‘लोकतंत्र हिंदी और भारतीय भाषाओं के बल पर ही चलेगा…’

297

लोकतंत्र हिंदी और भारतीय भाषाओं के बल पर ही चलेगा…’

कौशल किशोर चतुर्वेदी

महाराष्ट्र में हिंदी भाषा को लेकर विवाद लगातार जारी है और सियासी वजहों के चलते महाराष्ट्र की फडणवीस सरकार ने फिलहाल कदम पीछे खींच लिए हैं। पर इस बात से कतई इंकार नहीं किया जा सकता की हिंदुस्तान की कल्पना हिंदी के बिना नहीं की जा सकती। और आज हम एक ऐसे शख्स की बात कर रहे हैं जिनका सूचना क्रांति में अहम योगदान है। 16 जुलाई, 1917 को खुर्जा, बुलंदशहर ज़िला, उत्तर प्रदेश में जन्मे जगदीश चन्द्र माथुर 1939 ई. में प्रयाग विश्वविद्यालय से एम.ए. (अंग्रेज़ी) करने के बाद 1941 ई. में ‘इंडियन सिविल सर्विस’ में चुने गए‌‌। भारत में टेलीविज़न शुरू होने जा रहा था। माथुर साहब ने ही टीवी का नाम दूरदर्शन रखा था। दूरदर्शन का उद्घाटन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने किया था। उद्घाटन के बाद स्टाफ मीटिंग में माथुर साहब ने कहा था, “सरकार किसी भी भाषा से चलाई जाए पर लोकतंत्र हिंदी और भारतीय भाषाओं के बल पर ही चलेगा। हिंदी ही सेतु का काम करेगी, सूचना और संचार तंत्र के सहारे ही हम अपनी निरक्षर जनता तक पहुँच सकते हैं। भारत के बहुमुखी विकास की क्राँति यहीं से शुरू होगी।” उन्होंने कहा था कि ,”लोक संस्कृति के बिना शास्त्रीय कलाओं की शुचिता और सौंदर्य बाधित होगा। हमें एक क्षेत्र की लोक संस्कृति का अंतरसम्बंध दूसरे क्षेत्र की लोक संस्कृति से स्थापित करना पड़ेगा।” उन्होंने उस समय कहा था, “दूरदर्शन जैसे माध्यम की शक्ति को पहचानिए और जैसा कि पश्चिम के मीडिया पंडित कहते हैं, ‘मीडिया इज़ द मैसेज’ इस भ्रम को तोड़िए और साबित कीजिए कि ‘मैन बिहाइंड मीडिया इज़ द मैसेज’।”

 

प्रसिद्ध साहित्यकार कमलेश्वर के अनुसार जगदीशचंद्र माथुर एक साथ ही इंडियन सिविल सर्विस के वरिष्ठ प्रशासक, साहित्यकार और संस्कृति पुरुष थे। ज़माना नेहरू जी का था। ग़ुलामी से मुक्त होकर देश ने आज़ादी की साँस ली थी। परिवर्तन और निर्माण का दौर था। अंग्रेज़ों की दासता की दो सदियों के बाद आज़ाद देश के भविष्य की सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था को लोकतांत्रिक संस्थानों को सांस्कृतिक सवालों को तब जल्द से जल्द तय किया जाना, सुलझाना और उनकी दिशाएँ सुनिश्चित करने का दायित्व सामने था। परिवर्तन और राष्ट्र निर्माण के ऐसे ऐतिहासिक समय में जगदीशचंद्र माथुर, आईसीएस, ऑल इंडिया रेडियो के डायरेक्टर जनरल थे। उन्होंने ही ‘एआईआर’ का नामकरण आकाशवाणी किया था।

जगदीश चन्द्र माथुर हिन्दी के प्रसिद्ध साहित्यकारों में से एक थे, जिन्होंने आकाशवाणी में काम करते हुए हिन्दी की लोकप्रियता के विकास में महत्वपूर्ण योगदान किया। टेलीविज़न उन्हीं के जमाने में वर्ष 1949 में शुरू हुआ था। हिन्दी और भारतीय भाषाओं के तमाम बड़े लेखकों को वे ही रेडियो में लेकर आए थे। सुमित्रानंदन पंत से लेकर रामधारी सिंह ‘दिनकर’ और बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ जैसे दिग्गज साहित्यकारों के साथ उन्होंने हिंदी के माध्यम से सांस्कृतिक पुनर्जागरण का सूचना संचार तंत्र विकसित और स्थापित किया था।

अध्ययनकाल से ही उनका लेखन प्रारंभ होता है। 1930 ई. में तीन छोटे नाटकों के माध्यम से वे अपनी सृजनशीलता की धारा के प्रति उन्मुख हुए। प्रयाग में उनके नाटक ‘चाँद’, ‘रुपाभ’ पत्रिकाओं में न केवल छपे ही, बल्कि इन्होंने ‘वीर अभिमन्यु’, आदि नाटकों में भाग लिया। ‘भोर का तारा’ में संग्रहीत सारी रचनाएँ प्रयाग में ही लिखी गईं। यह नाम प्रतीक रूप में शिल्प और संवेदना दोनों दृष्टियों से जगदीशचन्द्र माथुर के रचनात्मक व्यक्तित्व के ‘भोर का तारा’ ही है। इसके बाद की रचनाओं में समकालीनता और परंपरा के प्रति गहराई क्रमशः बढ़ती गई है। व्यक्तियों, घटनाओं और देशके विभिन्न ऐतिहासिक स्थलों से प्राप्त अनुभवों ने सृजन में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। उनकी मुख्य कृतियां भोर का तारा (1946 ई.), कोणार्क (1950 ई.), ओ मेरे सपने (1950 ई.), शारदीया (1959 ईं), दस तस्वीरें (1962 ई.), परंपराशील नाट्य (1968 ई.), पहला राजा (1970 ई.), जिन्होंने जीना जाना (1972 ई.) हैं।

जगदीश चंद्र माथुर की एक अद्भुत रचना कोणार्क है। समसामयिक को अनुभव के रूप में अनुभूत करके उसकी प्रामाणिकता को संस्कृति के माध्यम से सिद्ध करने का जो आग्रह उनके नाटकों में हैं उसकी रचनात्मक संभावना का प्रमाण ‘कोणार्क’ में है। जगदीशचंद्र माथुर हिंदी के बहुत महत्वपूर्ण नाटककार थे। यों तो जयशंकर प्रसाद के बाद नाटक लेखन के क्षेत्र में लक्ष्मी नारायण मिश्र एक बड़ा नाम हैं पर इतिहास के परिप्रेक्ष्य में प्रसाद की परंपरा से अलग हटकर प्रयोगशील नाटक लिखने की पहल जगदीशचंद्र माथुर ने अपने अप्रतिम नाटक ‘कोणार्क’ से की। वे एक सिद्धहस्त एकांकीकार भी थे। उनकी प्रयोगशीलता का सफल प्रमाण यही है कि उनके सम्पूर्ण नाटक ‘कोणार्क’ में एक भी नारी पात्र नहीं है लेकिन फिर भी वह बेहद सफलतापूर्वक मंचित होकर दर्शकों का चहेता मंच नाटक बना रहा है। और आज भी वह कई संदर्भों में चर्चा का केंद्र बना रहता है। यह मामूली बात नहीं है क्योंकि ‘कोणार्क’ नाटक की रचना आज से लगभग छह दशक पहले हुई थी।

तो जगदीश चंद्र माथुर कि इस बात से हर हिंदुस्तानी सहमत होगा कि ‘सरकार किसी भी भाषा से चलाई जाए पर लोकतंत्र हिंदी और भारतीय भाषाओं के बल पर ही चलेगा।’ जगदीशचंद्र माथुर को याद करना, सूचना संचार माध्यमों में हुई क्राँति को याद करना है।

जगदीशचंद्र माथुर का निधन 14 मई, 1978 को हुआ था। यह उम्मीद की जा सकती है कि एक न एक दिन देश में हिंदी को वही सम्मान मिलेगा जिसकी कल्पना जगदीश चंद्र माथुर ने की थी।