UP चुनाव: चिट्ट भी मेरी और पट्ट भी मेरी- पत्रकारिता जिंदाबाद

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“आज जो सत्ता पर बैठे तोपचंद हैं कल ये भी तमंचा प्रसाद बन सकते हैं, सो इसलिए इस मुगालते पर नहीं रहना चाहिए कि राजनीति में कोई अमरउती खाकर अवतरित हुआ है। हमारे चुनावी लोकतंत्र की यही महिमा है।”

राजनीति पर लिखना और बोलना पत्रकारिता का सबसे मजेदार कौतुक है, कुछ-कुछ ज्योतिषीय भविष्यवाणी के माफिक और शेष आईबी के अनुमान से मिलता-जुलता। यानी की घटना हो गई तो कह दिया- देखा न मैंने पहले ही कह दिया था कि ऐसे ही होगा। और नहीं हुई तो भी उसकी व्याख्या है- हमारे विश्लेषण के आधार पर वक्त रहते हालात सुधार लिए वरना वह तो तय था। यानी कि चिट्ट भी मेरी और पट्ट भी और पत्रकारिता जिन्दाबाद।
ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बनने के पहले  चर्चिल पत्रकार थे..खाँटी फील्ड रिपोर्टर। उन्होंने प्रथम विश्वयुद्ध की ग्राउन्ड जीरो से रिपोर्टिंग की जैसा कि आजकल हमारे टीवी पत्रकार मित्र करते हैं। पत्रकारिता को लेकर उनका एक कथन मुझे बहुत भाता है, वो यह कि- “अच्छा पत्रकार वही होता है, जो किसी घटना के होने से महीना भर पहले उसके होने की भविष्यवाणी कर दे और फिर अगले दो महीने तक ये बताता रहे कि जो घटना होनी थी, वो क्यों नहीं हुई।”
अब जैसे जिन्होंने आदित्यनाथ योगी के अयोध्या या मथुरा से चुनाव लड़ने की भविष्यवाणी की थी वे अब यह व्याख्या करने में भिड़े हैं कि योगी को इसलिए गोरखपुर से उतारा गया। भाजपा ने कभी भी कहीं भी न यह घोषणा की थी न ही संकेत दिया था कि योगी को मथुरा-अयोध्या से उतारा जा सकता है। यह निरा कोरा अनुमान हम पत्रकारों का था कि जिस तरह नरेन्द्र मोदी गुजरात से आकर बाबा   विश्वनाथ की काशी से लड़े थे वैसे ही भगवाध्वज-धुरंधर योगी रामजी या कृष्णजी की मातृभूमि से लड़ेंगे।
ऐसा अनुमान लगाने वाले यह गणित बैठा रहे थे कि योगी आगे चलकर दिल्ली में मोदी को स्थानापन्न करेंगे। जिनके अनुमान योगी को मथुरा-अयोध्या से लड़ाने में विफल रहे वे अब दिलचस्प विश्लेषण कर रहे हैं। उनके विश्लेषणों के कुछ दिलचस्प निष्कर्ष कुछ यू हैं..। यूपी के समीकरण कुछ यूँ बैठ रहे हैं कि यदि योगी गोरखपुर छोड़ कहीं बाहर से लड़ते तो वे मुख्यमंत्री रहते हुए हारने वाले तीसरे महापुरुष बनते सो समय रहते चेत गए। कइयों ने एक सुर से कहा और एक ही स्याही से लिखा- किसी का पर कतरने की अदा कोई नरेन्द्र मोदी से सीखे, योगी चले थे चौबे से छब्बे बनने उन्हें दुबे बनाकर वापस गोरखपुर मठ भेज दिया।
क्या आपको लगता है कि प्रदेश का अबतक का सबसे पावरफुल मंत्री यदि चाहता कि उसे अयोध्या या मथुरा से लड़ना है तो उसे कोई संगठन या हाईकमान रोक सकता था..? और आदित्यनाथ योगी ने तो जिद करके अप्रत्याशित तौर पर मुख्यमंत्री की कुर्सी अर्जित की थी। सो इसलिए जबतक चुनाव परिणाम नहीं आ जाते आपको पत्रकारों के ऐसे ही अनुमानी व हवाई विश्लेषणों से दो चार होना पड़ेगा.. मेरी राय यह है कि ऐसे विश्लेषणों पर मगजमारी करने की बजाय अखबारों की वर्गपहेली की तरह मजे लीजिए।
मैंने  एक पत्रकार के तौर पर 1984 से चुनाव की रिपोर्टिंग की है। पहला चुनाव था इंदिरा जी की हत्या के बाद जो राजीव गांधी के नेतृत्व में लड़ा गया। उस चुनाव में अनुमान या विश्लेषण की कोई गुंजाइश ही नहीं थी..कांग्रेस के पक्ष में आँधी बिल्कुल साफ दिख रही थी जो लोकसभा से लेकर विधानसभा के चुनावों तक एक सी रफ्तार में चली।
1989 के चुनाव में काफी कुछ रिपोर्टिंग लायक था जब वीपी सिंह बोफोर्स की तोप का मुँह कांग्रेस की ओर फेरकर मैदान पर कूदे। तब सोशलमीडिया नहीं था फिर भी भ्रष्टाचार के झूठे किस्सों से वोटर ऐसा भरमाया कि ऐतिहासिक और प्रचंड बहुमत वाली कांग्रेस सरकार भरभरा कर गिर गई। चुनावी लोकतंत्र की क्षणभंगुरता पर पहली बार यह दृढ़ मत बना कि आज जो सत्ता पर बैठे तोपचंद हैं कल ये भी तमंचा प्रसाद बन सकते हैं, सो इसलिए इस मुगालते पर नहीं रहना चाहिए कि राजनीति में कोई अमरउती खाकर अवतरित हुआ है।
किसी भी चुनाव को ऐसी ही संभावना के साथ देखा जा सकता है। अब यूपी चुनाव की बात ही लें। 2017 के बरक्स इस चुनाव में क्या-क्या असामान्य परिवर्तन देखने को मिल रहे हैं। यदि इसे आधार बनाकर चुनाव का भवितव्य देखेंगे तो आसानी होगी। आप चैनलों के पैनलियों, विश्लेषकों से ज्यादा सटीक अनुमान लगा सकते हैं।
पहला अनुमान.. हर चुनावी बसंत से पहले राजनीतिक बगीचों में पतझड़ आता है। इस बार किस बगीचे में ज्यादा पतझड़ नजर आ रहा है। विधायक और मंत्रियों की संख्या गिनें तो पता चल जाएगा कि पंछी किस बाग से किधर जाने को बेताब हैं। 2017 में इस तरह के मौसम का रुझान उल्टा था। कांग्रेस की मुख्यमंत्री दावेदार रहीं रीता बहुगुणा जोशी तक भाजपा की ओर कूद गईं थी।  इस दफे सपा की ओर आने वालों में से तीन चौथाई वही हैं जो सपा से या बसपा से कूदकर भाजपा की ओर गए थे।
एक चर्चित मंचीय कवि यूपी की राजनीति का अक्सर रोचक वर्णन करते हैं। यूपी की सरकार का हर मंत्री अपने मूल विभाग के साथ ही खेलकूद मंत्री भी हुआ करता है। पाँच साल सत्ता के पाले में खेलने के बाद वह भावी सत्ता के पाले में कूद सकता है। यूपी में ऐसे मंत्री विधायकों की संख्या कम से कम ढाई सौ से अधिक है जो तीन से चार बार पाला बदल चुके हैं। इन्हें रामविलास पासवान की भाँति मौसम का पूर्वानुमान पता होता है। सो इस कसौटी पर भी परखकर देखें कि किसका झोला ज्यादा भरा भरा सा है।
यूपी में 2014 का लोकसभा और 2017 का विधानसभा हिन्दू-मुसलमान के प्रचंड ध्रुवीकरण के बीच लड़ा गया। यथा योगी जी बार-बार कहते है कि यह चुनाव भी 80 बनाम 20 का है यानी हिन्दू और मुसलमान का। क्या वाकई यूपी में पूर्व सी स्थिति है ? यकीनन नहीं।
इस बार पिछड़ा तुष्टीकरण का मामला मुखपृष्ठ पर दिखता है, दलित वर्ग भी वहीं दिखना चाहता है..कुछ ही ऐसी तस्वीरें मीडिया सामने रख रहा है।
सामान्य या कहें सवर्ण तबका साँस बाँधे फिलहाल खड़ा है। सवर्णों में ठाकुर बनाम ब्राह्मण के वर्चस्व का मुद्दा है। यूपी के एक विश्लेषक ने वह पूरी सूची छाप दी कि योगी के एन्टी गैंगस्टर अभियान में कितने ब्राह्मण, कितने ठाकुर कितने मुसलमान मारे गए।
यहाँ गैंगबाजी भी बहुत मायने रखती है। इलेक्शन वाच और एडीआर जैसी संस्था बताती हैं कि यहाँ आधे से ज्यादा चुने हुए प्रतिनिधि आपराधिक पृष्ठभूमि वाले हैं..इनमें से कई स्वयं गैंगस्टर या गैंगस्टर्स के सहयोग से जीतने वाले। सो इस चुनाव में गैंगस्टर फैक्टर भी चलेगा..।
जाति और उपजाति के महत्वाकांक्षी नेताओं के छोटे-छोटे समूह हैं जो सपा व भाजपा से गठबंधन में फाक्स शेयर चाहते हैं। सौदेबाजियाँ खुले आम चल रही हैं। कुनबी-काछी-अहीर-पासी-माँझी-निषाद-बाल्मीकि-जाट समेत प्रायः सभी जातियों की राजनीतिक पर्टियाँ हैं जो अस्तित्व में आना चाहती हैं। मुसलमान पहली बार अप्रत्याशित चुप्पी में हैं। इन पर ज्यादा काम करने की जरूरत भी कोई नहीं समझ रहा, वजह सभी को पता है.।
अभी हम जो सुन जान रहे हैं वह राजनीतिक रूप से सक्रिय छोटे-बड़े नेताओं की बातें हैं जो मीडिया के माध्यम से सामने आ रही हैं। आम मतदाताओं का मूलस्वर अभी मुखर नहीं है। वह स्थितियों को नाप-तौल और भाँप रहा है। यह अवश्य है कि जातीय लंबरदार भले ही कितनी डीगें हाँके पर वे वोट के मामले में उनकी रौ में नहीं बहेंगे।
 आने वाले समय में सभी दलों की ये कोशिश होगी कि ऐसा क्या हो कि..ये रौ पर बहने लगें। इसके लिए सोशलमीडिया के पैतरे तो हैं ही  जिसने धीरे-धीरे कलाएं दिखाना शुरू भी कर दिया है। लेकिन असली खेल जिसे लेकर आप भी शंकित हो सकते हैं वह क्या-क्या हो सकते हैं..वे फिलहाल अनुमान से परे हैंं।
अभी पानी में हलचल ज्यादा है, इसे ठहर जाने दीजिए। दस पंद्रह दिनों के बाद जब मौसम का धुंधकाल छँटेगा तब कुछ चीजें स्पष्ट दिखने लगेंगी और उससे निकलने वाले संकेत भी। तब तक विश्लेषकों और चैनलों के पैनलियों की चुनावी मगजमारी का मजा लीजिए।