Silver Screen: सिनेमा के परदे पर ‘दोस्ती’ के कथानकों का लंबा इतिहास!  

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Silver Screen: सिनेमा के परदे पर ‘दोस्ती’ के कथानकों का लंबा इतिहास!  

– हेमंत पाल

हिंदी फिल्मकारों के लिए दोस्ती की कहानियां एक तरह से आसान बिकाऊ फार्मूला रहा। एक फिल्म हिट होते ही, उसके आसपास नई कहानियाँ गूंथी जाने लगती है! प्यार में धोखा, खून का बदला खून, प्रेम त्रिकोण, भाइयों का बिछुड़ना और फिर मिलना, दोस्ती में ग़लतफ़हमी और फिर त्याग! ये ऐसे हिट फॉर्मूले हैं, जो फिल्मकारों को हमेशा रास आते रहे। इनमें ‘दोस्ती’ का फार्मूला हर समय काल में दर्शकों को रास आया। 1964 में बनी राजश्री की फिल्म ‘दोस्ती’ को अपने समय की सबसे हिट फिल्म माना जाता है। उसके बाद तो दोस्ती की मिसाल वाले इस विषय को कई बार घुमा फिराकर परोसा जाता रहा!

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हर दौर में दोस्ती की भावना को नए-नए तरीकों से पेश किया गया! जिनमें दोस्त, शोले, चुपके-चुपके, नमक हराम, हेराफेरी, शान, सुहाग, मुकद्दर का सिकंदर, राम-बलराम, दोस्ताना, सौदागर, खुदगर्ज, दिल चाहता है, जिंदगी ना मिलेगी दोबारा, रंग दे बसंती, काई पो चे और चश्मे बद्दूर जैसी फ़िल्में शामिल हैं। परदे पर दोस्ती के कथानक भाई-चारे, मुश्किलों में साथ खड़े रहने और दोस्त के लिए प्रेमिका का त्याग करने जैसे फार्मूलों के आसपास घूमते रहे हैं। ये कथानक दोस्ती के विभिन्न पहलुओं को उजागर करते हैं। लेकिन, बदलते समय के साथ इनमें तड़का भी लगता रहा। ‘थ्री इडियट्स’ और ‘जिंदगी न मिलेगी दोबारा’ ऐसी ही फ़िल्में हैं।

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अमिताभ बच्चन के स्वर्णकाल की ज्यादातर फिल्मों का केंद्रीय विषय भी दोस्ती रहा! अमिताभ ने कई फिल्मों में दोस्ती की भावना पेश की! फिर वो चाहे जंजीर, शोले, नमक हराम, हेराफेरी, शान, सुहाग, दोस्ताना हो या मुकद्दर का सिकंदर! याद कीजिए अमिताभ के साथ हर फिल्म में कोई दोस्त जरूर रहा। निजी जीवन में भी अमिताभ और विनोद खन्ना के बीच अच्छी दोस्ती के बारे में कभी पढ़ा नहीं गया, लेकिन परदे पर इन दोनों ने कई बार दोस्ती को जीवंत किया! इनमें हेराफेरी, मुकद्दर का सिकंदर जैसी फिल्में शामिल हैं। ‘दोस्ताना’ में शत्रुघ्न सिन्हा के साथ अमिताभ की दोस्ती मिसाल के रूप में याद की जाती है। 1975 की बनी ‘शोले’ में जय और वीरू की दोस्ती के जज्बे को बेहद खूबसूरती से दर्शाया गया! इस जोड़ी ने बाद में ‘चुपके-चुपके’ और ‘राम बलराम’ जैसी फिल्मों में भी दोस्ती दिखाई! राजेश खन्ना के साथ अमिताभ ने ‘आनंद’ और ‘नमक हराम’ में दोस्ती को जीवंतता दी! शशि कपूर के साथ ईमान धरम, शान और ‘सुहाग’ में अमिताभ ने यही दोस्ती निभाई!

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धर्मेंद्र भी उन कलाकारों में हैं, जिन्होंने कई एक्टर्स के साथ दोस्ती का किरदार अदा किया। धर्मेंद्र की दोस्ती शत्रुघ्न सिन्हा और विनोद खन्ना के साथ कई बार बनी! इसके बाद अनिल कपूर-जैकी श्रॉफ, अक्षय कुमार-सुनील शेट्टी और संजय दत्त-गोविंदा की दोस्ती पर कई फ़िल्मी कहानियाँ बनी! 1991 में सुभाष घई ने फ़िल्मी दुनिया के दो दिग्गजों दिलीप कुमार और राजकुमार को दोस्ती की डोर में बांधा और ‘सौदागर’ बनाई! इस फिल्म को भी दोस्ती के लिहाज से श्रेष्ठ फिल्म कहा जा सकता है। बीच में एक दौर ऐसा भी आया, जब दोस्ती में प्यार का तड़का लगने लगा! दो दोस्तों की दोस्ती के बीच एक लड़की आ जाती है! फिर या तो गलतफहमी पनपती है या प्रेम त्रिकोण बन जाता है! क्लाइमैक्स में या तो ग़लतफ़हमी दूर हो जाती है या फिर एक दोस्त का त्याग सामने आता है! लड़की के कारण दोस्तों में टकराव का ये चलन शायद राज कपूर, राजेंद्र कुमार की फिल्म ‘संगम’ फिल्म से शुरू हुआ था। जो भी हो, फिल्म का अंत सुखांत ही होता रहा। याद किया जाए तो ऐसी फिल्मों की कमी भी नहीं! लेकिन, प्रयोग के तौर पर हाल ही में कुछ ऐसी फ़िल्में भी बनाई गई जिनमें दोस्ती तो थी, पर फिल्म का केंद्रीय विषय कुछ और ही था! थ्री इडियट्स, दिल चाहता है, जिंदगी ना मिलेगी दोबारा, रंग दे बसंती, कुछ कुछ होता है, दिल तो पागल है और चश्मे बद्दूर! इन फिल्मों ने दर्शकों को दोस्ती के कई नए रंग दिखाए!

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आज की कुछ फिल्मों का कैनवास दोस्तों के सपनों के साथ उनके आंतरिक टकरावों पर भी फोकस रहा! कहीं विचारों में मतभेद होने के बावजूद दोस्त एक-दूसरे का नजरिया समझने की कोशिश करते हैं। कहीं अलग-अलग सामाजिक और आर्थिक हालात वाले दोस्त एक सपने के साथ आगे बढ़ते हैं और टीम बनाकर उसे पूरा करते हैं। यही कारण है कि अब दोस्ती और विचारधारा के बदलाव की कहानियों पर भी फ़िल्में बनने लगी है। दोस्ती के बहाने कुछ अलग ढंग की कहानियाँ भी कही जा रही है। ये फ़िल्में बताती है कि जीवन में खुद से बात करना, अपने सपनों से बात करना और दोस्तों से सपनों को शेयर करना कितना जरूरी है। दोस्ती में सपनों के साथ उनके टकरावों की कहानी भी कुछ फिल्मों की कथावस्तु रही है। लेकिन, दोस्तों के बीच टकराव कही भी इतने बड़े नहीं होते कि वो पूरी दोस्ती को प्रभावित कर दें। ऐसी ही एक फिल्म है ‘जिंदगी न मिलेगी दोबारा’ जिसमें तीन पुराने दोस्त सिर्फ मौज-मस्ती के लिए घूमने निकलते हैं और दर्शक बंधे रहते हैं।

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दोस्ती पर आधारित कुछ पसंद की गई फिल्मों में ‘दोस्ती’ (1964) है, जो दो गरीब दोस्तों रामू और मोहन की कहानी है। रामू विकलांग है और मोहन की आंखें नहीं है। वे एक-दूसरे के साथ मिलकर जीवन की चुनौतियों का सामना करते हैं। ‘आनंद’ (1971) एक डॉक्टर और एक कैंसर से पीड़ित मरीज के बीच गहरी दोस्ती हो जाती है। इस फिल्म में जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण और दोस्ती पर जोर दिया है। यह फिल्म नैतिकता और आदर्श से लबालब है। फिल्म में कोई भी खलनायक नहीं है। ‘दोस्ती में गोविंद मूनिस ने रामनाथ और मोहन को अनाथ रखा। हिंदी फिल्मों के अनाथ बच्चे भटकाव के शिकार होते हैं। वे या तो किसी गुंडे की गिरफ्त में आ जाते हैं और अपराध की दुनिया में विचरण करने लगते हैं या फिर अभाव और असहाय जिंदगी से दर्शकों को द्रवित करते हैं। ‘दोस्ती’ में रामनाथ और मोहन आत्मनिर्भर होने की कोशिश करते हैं। परस्पर समर्पण और शिक्षा के माध्यम से वे आगे बढ़ना चाहते हैं।

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एक बार उनके गाने से खुश होकर कोई राहगीर उनकी जेब में सिक्का डाल देता है, तो रामनाथ नाराज हो जाता है। उसे वह भीख लगती है। मोहन उसे समझाता है कि उसने मांगा तो नहीं, किसी ने खुश होकर कुछ दिया तो वह भीख कैसे हुई। पढाई के लिए पैसों का इंतजाम न होने पर वे गाते-बजाते हैं। ताराचंद बड़जात्या ने इस फिल्म के लिए सत्येन बोस से आग्रह किया था कि वह सुधीर कुमार और सुशील कुमार जैसे नए कलाकारों को मुख्य भूमिकाओं में लें। 1964 का साल याद करें, तब हिंदी सिनेमा में राज कपूर, शम्मी कपूर, धर्मेन्द्र, जितेंद्र से लेकर किशोर कुमार जैसे लोकप्रिय सितारों की धूम थी। राजश्री के कास्टिंग को-ऑर्डिनेटर नंद किशोर कपूर ने इन नई प्रतिभाओं को ताराचंद बडजात्या की बेटी राजश्री के सुझाव पर फिल्मों से जोडा। यह आश्चर्यजनक बात है कि ‘दोस्ती’ के बाद में सुधीर और सुशील कुमार को फिल्में नहीं मिलीं। जबकि, इसी फिल्म में पहली बार आए अब्बास खान उर्फ संजय खान आगामी वर्षों में पॉपुलर स्टार बने। ‘दोस्ती की रिलीज के साल (1964) ही राज कपूर की ‘संगम, मोहन कुमार की ‘आई मिलन की बेला, शक्ति सामंत की ‘कश्मीर की कली, चेतन आनंद की ‘हकीकत और राज खोसला की ‘वो कौन थी जैसी फिल्में पॉपुलर स्टार के साथ रिलीज हुई थीं। ‘दोस्ती ने इन सभी फिल्मों का मुकाबला किया।

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सर्वकालिक हिट ‘शोले’ (1975) दो दोस्तों वीरू और जय की कहानी पर टिकी है, जो डाकू गब्बर सिंह को पकड़ने के लिए एक साथ आते हैं। ‘दिल चाहता है’ (2001) तीन दोस्तों, आकाश, समीर और सिद्धार्थ, की कहानी है जो अपनी जिंदगी के अलग-अलग पड़ावों से गुजरते हुए दोस्ती के महत्व को समझते हैं। ‘जिंदगी न मिलेगी दोबारा’ (2011) भी तीन दोस्तों की कहानी है जो बैचलर पार्टी के लिए स्पेन जाते हैं और वहां अपनी दोस्ती के नए आयाम ढूंढते हैं। ‘3 इडियट्स’ (2009) तीन इंजीनियरिंग छात्रों की कहानी है, जो अपनी पढ़ाई, करियर और जीवन के बारे में अलग-अलग दृष्टिकोण रखते हैं, पर उनकी दोस्ती बनी रहती है। ‘काय पो छे’ (2013) भी तीन दोस्तों पर टिकी है, जो एक क्रिकेट अकादमी खोलने का फैसला करते हैं और एक साथ काम करते हैं। ‘छिछोरे’ (2019) कॉलेज के दोस्तों के ग्रुप की कहानी है, जो एक-दूसरे से जुड़े रहते हैं और दोस्ती को समझते हैं। ‘आरआरआर’ (2022) दो क्रांतिकारियों की दोस्ती की कहानी है, जो अंग्रेज शासन के खिलाफ लड़ते हैं।