संसदीयशास्त्र के समाजवादी पुरोधा

रवि राय को इसलिए भी जानना जरूरी!

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समाजवाद के दिग्गज स्तंभ रवि राय की आज पुण्यतिथि है। 6 मार्च 2017 के दिन कटक में उन्होंने ने इहलोक से प्रस्थान किया।
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सतहत्तर में पहली बार उनके बारे में जाना जब यमुना प्रसाद शास्त्री जी लोकसभा सदस्य चुनकर दिल्ली पहुंचे तो शास्त्री जी से आत्मिक लगाव रखने वालों में चंद्रशेखर जी, सुरेन्द्र मोहनजी,रामकृष्ण हेगडे जैसे महापुरुषों के साथ रवि रायजी भी थे।
शास्त्री जी जब 89 मे दुबारा लोकसभा पहुंचे इस बार रवि राय लोकसभा अध्यक्ष निर्वाचित हुए। यद्यपि वे डा.लोहिया के अऩुगामी थे और शास्त्री जी आचार्य नरेन्द्र देव के फिर भी शास्त्री जी के प्रति उनका अगाध स्नेह था। यही वजह थी कि वे शास्त्री जी को सदन में बोलने के लिए विशेष अवसर देते थे।
 उन्ही के प्रोत्साहन की वजह से शास्त्री जी ने..काम का अधिकार, खाद्य सुरक्षा, शिक्षा का अधिकार, सूचना का अधिकार जैसे अशासकीय संकल्प सदन में रखे। कालान्तर में यूपीए सरकार ने इन पर कानून बनाए।
  रवि राय साहब जब उडीसा में समाजवाद की जाजम बिछा रहे थे तब विन्ध्यप्रदेश में समाजवाद का जोर परवान पर था। जगदीश जोशी यहाँ के एकछत्र नेता थे। रीवा लोहिया, जयप्रकाश, नरेन्द देव जैसे दिग्गजों की राजनीति प्रयोगशाला बना। जोशी जी,रवि रायजी दोनों ही डा. लोहिया के हरावल दस्ते के योद्धा थे।
जोशी जी द्वारा सुनाए कई संस्मरणों,प्रसंगों में रवि राय जी थे। मैं कभी इनसे साक्षात तो नहीं मिल पाया पर दैनिक भास्कर का संपादकीय पेज देखते हुए रवि रायजी के कई टेली इन्टरव्यू किए व लेख, टिप्पणी की शक्ल में छापा।
 शास्त्री और जोशी जी के संदर्भ ने मुझे इतना निकट तो पहुंचा ही दिया था कि मेरा फोन नं. मेरे नाम से फीड कर लिया और जब भी मैंने उनका स्मरण किया उन्होंने सहजता से संसदीय मामलों में अपनी राय दी। देश इस संसदीय योद्धा का चिर ऋणी रहेगा।
नौवीं लोक सभा के चुनावों ने भारत के संसदीय लोकतंत्र में एक नए युग का सूत्रपात किया। कोई भी एक राजनैतिक दल सदन में पूर्ण बहुमत प्राप्त नहीं कर सका और इस प्रकार भारतीय संसद के इतिहास में पहली बार, “त्रिशंकु संसद” बनी।
 इस अभूतपूर्व राजनीतिक अनिश्चितता के बावजूद, लोक सभा के सदस्यों ने दलगत भावनाओं से ऊपर उठकर श्री रवि राय को सर्वसम्मति से नौवीं लोक सभा का अध्यक्ष चुना।
 अंतर्निहित सादगी तथा पारदर्शी निष्कपटता से संपन्न रवि राय ने अपने निष्पक्ष तथा विवेकपूर्ण रवैये से अध्यक्ष पद के सम्मान तथा गरिमा में वृद्धि की।
रवि राय का जन्म 26 नवम्बर, 1926 को उड़ीसा में भगवान जगन्नाथ की नगरी के रूप में विख्यात जिला पुरी के भानगढ़ गांव में हुआ। उन्होंने राज्य के एक उत्कृष्ट महाविद्यालय, रावेनशॉ कॉलेज, कटक से इतिहास में स्नातक की उपाधि प्राप्त की और बाद में कटक के मधुसूदन लॉ कॉलेज में कानून की शिक्षा ग्रहण की।
 उनके भावी राजनैतिक सफर की शुरूआत उस समय हुई जब 1948-49 में रावेनशॉ कॉलेज छात्र संघ के अध्यक्ष पद पर और तत्पश्चात् 1949-50 में मधुसूदन लॉ कॉलेज छात्र संघ के प्रथम अध्यक्ष के रूप में उनका निर्वाचन हुआ।
रवि राय अन्य देशवासियों की भांति स्वतंत्रता संघर्ष की ओर आकृष्ट हुए। देशभक्ति और देश-प्रेम का अतिरेक और विदेशी शासन के प्रति घृणा का भाव छात्र-काल से ही उनमें कूट-कूट कर भरा हुआ था।
वर्ष 1947 के प्रारम्भ में, स्नातक शिक्ष प्राप्त करते हुए उन्होंने राष्ट्रीय झंडा फहराने के सिलसिले में गिरफ्तारी दी। हालांकि देश में तब भी विदेशी शासन था, तथापि ब्रिटिश सरकार को अन्ततः शैक्षणिक संस्थाओं में तिरंगा फहराने की छात्रों की मांग के सामने झुकना पड़ा।
कॉलेज के दिनों से ही समाजवाद में प्रबल विश्वास रखने वाले रवि राय 1948 में सोशलिस्ट पार्टी में एक सदस्य के रूप में भर्ती हुए। नेतृत्व का अन्तर्जात गुण होने और समाजवादी कार्यों के प्रति गहन वचनबद्धता के कारण वे समाजवादी आंदोलन में हमेशा आगे रहे।
 वर्ष 1953-54 के दौरान वे अखिल भारतीय समाजवादी युवक सभा के संयुक्त सचिव के पद पर कार्यरत रहे। वर्ष 1956 में उन्होंने डा.राममनोहर लोहिया के नेतृत्व में उड़ीसा में सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना की। उस अवधि के दौरान वह सोशलिस्ट पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य भी रहे।
 बाद में 1960 में उन्होंने लगभग एक वर्ष के लिए दल के महासचिव का कार्यभार संभाला। सांसद के साथ रवि राय पहले-पहल 1967 में जुड़े जब उड़ीसा राज्य के पुरी निर्वाचन क्षेत्र से चौथी लोक सभा के लिए उनका निर्वाचन हुआ। उस अवधि के दौरान वे संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी (एस.एस.पी.) के संसदीय दल के नेता भी रहे।
अपनी स्पष्टवादिता, निष्कपट विचारों और सकारात्मक विरोध के लिए विख्यात रवि राय वाग्मकौशल से सम्पन्न सांसद थे। संसदीय वाद-विवाद और बल्कि समूचे राष्ट्रीय जन-जीवन में उनका योगदान जितना व्यापक था, उतना ही सुसमृद्ध भी था।
 वर्ष 1974 में उड़ीसा राज्य से उनका राज्य सभा के लिए चुनाव हुआ और वर्ष 1980 में उन्होंने अपनी सदस्यता का सम्पूर्ण कार्यकाल पूरा किया।
वर्ष 1977 में छठी लोक सभा के लिए हुए आम चुनावों के परिणामस्वरूप केन्द्र में एक नयी राजनैतिक व्यवस्था कायम हुई।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से लगातार राष्ट्रीय राजनैतिक क्षितिज पर छाए हुए कांग्रेस दल को पहली बार केन्द्रीय सत्ता से हाथ धोना पड़ा और तत्पश्चात् जनता पार्टी की सरकार बनी।
रवि राय की नःस्वार्थ सेवा से प्रभावित होकर प्रधान मंत्री मोरारजी देसाई ने जनवरी, 1979 में उन्हें स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्री की हैसियत से अपने मंत्रिमंडल में शामिल किया और उन्होंने जनवरी, 1980 तक यह कार्य-भार संभाला।
 वे 1977-80 की अवधि के दौरान जनता पार्टी के महासचिव भी रहे।
नौवीं लोक सभा के लिए आम चुनाव 1989 में हुए और रवि राय उड़ीसा के केन्द्रपाड़ा निर्वाचन क्षेत्र से जनता दल के टिकट पर लोक सभा में पुनः निर्वाचित हुए।
 दिनांक 19 दिसम्बर, 1989 को सर्वसम्मति से नौवीं लोक सभा के अध्यक्ष पद के लिए उनका चुनाव हुआ। इस उच्च पद की कड़ी जिम्मेदारी और निष्पक्षता के बारे में जागरूक रवि राय ने सदस्यों को आश्वस्त किया कि जब तक वे अध्यक्ष पद पर रहेंगे, वह दलगत राजनीति से ऊपर उठकर कार्य करेंगे और सबके प्रति निष्पक्ष रहेंगे।
हालांकि रवि राय अध्यक्ष पद पर केवल साढ़े पन्द्रह महीने की अल्पावधि के लिए ही आसीन रहे तथापि उन्हें प्रत्येक सत्र में बहुत सी चुनौतियों का सामना करना पड़ा और उन्होंने इसका सामना कुशलता और दृढ़ता से किया।
कुछ पेचीदा प्रक्रियात्मक और तत्संबंधी मुद्दों पर निर्णय देने के अलावा उन्होंने कुछ नई प्रथाओं की शुरूआत भी की जिससे आम जनता की आशाओं और आकांक्षाओं को प्रतिबिंबित करने वाली संस्था के रूप में संसद के कार्यकरण में निश्चित रूप से और अधिक निखार आया है।
अध्यक्ष की हैसियत से रवि राय द्वारा लिए गए सर्वाधिक महत्वपूर्ण और दूरगामी निर्णय जनता दल के विभाजन के उपरांत कुछ सदस्यों की लोक सभा की सदस्यता समाप्त किए जाने के मुद्दे से संबंधित हैं।
6 नवम्बर, 1990 को जनता दल का विभाजन होने के बाद 58 सदस्यों ने यह दावा किया कि उन्होंने जनता दल के एक अलग गुट का प्रतिनिधित्व करने वाले दल का गठन कर लिया है और उन्होंने इस दल का नाम जनता दल (एस) रखा है। विभाजन के समय और सदस्यता समाप्त किये जाने के समय के बारे में दावे और जवाबी-दावे किए गए।
 इन जटिल मुद्दों से निपटने में अध्यक्ष रवि राय को कठिनाई हुई, किन्तु अत्यधिक जिम्मेदारी की भावना दिखाते हुए उन्होंने इस बारे में निर्णय लेने से पहले इस मुद्दे के सभी पहलुओं की तटस्थतापूर्वक जांच की।
 निष्पक्ष रूप से निर्णय करने की क्षमता में उनकी कानूनी जानकारी ने काफी सहायता की। वास्तव में यह एक अभूतपूर्व निर्णय था।
अध्यक्ष के रूप में रवि राय द्वारा लिया गया एक अन्य महत्वपूर्ण निर्णय यह था कि उन्होंने पहली बार भारत के राष्ट्रपति को संबोधित किए गए उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश को पद से हटाए जाने के संबंध में प्रस्तुत किये गये प्रस्ताव की सूचना को स्वीकार किया।
इस प्रस्ताव को स्वीकार करने के पश्चात् उन्होंने उपरोक्त न्यायाधीश को पद से हटाए जाने के संबंध में दिए गए कारणों की जांच-पड़ताल के लिए एक समिति का गठन किया। चूंकि कानूनी प्रावधानों के अंतर्गत इस प्रस्ताव की अपनी एक अवधि होती है, अतः दूसरे प्रस्तावों की भांति लोक सभा के भंग होने की स्थिति में यह कालातीत नहीं होता। इस प्रस्ताव पर अंततः दसवीं लोक सभा द्वारा निर्णय लिया गया।
अध्यक्ष पद पर रहते हुए रवि राय ने सदन के प्रक्रिया एवं कार्य-संचालन संबंधी नियमों में कतिपय परिवर्तन किए ताकि सदस्यों को लोकहित के महत्वपूर्ण एवं आवश्यक मुद्दों को सदन में उठाने के अधिक से अधिक अवसर मिल सकें।
यद्यपि लोक सभा के प्रक्रिया तथा कार्य-संचालन नियमों के अंतर्गत “शून्यकाल” को कोई मान्यता नहीं दी गई है, फिर भी सदस्यों द्वारा लोकहित के महत्वपूर्ण एवं आवश्यक मुद्दों की तरफ सदन का ध्यान आकर्षित करने के लिए इसका उपयोग किया जाता रहा है।
“शून्यकाल” के दौरान सदन की कार्यवाही को नियमित करने के लिए रवि राय ने कुछ संस्थागत व्यवस्थाएं दीं, ताकि सदन के समय का बेहतर उपयोग किया जा सके।
सदन में विभिन्न राजनैतिक दलों और ग्रुपों के नेताओं के विचार जानने के पश्चात् यह व्यवस्था दी कि लोकहित के महत्वपूर्ण एवं आवश्यक मामलों पर संक्षिप्त निवेदन करने के लिए सात सदस्यों को बारी-बारी से अनुमति प्रदान की जाए, बशर्ते कि उन्होंने बैठक के दिन प्रातः 10.30 बजे तक इसकी सूचना दे दी हो।
सदन में सभी वर्गों द्वारा इस व्यवस्था की सराहना की गई क्योंकि इससे सदन में महत्वपूर्ण मामलों को सुव्यवस्थित तरीके से उठाने तथा सदन के समय का श्रेष्ठतम उपयोग किए जाने में सहायता मिली है। साथ ही इससे सदन को अथवा इसके एक बड़े वर्ग को आंदोलित करने वाले मामलों में सरकार को प्रतिबद्धता दिखाने को बाध्य किया जा सकता है।
भारतीय संसद में संसदीय समितियों का कार्यकरण राजनीतिक व्यवस्था के लिए काफी सहायक सिद्ध हुआ है।
 आधुनिक कल्याणकारी राज्यों की बढ़ती हुई जटिलताओं के मद्देनज़र इस बात की आवश्यकता महसूस की गई कि यूनाइटेड किंगडम, आस्ट्रेलिया, कनाडा और न्यूजीलैंड के ढांचे पर विभिन्न विषयों पर आधारित समितियों का गठन किया जाए, ताकि वे प्रशासनिक कार्य-निष्पादन की गहन व लगातार जांच-पड़ताल से संबंधित सम्पूर्ण प्रशासनिक पहलुओं को अपने अंदर समेट लें।
आठवीं लोक सभा की नियम संबंधी समिति ने प्रायोगिक आधार पर विषयों पर आधारित तीन विभागीय समितियों – कृषि, पर्यावरण और वन तथा विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के गठन की सिफारिश की थी।
अध्यक्ष रवि राय ने आशा प्रकट की कि तीन नई समितियां विषयों पर आधारित स्थायी समितियों की व्यापक व्यवस्था की अग्रदूत बन जाएंगी और इनसे संसदीय निगरानी वर्तमान व्यवस्था के मुकाबले अधिक वास्तविकतापूर्ण बन जाएगी।
अध्यक्ष रवि राय ने सदस्यों को सार्वजनिक वितरण व्यवस्था के माध्यम से खाद्य पदार्थों की उपलब्धता, पीने के पानी की सुविधा, आवास, स्वास्थ्य सुविधाएं, जोतने वाले के लिए जमीन, कृषि संबंधी आदानों, रोजगार, कुटीर एवं लघु उद्योगों का विकास, प्राथमिक शिक्षा, शोषण के विरूद्ध संरक्षण तथा गरीब एवं कमजोर वर्गों के उत्पीड़न आदि जैसे आम आदमी को प्रभावित करने वाले मामलों को अधिक से अधिक उठाए जाने के अवसर प्रदान करके लोक सभा की प्रक्रिया को एक नई दिशा दी।
उन्होंने राष्ट्र से संबंधित मामलों, जैसे साप्रदायिक दंगों, महंगाई, योजना और विकास, राष्ट्र की सुरक्षा को सुदृढ़ करने आदि जैसे मामलों को भी प्राथमिकता दी, ताकि सदन इन संवेदनशील मामलों पर अपनी चिन्ता और विचार व्यक्त कर सके।
 उन्होंने सदन में होने वाले विचार-विमर्श को एक योग्य निर्देशन दिया ताकि वाद-विवाद से कोई सकारात्मक और रचनात्मक परिणाम सामने आएं।
अध्यक्ष रवि राय के कार्यकाल में पहली बार प्रधानमंत्री वी.पी. सिंह द्वारा प्रस्तुत विश्वास प्रस्ताव पर उसी दिन बहस किए जाने के उपरान्त स्वीकृत किए जाने का एक इतिहास रचा गया। ग्यारह माह बाद फिर से इतिहास रचा गया, जब पहली बार कोई विश्वास प्रस्ताव अस्वीकृत हुआ जिसके परिणामस्वरूप श्री वी.पी. सिंह की सरकार गिर गई।
यह मामला काफी समय से विचाराधीन था कि संसद के चैम्बरों में टी.वी. कैमरों को किस सीमा तक प्रवेश करने की अनुमति दी जाए। इसकी सार्थक शुरूआत रवि राय के कार्यकाल के दौरान ही की गई, जब 20 दिसम्बर, 1989 को केन्द्रीय कक्ष में समवेत संसद की दोनों सभाओं के सदस्यों के समक्ष दिए गए राष्ट्रपति के अभिभाषण का दूरदर्शन और आकाशवाणी से सीधा प्रसारण किया गया।
इससे अगले वर्ष भी संसद में राष्ट्रपति के अभिभाषण का दूरदर्शन पर सीधा प्रसारण किया गया। तत्पश्चात् रवि राय ने संसद के दोनों सदनों की कार्यवाही का दूरदर्शन पर सीधा प्रसारण करने में आने वाली लागत, तकनीकी सम्भाव्यता तथा वांछनीयता आदि की जांच करने के लिए संसद के दोनों सदनों की एक संयुक्त उप-समिति का गठन किया।
रवि राय का मानना था कि संसदीय कार्यवाही का दूरदर्शन पर सीधा प्रसारण करने से संसद आम जनता के और करीब आ पाएगी।
रवि राय का विचार था कि अध्यक्ष संसद का संरक्षक ही नहीं, बल्कि अंतर संसदीय संबंधों को बढ़ावा देने और सुदृढ़ करने में भी उसकी एक अहम भूमिका होती है।
 उन्होंने साथी देशों में संसदीय शिष्टमंडलों के आदान-प्रदान को बढ़ावा देकर द्विपक्षीय संबंधों को प्रोत्साहन दिया और संसदीय कूटनीति को एक नई दिशा प्रदान की।
 उन्होंने प्रायः इस बात पर बल दिया कि संसदीय कूटनीति के द्वारा विचारों के आदान-प्रदान का तथा समस्याओं को उठाने का अवसर प्राप्त होता है एवं परस्पर सहयोग द्वारा आम समस्याओं को सुलझाया भी जा सकता है।
अपने कार्यकाल के दौरान अध्यक्ष रवि राय ने विभिन्न देशों में गए संसदीय प्रतिनिधिमंडलों का नेतृत्व किया। उन्होंने निकोसिया व पुन्टा डेल एस्टी में अप्रैल, 1990 तथा अक्तूबर, 1990 में हुए क्रमशः 83वें तथा 84वें अन्तर-संसदीय सम्मेलनों में भारतीय संसदीय प्रतिनिधिमंडल का भी नेतृत्व किया। इसके अतिरिक्त रवि राय ने सितम्बर, 1990 में हरारे में हुए 36वें राष्ट्रमंडलीय संसदीय सम्मेलन में भी भाग लिया।
 उन्हें जनवरी, 1990 में हरारे में हुए राष्ट्रमंडल देशों के अध्यक्षों तथा पीठासीन अधिकारियों के दसवें सम्मेलन में भारतीय संसदीय प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व करने का भी अवसर प्राप्त हुआ। वर्ष 1991 में उन्हें राष्ट्रमंडल संसदीय संघ का अध्यक्ष चुना गया।
रवि राय सदैव इस बात के लिए इच्छुक रहे कि आने वाली पीढ़ियों का हमारे राष्ट्रीय नेताओं द्वारा दिए गए बहुमूल्य योगदान से अवगत कराया जाए।
इनके कार्यकाल में भारतीय संसदीय ग्रुप ने ऐसे विशिष्ट सांसदों, जिन्होंने देश के स्वतंत्रता आन्दोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई तथा देश में संसदीय प्रणाली के विकास के साथ-साथ आधुनिक भारत के निर्माण में विशेष योगदान दिया, को याद करने के लिए बैठकें, सेमिनार, गोष्ठियां आदि आयोजित करके तथा “सुविख्यात सांसद पर मोनोग्राफ सीरीज़” के अंतर्गत इन सांसदों का मोनोग्राफ निकाल कर इनका जन्म दिन मनाने का निर्णय लिया।
 फलस्वरूप इस श्रृंखला के अंतर्गत डा. राम मनोहर लोहिया, डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी, पंडित नीलकंठ दास, पनमपिल्ली गोविंद मेनन, भूपेश गुप्त, डा. राजेन्द्र प्रसाद, शेख मुहम्मद अब्दुल्ला, डा. बी.आर. अम्बेडकर, डा. सी.डी. देशमुख, जयसुख लाल हाथी, वी.के. कृष्णा मेनन, एम. अनंतस्यनम आयंगर, एस.एम. जोशी, डा. लंका सुंदरम्, राजकुमारी अमृत कौर तथा पंडित मुकुट बिहारी लाल भार्गव आदि के मोनोग्राफ निकाले गए।
रवि राय बहुत सी सरकारी और गैर-सरकारी संस्थाओं के साथ विभिन्न पदों पर लम्बे अरसे से सक्रिय रूप से जुड़े हुए हैं। वर्ष 1974 में वे केन्द्रीय रेशम बोर्ड के सदस्य थे तथा वर्ष 1977-78 के दौरान प्रेस काउंसिल के चेयरमैन रहे।
 वर्ष 1975 में वे लोक लेखा समिति के भी सदस्य रहे और 1977-78 के दौरान लोकपाल विधेयक पर बनी संयुक्त प्रवर समिति के सदस्य रहे।
 समाज कल्याण संगठनों में क्रियाशील रहते हुए वे लोहिया अकादमी तथा ग्राम विकास फाउंडेशन के अध्यक्ष भी रहे। रवि राय आदर्शवाद और मानवतावाद से जुड़े कार्यकर्ता थे।
समाजवाद उनके लिए महज एक बौद्धिक विचार ही नहीं था अपितु वास्तविक जीवन में भी उन्होंने इसे अपनाया। उनका यह दृढ़ विश्वास था कि शोषित वर्ग की दशा को सुधारने के लिए समाजवाद बहुत ही प्रभावशाली साधन है।
अपने आरम्भिक वर्षों में उन्होंने स्वैच्छिक श्रम जुटाकर गांवों में सड़कें बनाना आदि जैसे बहुत से रचनात्मक कार्यों में भी भाग लिया।
 उन्होंने अध्ययन केन्द्र तथा युवा क्लब जैसे “समाजवादी निर्माण केन्द्र” आदि भी शुरू किए, ताकि समाजवादी पद्धति के आधार पर एक सुदृढ़ तथा व्यापक युवा एवं किसान आन्दोलन का उदय हो सके।
अध्ययन एवं गांधीवादी नीतियों पर आधारित सामाजिक गतिविधियों में भाग लेने तथा अन्य रुचियों के अतिरिक्त साहित्य के क्षेत्र में भी उनकी उपलब्धियां रही हैं।
 उन्होंने उड़िया भाषा की एक मासिक पत्रिका “समता” तथा तत्कालीन सोशलिस्ट पार्टी द्वारा निकाली जाने वाली हिन्दी साप्ताहिक पत्रिका “चौखम्बा” का सम्पादन किया। संसदीय कूटनीति पर उनके द्वारा लिखी गई पुस्तक काफी चर्चित रही।
यद्यपि दसवीं लोक सभा के बाद रवि राय चुनावों में खड़े नहीं हुए किन्तु राजनैतिक कार्यकर्ता के रूप में अंतिम दिनों तक बुद्धिजीवी मंचों में भाग लेते रहे हैं।
(स्त्रोत: लोकसभा संदर्भ)