आजादी का इतिहास पढ़ने पर बहुत सारे विरोधाभासी तथ्य नजरों के सामने से गुजरते हैं। सभी तथ्य समसामयिक घटनाचक्र में अपनी जगह भले ही निर्विवाद रूप से स्वीकार्य रहे हों, लेकिन इतिहास पढ़ने पर यही तथ्य अलग-अलग व्यक्तित्वों का समालोचनात्मक विश्लेषण कर पारस्परिक संदर्भों में हर व्यक्तित्व की अलग-अलग छवि गढ़ने के गवाह भी बनते हैं। महात्मा गांधी को “राष्ट्रपिता” नाम से पहली बार संबोधित करने वाले “नेताजी” सुभाष चंद्र बोस के संदर्भ में जब पारस्परिक व्यवहार का विश्लेषण करते हैं तो दिमाग में बार-बार यह कौंधता है कि क्या अहिंसा के पुजारी राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की भूमिका देश के लिए सर्वस्व न्यौछावर करने वाले नेताजी सुभाष चंद्र बोस के प्रति हिंसा से भरी हुई प्रतीत होती है! यह न तो गांधी की आलोचना के लिए लिखा जा रहा है और न ही सुभाष चंद्र बोस के महिमामंडन के लिए ही। यह दोनों राष्ट्र के महानायक एक-दूसरे के प्रति असीम श्रद्धा और सम्मान से भरे थे। दोनों महान नायकों की राष्ट्र की आजादी में भूमिका को चुनौती नहीं दी जा सकती। एक-दूसरे से अलग-अलग विचारधारा होने के बाद भी दोनों शख्सियत ने अपनी-अपनी विचारधारा पर आगे कदम बढ़ाते हुए स्वतंत्रता संग्राम में अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया। आज भारत सुभाष चंद्र बोस की 125 वीं जयंती को “पराक्रम दिवस” के रूप में मना रहा है। नेताजी हो सकता है कि गांधी की तरफ देखकर मुस्करा रहे हों कि राष्ट्रपिता देखो राष्ट्र के प्रति त्याग और बलिदान कभी व्यर्थ नहीं जाता। आपके अहिंसा के मार्ग को मैं आज भी सैल्यूट करता हूं। तो गांधी अपना ऐनक संभालते हुए कह रहे हों कि नेताजी 125 साल बाद तुम्हारी तस्वीर और ज्यादा खुबसूरत नजर आ रही है। तुम्हारा क्रांति का मार्ग और आजाद हिंद फौज का गठन कर शहीद और स्वराज द्वीप को अंग्रेजों से मुक्त कराना, वाकई अविस्मरणीय था। दोनों के मन में आज भी एक-दूसरे के प्रति उतना ही सम्मान और आदर का भाव होगा, जितना कि अलग-अलग विचार होते हुए भी देश के स्वतंत्रता संग्राम में अपना सर्वस्व न्यौछावर करने में अलग-अलग रास्तों पर चलते हुए रहा होगा।
इस बहाने हम राष्ट्रपिता और नेताजी को याद कर लेते हैं। 1938 में कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन हरिपुरा में होना तय हुआ। इस अधिवेशन से पहले गांधी जी ने कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए सुभाष को चुना। यह कांग्रेस का 51 वाँ अधिवेशन था। इसलिए कांग्रेस अध्यक्ष सुभाष चन्द्र बोस का स्वागत 51 बैलों द्वारा खींचे हुए रथ में किया गया। इस अधिवेशन में सुभाष का अध्यक्षीय भाषण बहुत ही प्रभावी हुआ। किसी भी भारतीय राजनीतिक व्यक्ति ने शायद ही इतना प्रभावी भाषण कभी दिया हो। अपने अध्यक्षीय कार्यकाल में सुभाष ने योजना आयोग की स्थापना की। जवाहरलाल नेहरू इसके पहले अध्यक्ष बनाये गये। सुभाष ने बंगलौर में मशहूर वैज्ञानिक सर विश्वेश्वरय्या की अध्यक्षता में एक विज्ञान परिषद की स्थापना भी की।
1938 में गांधीजी ने कांग्रेस अध्यक्
ऐसा किसी दूसरे व्यक्ति के सामने न आने पर सुभाष ने स्वयं कांग्रेस अध्यक्ष बने रहना चाहा। लेकिन गांधी उन्हें अध्यक्ष पद से हटाना चाहते थे। गांधी ने अध्यक्ष पद के लिये पट्टाभिसीतारमैया को चुना। रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने गांधी को पत्र लिखकर सुभाष को ही अध्यक्ष बनाने का निवेदन किया। प्रफुल्लचन्द्र राय और मेघनाद साहा जैसे वैज्ञानिक भी सुभाष को ही फिर से अध्यक्ष के रूप में देखना चाहते थे। लेकिन गांधीजी ने इस मामले में किसी की बात नहीं मानी। कोई समझौता न हो पाने पर बहुत बरसों बाद कांग्रेस पार्टी में अध्यक्ष पद के लिये चुनाव हुआ। सब समझते थे कि जब गांधी ने पट्टाभिसीतारमैय्या का साथ दिया है तब वे चुनाव आसानी से जीत जायेंगे।
लेकिन वास्तव में सुभाष को चुनाव में 1580 मत और सीतारमैय्या को 1377 मत मिले। गांधीजी के विरोध के बावजूद सुभाष बाबू 203 मतों से चुनाव जीत गये। मगर चुनाव के नतीजे के साथ बात खत्म नहीं हुई। गांधीजी ने पट्टाभि सीतारमैय्या की हार को अपनी हार बताकर अपने साथियों से कह दिया कि अगर वे सुभाष के तरीकों से सहमत नहीं हैं तो वें कांग्रेस से हट सकते हैं। इसके बाद कांग्रेस कार्यकारिणी के 14 में से 12 सदस्यों ने इस्तीफा दे दिया। जवाहरलाल नेहरू तटस्थ बने रहे और केवल शरदबाबू सुभाष के साथ रहे। 1939 का वार्षिक कांग्रेस अधिवेशन त्रिपुरी में हुआ। इस अधिवेशन के समय सुभाष बाबू तेज बुखार से इतने बीमार हो गये थे कि उन्हें स्ट्रेचर पर लिटाकर अधिवेशन में लाना पड़ा। गांधीजी स्वयं भी इस अधिवेशन में उपस्थित नहीं रहे और उनके साथियों ने भी सुभाष को कोई सहयोग नहीं दिया। अधिवेशन के बाद सुभाष ने समझौते के लिए बहुत कोशिश की लेकिन गांधीजी और उनके साथियों ने उनकी एक न मानी। परिस्थिति ऐसी बन गयी कि सुभाष कुछ काम ही न कर पाये। आखिर में तंग आकर 29 अप्रैल 1939 को सुभाष ने कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया।
बस गांधी-सुभाष का यही आमना-सामना काफी नहीं है यह धारणा बनाने के लिए कि गांधी यहां पर सुभाष के प्रति हिंसा से भरे नजर आते हैं। इससे पहले भी भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरू की फांसी के मामले में भी गांधी के व्यवहार और सुभाष के दृष्टिकोण की जब-जब चर्चा होगी, तब भी गांधी के अहिंसात्मक रवैये की आलोचना होती है। चौरी-चौरा कांड इसका उदाहरण है कि गांधी ने सुभाष या देश को क्रांति से आजादी के दीवानों का विरोध नहीं किया। उनका विरोध सिर्फ हिंसा के मार्ग से था। जहां पर उन्होंने किसी के भी दबाव-प्रभाव में कभी भी समझौता नहीं किया। अब बीटिंग रिट्रीट से वह धुन हटाई जा रही है, जो गांधी को पसंद थी। लेकिन इसका मतलब यह कतई नहीं कि यह देश गांधी की भावना का सम्मान नहीं करता। हो सकता है कि गांधी कुछ साल और जिंदा रहते, तब पहले ही इस अंग्रेजी धुन को अलविदा कहने की इच्छा जाहिर कर देते।
फिलहाल तो यही माना जा सकता है कि गांधी ने विचारों के आधार पर किसी समकालीन महान व्यक्तित्व का विरोध किया हो या समर्थन, लेकिन मन में किसी के प्रति द्वेष का भाव कभी पैदा नहीं होने दिया। शायद यही वजह थी कि 21 अक्टूबर 1943 के दिन नेताजी ने सिंगापुर में आर्जी-हुकूमते-आज़ाद-हिन्द (स्वाधीन भारत की अन्तरिम सरकार) की स्थापना की। वे खुद इस सरकार के राष्ट्रपति, प्रधानमन्त्री और युद्धमन्त्री बने। इस सरकार को कुल नौ देशों ने मान्यता दी। नेताजी आज़ाद हिन्द फौज के प्रधान सेनापति भी बन गये। बाद में जय-पराजय के बाद 6 जुलाई 1944 को आज़ाद हिन्द रेडियो पर अपने भाषण के माध्यम से गांधीजी को सम्बोधित करते हुए नेताजी ने जापान से सहायता लेने का अपना कारण और आर्जी-हुकूमते-आज़ाद-हिन्द तथा आज़ाद हिन्द फौज की स्थापना के उद्देश्य के बारे में बताया। इस भाषण के दौरान नेताजी ने गांधीजी को राष्ट्रपिता कहा, तभी गांधीजी ने भी उन्हें नेताजी कहा। इसलिए दिमाग में कितनी भी उथल-पुथल हो और गांधी-बोस आजादी के संघर्ष में एक-दूसरे के सामने खड़े नजर आते रहें, लेकिन ऐसा विचार कभी भी मान्य नहीं होगा कि अहिंसा के पुजारी बापू, नेताजी सुभाष चंद्र बोस के मामले में हिंसक से नजर आते हैं। आजादी के संघर्ष का हर पात्र अपनी-अपनी भूमिका में सौ फीसदी खरा उतरने के काबिल था और यह सभी पात्रों ने सिद्ध करके भी दिखाया। पराक्रम दिवस पर नेताजी को यह देश सैल्यूट कर रहा है और करता रहेगा…।