Russia-ukraine war: यूक्रेन त्रासदी और याचक मानसिकता
यूक्रेन से हाल ही में लौटे कुछ विद्यार्थियों ने सकुशल ठेठ अपने घर पहुंच जाने के बाद कहा कि सरकार ने उन्हें दिल्ली से सोनकच्छ,बड़वानी,गुवाहाटी या बैंगलुरु आने का न किराया दिया, न प्रबंध किया। कितनी विचित्र बात है ना। जो सरकार अपने कूटनीतिक पराक्रम,अपनी प्रतिष्ठा और अपने दबदबे के चलते खूनम झार हो रहे यूक्रेन से आपको सकुशल निकाल लाई, फिर भी आप हैं कि संतुष्ट नहीं हैं। ऐसे में कर्नाटक के उस छात्र नवीन शेखरप्पा के अभिभावकों को सरकार को क्या कहना चाहिय,जो भोजन की तलाश में सडक़ पर निकला और गोलीबारी में अनायास मारा गया।
आखिर हमें ये क्या हो गया है, जो हम हर हाल में सरकार को कोसते हैं,आलोचना करते हैं,उसके माथे ठीकरा फोड़ देते हैं। क्या हमारा समाज इतना संवेदनहीन,स्वार्थी,गैर जिम्मेदार हो गया है? घर तक न पहुंचाने का दोष सरकार पर मढऩा देश में बढ़ती जा रही याचक मानसिकता का प्रतीक है, जिसमें व्यक्ति खुद तो हाथ पर हाथ धरे बैठे रहना चाहता है, लेकिन उसे सरकार से सब कुछ फोकट में चाहिये।
ठीक वैसे ही जैसे इन दिनों पांच राज्यों में हो रहे विधानसभा चुनाव में कमोबेश सारे ही राजनीतिक दलों द्वारा मतदाताओं को लुभाने के लिये पूरा घर सजा देने की घोषणायें की गई हैं। बिजली,पानी,मेट्रो में यात्रा,गैस सिलेंडर,चूल्हा,टीवी,केबल कनेक्शन,रेफ्रीजेटर,स्कूल फीस,लेपटॉप और भी न जाने क्या-क्या सब मुफ्त। जैसे, ये घोषणायें न हुईं, पंजेरी का प्रसाद हो गया, जो रास्ते चलते को पकड़-पकड़ कर दे दिया जाता हो। बहरहाल ।
मुद्दे की बात यह है कि बीच युद्ध में यूक्रेन में हवाई जहाज ले जाकर अपने नागरिकों को निकालकर लाना क्या पोहे-चाय बनाने और खाने जैसा है? ऐसा क्यों है कि युद्ध शुरू हुए एक हफ्ता बीता है और भारत में कुछ लोग ऐसे चिल्ला रहे हैं, जैसे यूक्रेन में हो रहे युद्ध और वहां फंसे विद्यार्थियों के लिये भारत सरकार ही जिम्मेदार है। तो इन भले मानसों से मेरा सवाल है कि भाई,क्या आप यूक्रेन किसी बरात में गये थे, जो आपको ठेठ घर तक लौटाने की व्यवस्था भी करना थी और साथ में आलू की सब्जी-पराठे या पूड़ी भी देना थी।
जो विद्यार्थी अपनी मर्जी से अपने भविष्य को बेहतर बनाने के लिये अपने अभिभावकों द्वारा मोटी रकम खर्च कर यूक्रेन भेजे गये हैं, उनके मौजूदा हालात के लिये सरकार को कोसना जिम्मेदारी पूर्ण आचरण तो नही माना जा सकता। बावजूद इसके भारत सरकार ऐसी कोई कोशिश नहीं छोड़ रही, जो संभव है। यही वजह है कि करीब 20 हजार विद्यार्थियों में से 17 हजार तक भारत ले आये गये हैं और सिलसिला जारी है। तीन केंद्रीय मंत्रियों ने यूक्रेन के करीबी देशों में मोर्चा संभाल रखा है, ताकि कोई भी फैसला तत्काल लिया जा सके। अब कोई सोचता है कि भारत सरकार ने तो अपने नागरिकों के लाने के लिये युद्धक विमान और सेना ही भेज देना चाहिये तो उनके ईमान,धरम और मानसिकता को समझा जा सकता है।
दरअसल,मसला यूक्रेन में फंसे,वहां से लौटा लाये लोगों का नहीं है। मुद्दा यह है कि देश में बीते कुछ बरसों से ऐसा एक समूह सक्रिय है, जो अवसर तलाशता है, सरकार को घेरने के। उसे सही-गलत,तर्क,कारण से लीजे-दीजे नहीं । उसकी रट तो यही है कि मेरी मुर्गी की डेढ़ टांग है। पहले यूक्रेन गये विद्यार्थियों की बात कर लेते हैं। सबसे पहले तो किसी को यह भ्रम हो कि ये आर्थिक रूप से कमजोर,गरीब,मेहनत,मजदूरी करने वाले निम्न वर्गीय परिवार से हैं तो वैसा कुछ नहीं है। ज्यादातर वहां एमबीबीएस करने गये हैं।
वहां पढ़ाई के लिये जाने की अर्थ व्यवस्था समझ लेते हैं। हमारे ढाई रुपये का मूल्य यूक्रेनी मुद्रा में एक रुपया है। 6 वर्षीय इस डिग्री के लिये शैक्षणिक शुल्क औसत 30 लाख रुपये है। एक साल का किराया 45 हजार रुपये। मेडिकल बीमा 20 हजार। स्वास्थ्य परीक्षण 13 हजार। पंजीयन 6500। मुंबई,दिल्ली से यूक्रेन तक का हवाई किराया न्यूनतम 30 हजार रुपये। इस हिसाब को जोड़ा जाये तो 6 वर्ष का न्यूनतम कुल खर्च होता है 50 लाख रुपये। संभव है अधिकतर ने शैक्षणिक कर्ज लेकर रूख किया हो। तब भी क्या यह रकम ऐसी है कि कोई ऐरा-गैरा इसे वहन कर सकता है?
अब मेेरा सवाल यह है कि जो व्यक्ति अपने बच्चे की पढ़ाई के लिये अपने खून-पसीने की कमाई का 50 लाख रुपये वहन करने का माद्दा रखता है,उसे दिल्ली,मुंबई से अपने होनहार को घर लाने के लिये खर्च किये गये 2-4 हजार रुपये इतने अखरे कि सीधे सरकार पर उपेक्षा,अनदेखी,बदइंतजामी के आरोप लगा दिये। क्या हमारा जमीर इतना जर्जर हो चुका है कि हम इतनी हल्की बात करें। इस तरह तो किसी दिन लोग सुबह अपना पेट साफ न होने के लिये भी सरकारों को दोष देने लगेंगे।
इस गैर जिम्मेदाराना व्यवहार के लिये वे बच्चे या उनके अभिभावक ही जवाबदार नहीं हैं, बल्कि एक समूचा तंत्र ऐसे मौकों पर काम पर लग जाता है। यह तबका वक्त की नजाकत,स्थान,मुद्दा नहीं देखता। वह तो इसे स्वर्णिम अवसर मानता है और शुरू हो जाते है मीडिया,सोशल मीडिया,अर्जी,आवेदन,जनहित याचिका,धरना,प्रदर्शन जैसे खटकरम। हैरत इस बात की भी है कि मीडिया भी किसी मसले को तार्किकता पर नहीं परखता। इतने बड़े अभियान की प्रधानता छोडक़र वह उन चेहरों को मासूम और पीडि़त बताने में जुट जाता है, जो सरकार पर अंगुली उठाते हैं।
रहे इस देश के विरोधी राजनीतिक दल तो वे कटिबद्ध हैं अड़ंगे डालने के लिये। इन विपक्षी दलों,इनके आकाओं,समर्थकों,एकतरफा दृषिटकोण रखने वाले मीडिया महानुभावों और बात-बेबात सरकार पर छींटाकशी करने वाले समूहों,सरमायेदारों से मेरा पूरी विनम्रता से एक सवाल है। इनमें से कितनों ने ऐसे संकट के समय दोषारोपण की बजाय मुक्त कंठ से प्रशंसा की,सरकार का साथ दिया? चलिये यूक्रेन मसले की ही बात कर लेते हैं।
क्या किसी राजनीतिक दल या उनके अरबपति मालिकों(अध्यक्ष नहीं मानता,क्योंकि ज्यादातर दलों को कंपनी की तरह चला रहे हैं, दल की तरह नहीं )ने कहा कि उनका दल या वे अपने खर्चे से विद्यार्थियों को भारत लायेंगे। कितनों ने सरकार से कहा कि लाइये इस अभियान में हम क्या मदद कर सकते हैं, बताइये,जवाबदारी दीजिये। क्या इस देश में हर मौके पर सरकार पर कीचड़ उछालने वालों में से ऐसे पचास-सौ लोग भी नहीं हैं, जो दिखावे भर के लिये,औपचारिकता निभाने के लिये ही सही, यह कह सकते कि वे मुश्किल की इस घड़ी में सरकार के प्रयासों की सराहना करते हैं और सरकार जो चाहे, वो सहायता करने का संकल्प लेते हैं। खासकर वे लोग, जो हाल ही तक चुनाव में प्रलोभनों की रेवडिय़ां बांटते फिरे हैं, अब मुंह में दही जमाये बैठे हैं।
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साथ ही वे लोग, जो अपने बच्चों को डॉलर कमाने की मशीन बनाने की नीयत से विदेश भेजते हैं, उन्हें संकट के समय सरकार से सहयोग पाने का पूरा हक तो है, किंतु देश लौट आने के बाद अपने घर तक आने का किराया या यात्रा की व्यवस्था न करने के लिये कोसने का अधिकार नहीं है। देश किसी की बरात नहीं, जो घर पर दलिया खाने वाला भी पहला हाथ रसगुल्ले पर साफ करे, फिर भी घर लौटकर कहे कि पूड़ी का तेल अच्छा नहीं था या मिठाई केवल दो ही थी। इस फोकटिया मानसिकता से नहीं उबरे तो विदेश में शिक्षा दिलवाकर वे देश पर कोई एहसान कर रहे हैं, इस अहसास को ढोते-ढोते कब रीढ़ की हड्डी चटक जायेगी पता भी नही चलेगा।