवतरित हुई चेतना भू पर नूतन!

नव भारत, फिर चीर युगों का तमस आवरण,

तरुण अरुण सा उदित हुआ परिदीप्त कर भुवन!

सभ्य हुआ अब विश्व, सभ्य धरणी का जीवन,

आज खुले भारत के सँग भू के जड़ बंधन!

शांत हुआ अब युग-युग का भौतिक संघर्षण

मुक्त चेतना भारत की यह करती घोषण!

धन्य आज का मुक्ति दिवस, गाओ जन-मंगल,

भारत लक्ष्मी से शोभित फिर भारत शतदल!

तुमुल जयध्वनि करो, महात्मा गाँधी की जय,

नव भारत के सुज्ञ सारथी वह निःसंशय!

राष्ट्र नायकों का हे पुनः करो अभिवादन,

जीर्ण जाति में भरा जिन्होंने नूतन जीवन!–सुमित्रानंदन पंत

26.In Memory of My Father: आजादी के आंदोलन में पत्नी सहित जेल में रहे मेरे फ्रीडम फाइटर पिता स्व. श्री गोविंद लाल बरोनिया

मेरे पिताजी स्वतंत्रता संग्राम सेनानी रहे हैं। पिताजी ने किशोरावस्था में ही 1921 में व्यक्तिगत असहयोग आंदोलन में महात्मा गांधी के आव्हान पर भाग लिया था। तब आंदोलनकारियों की छोटी-छोटी टुकड़ियां होती थीं। अपनी टुकड़ी का नेतृत्व मेरे पिताजी श्री गोविंद लाल बरोनिया किया करते थे।

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मेरे दादा स्व. श्री राम लाल बरोनिया जिला शिक्षा अधिकारी थे, तो घर का माहौल भी अपेक्षाकृत खुला-खुला था। ऐसे में पिताजी को स्वतंत्रता संग्राम में उतरने में घर के सदस्यों का ज्यादा विरोध नहीं झेलना पड़ा।

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1942 में अंग्रेजों भारत छोड़ो आंदोलन में मेरी माँ ने एक बड़े जुलूस का नेतृत्व किया था। उस समय पिताजी पहले से ही जेल में बंद थे। उन्हें एक वर्ष के कारावास की सजा सुनाई गई थी। ऐसे में जुलूस में नेतृत्व करने के कारण मां भी गिरफ्तार हुईं और उन्हें 6 माह के कारावास की सजा हुई। तब दो छोटी बेटियां भी हो चुकी थीं। अतः दोनों बच्चियां भी मां के साथ जेल में रहीं।

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एक बार का किस्सा है कि अंग्रेज जिला कलेक्टर जेल के दौरे पर आए। कलेक्टर साहब भले आदमी थे। पिताजी को देखकर कहा “बरोनिया जी आपका तो पूरा परिवार जेल में है तो आपको परिवार की चिंता भी नहीं रहती होगी।” खैर यह साथ अधिक दिन नहीं रहा। कुछ दिनों बाद पिताजी को जबलपुर जेल ट्रांसफर कर दिया गया और मां सागर जेल में ही दोनों बच्चियों के साथ बनी रहीं।

1947 में देश आजाद हुआ तो पिताजी ने शिक्षा विभाग में शिक्षक की नौकरी शुरु की ताकि अपने परिवार की गुजर-बसर कर सकें। इसी दौरान दोनों लड़कियों की बीमारी के चलते मृत्यु हो गई।

पिताजी सिद्धांतों के पक्के थे। मुझे याद है कि कोरबा में एक बार उनका एक छात्र अपने घर से घी लेकर आया। लेकिन पिताजी ने वह घी लौटा दिया और उससे कहा कि अब कभी ऐसा मत करना वर्ना दंडित करूंगा। तब पिताजी स्कूल के प्राचार्य थे।

मां और पिताजी को एक बात का और दुख होता था। वे कहा करते थे कि जो चोरी जेबकतरी आदि आपराधिक प्रकरणों में जेल में रहे उन्होंने भी रिश्वत देकर अपने को सरकार से स्वतंत्रता संग्राम सेनानी मनवा  लिया।

पिताजी खुले दिलोदिमाग के थे। वे समाज में व्याप्त कुरुतियों को नहीं मानते थे। घर में सरिता मुक्ता पत्रिकाएं आती थीं। इन पत्रिकाओं के कारण भी हम सभी हिंदु धर्म के ढकोसलों तथा अंधविश्वासों पर कतई विश्वास नहीं करते थे।

1975 में जब इंदिरा गांधी ने आपातकाल लागू किया तो पिताजी और मां दोनों आपातकाल के विरोधी रहे। जेपी आंदोलन में इसीलिए पिताजी का पूरा समर्थन आंदोलनकारियों के साथ रहा। लेकिन उनके ऊपर हम सबकी भारी-भरकम जिम्मेदारियां होने से वे सार्वजनिक रूप से न इंदिरा गांधी के विरोध में आए और न जेपी आंदोलन के पक्ष में।

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पिताजी जब 75 के दशक में रिटायर हुए तो उनकी सर्विस बहुत कम होने से पेंशन भी लगभग सौ रुपये मिला करती थी। इतनी कम राशि में हम चारों भाई बहन को पढ़ाना और घर खर्च चलाना बेहद कठिन था। सो किसी तरह घर में आटा चक्की लगवाई गई ताकि घर खर्च चल सके। घर की वित्तीय स्थिति इतनी खराब रही कि मैं 10 वीं पास करने के बाद से ही छोटे एक दो बच्चों को पढ़ाया करता था ताकि कम से कम मेरी स्वयं की पढ़ाई का कुछ खर्च निकल सके।

पिताजी की दिली इच्छा रही कि हम भाई बहन खूब पढ़ें। यही कारण है कि अभावों के बाद भी, उन्होंने हम भाई बहनों की पढ़ाई लिखाई में कोई कसर नहीं छोड़ी। माँ, पिताजी और बड़े भैया (स्व श्री संतोष बरोनिया) की लगातार प्रेरणा के कारण मैं पढ़ाई-लिखाई में हमेशा अच्छा रहा और मध्यप्रदेश लोकसेवा आयोग परीक्षा में प्रदेश में प्रथम स्थान के साथ 1978 में सहायक वन संरक्षक पद पर चयनित हुआ था।

मेरी माँ और पिताजी
मेरी माँ और पिताजी

पिताजी सख्त थे। उन्होंने हम भाई बहनों में ईमानदारी के साथ सीमित साधनों में भी गुजर-बसर करने के गुण डाले। पिताजी के शिक्षक होने के कारण बचपन से ही हम भाई बहनों में अच्छा साहित्य पढ़ने का शौक रहा। पुस्तकें हमें स्कूल लाइब्रेरी से मिल जाया करती थीं।

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पिताजी, मां की अपेक्षा हम से कम बात करते थे। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से उन्होंने बीए किया था। उस दौरान उन्होंने हाकी के जादूगर कहे जाने वाले मेजर ध्यान चंद के साथ कई बार हाकी खेली। मुझे याद है कि रिटायरमेन्ट के समय 55 वर्ष की उम्र में भी वे छात्रों के साथ हाकी खेला करते थे। संभवतः आज कल इतनी स्टेमिना वाले ढूंढें नहीं मिलेंगे। 1983 में पिताजी की मृत्यु के बाद मां ने ही हम सबको सहारा दिया। ईश्वर कृपा से तब तक हम भाई बहन कमाने लगे थे।

पिताजी के दिए संस्कार हम सब भाई बहनों में भी आए और हम में से किसी ने भी कभी अपने सिद्धांतों से समझौता नहीं किया।  जय हिंद !

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अशोक बरोनिया
– पूर्व IFS अधिकारी, मध्य प्रदेश शासन में मुख्य वन संरक्षक (Chief Conservator of Forest) के पद से सन 2015 में सेवानिवृत्त।

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