जीवन अनिश्चित है, कर्म उसे दिशा देते हैं

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जीवन का सबसे बड़ा रहस्‍य जीवन स्‍वयं है। अगले पल की भी खबर नहीं। यदि जीवन के नियम प्रकृति के नियमों की तरह स्‍पष्‍ट होते, सूर्य के उदय और अस्‍त की तरह समय पर जन्‍म और मृत्‍यु होती, चंद्रमा की कलाओं की तरह जीवन का विकास या ह्रास होता तो विज्ञान, कला, धर्म आदि का विकास ही नहीं हुआ होता। क्‍या यह अनिश्चितता पूरी तरह अराजक है या इसके पीछे भी कोई नियम है? हम कैसे अपने भविष्‍य को सुनिश्चित कर सकते हैं? इसी पहेली की खोज में विभिन्न दर्शनों का उदय हुआ और उनका व्‍यवहारिक स्‍वरूप धर्मों के रूप में सामने आया।

भारतीय दर्शनों में इस पर विस्‍तृत विचार हुआ। ऋषियों ने ध्‍यान की गहनतम अवस्‍थाओं में सत्‍य को अनुभूत किया। इस‍के परिणामस्‍वरूप हिंदू धर्म के चार आधार बताए गये – ईश्‍वर, जीव, कर्म और पुनर्जन्‍म। जिस प्रकार ईश्‍वर का अंश जीव है – ईस्‍वर अंस जीब अबिनासी  (तुलसीदासजी) – उसी प्रकार कर्मबंधन का परिणाम पुनर्जन्‍म है, पर यह सब इतना सरल नहीं है। कर्म चेतना की किस स्थिति में हुआ है, कर्ता उसमें कितना आसक्‍त है, स्‍वमेव हुआ है या सचेतन स्थिति में सप्रयास हुआ है इस आधार पर एक ही क्रिया कर्म, विकर्म, अकर्म आदि श्रेणी में आ जाती है जिनके परिणाम अलग-अलग हैं। कर्म की गति अत्‍यंत कठिन है – गहना कर्मणो गति: (गीता 4.17)। कर्म किस प्रकार करें कि फल बंधन न बन पाएँ यही कर्मों की कुशलता है – योग: कर्मसु कौशलम् (गीता 2.50)। परंतु यह गहन विचार इस छोटे से लेख की परिधि से बाहर हैं। इसलिए हम कर्म के साधारण स्‍वरूप और नियमों पर चर्चा करेंगे।

जीवन अनिश्चित है, कर्म उसे दिशा देते हैं

कर्म का पहला नियम यह है कि हम किसी भी क्षण कर्म किये बगैर नहीं रह सकते – न हि कश्चित् क्षणम् अपि जातु तिष्‍ठत्‍य् अकर्मकृत् (गीता 3.5) । हमारा उठना, बैठना, चलना, बोलना, खाना-पीना सभी तो कर्म हैं। इनके बिना जीवन नहीं चल सकता। इसलिए हमें हर  क्षण कर्म करना पड़ता है। दूसरा नियम है हम कर्म करने, न करने, मनचाहे तरीके से करने के लिए स्‍वतंत्र हैं। हम किसी को मारें या न मारें, प्रेम करें या न करें, किस तरीके से मारें या किस प्रकार अपने प्रेम को अभिव्‍यक्‍त करें यह हम तय कर सकते हैं। इसमें पूर्ण स्‍वतंत्रता है। तीसरा नियम है कि जैसे ही कर्म होगा उसका फल पैदा हो जाएगा। इस फल के चयन में हमें कोई स्‍वतंत्रता नहीं है। जैसे भौतिक जगत में हर क्रिया की प्रतिक्रिया होती है, यथा रबर की गेंद को दीवार में मारेंगें तो वह उछल कर वापस आएगी, इसी प्रकार हर कर्म का फल मिलेगा ही, हम चाहें या न चाहें। इन दोनों नियमों को मिलाकर गीता कहती है – कर्मण्‍य् एवाधिकारस्‍ते मा फलेषु कदाचन (गीता 2.47)। तुलसीदासजी कहते हैं – करम प्रधान बिस्‍व करि राखा। जो जस करइ सो तस फलु चाखा।

चौथा नियम है कि कर्म अपना फल तो देंगे परंतु इसमें लगने वाला समय हर कर्म के लिए भिन्‍न-भिन्‍न होगा। जैसे हम धान का बीज बोऍंगे तो वह तीन दिन में अंकुरित हो जाएगा और तीन माह में एक ही बार में सम्‍पूर्ण फसल दे देगा पर आम की गुठली 15 दिन में अंकुरित होगी और आम का पेड़ 50 सालों तक फल देता रहेगा। कर्म भी बीज है जो परिपक्‍व होने पर ही फल देगा। इस आधार पर कर्मों को तीन भागों में बॉंटा जाता है। जो कर्म तत्‍काल अपना फल दे देते हैं उन्‍हें क्रियमाण कर्म कहते हैं। जैसे मुझे प्‍यास लगी और मैनें पानी पी लिया तो इसका फल तत्‍काल होगा प्‍यास बुझ जाएगी। यह कर्म यहीं फल देकर समाप्‍त हो गया। दूसरा वह कर्म है जो फल नहीं दे पाया, वह धरती में पड़े बीज की तरह है उसे अंकुरित होने में समय लगेगा । यह समय कर्म के अनुसार कुछ भी हो सकता है। इसे संचित कर्म कहते हैं। जो संचित कर्म समय  पाकर अंकुरित हो गया है वह अपना फल देगा ही उसे प्रारब्‍ध या भाग्‍य कहते हैं।


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पाँचवाँ नियम है कि कर्मों का फल पृथक्-पृथक् भोगना होगा। एक अच्‍छा कर्मफल और बुरा कर्मफल मिलकर शून्‍य नहीं हो सकते। मनु और शतरूपा, तप के परिणामस्‍वरूप अगले जन्‍म में दशरथ और कौसल्‍या हुए, उन्‍हें चक्रवर्ती राज्‍य, धन-धान्‍य, समृद्धि और पुत्र रूप में श्रीराम मिले। परंतु दशरथ के द्वारा श्रवणकुमार के वध के परिणामस्‍वरूप उन्‍हें पुत्र वियोग में ही मरना पड़ा। श्रीराम ने भगवान् होकर भी कर्म के इस नियम का पालन कराया।

हमारे जन्‍म जन्‍मांतरों के कर्मों का पहाड़ हमारे पीछे लगा है। इसमें कुछ संचित कर्म हैं जो समय पाकर अपना फल देंगे। वहीं कुछ परिपक्‍व होकर अपना फल दे रहे हैं। यही भाग्‍य है। विचार करें तो पाएँगे कि भाग्‍य कुछ नहीं हमारे ही पूर्व कर्मों का संचित फल है। आज के हमारे कर्म ही कल का भाग्‍य बन रहे हैं। कर्मों का फल भोगना आवश्‍यक है इसीलिए संचित कर्मों और प्रारब्‍ध के कारण पुनर्जन्‍म होता है। यदि कर्मफल समाप्‍त हो जाऍं तो पुनर्जन्‍म का कारण ही समाप्‍त हो जाएगा, यही मुक्ति है जो सनातन धर्म का सर्वोच्‍च लक्ष्‍य है। निष्‍काम कर्म वह तरीका है जिससे कर्म तो होते हैं परंतु वह फल नहीं देते। ऐसे कर्म भुने हुए बीज हैं जो अंकुरित नहीं हो सकते। इसी प्रकार संचित कर्मों और प्रारब्‍ध से छुटकार पाने का तरीका है ज्ञान की अग्नि में कर्म भस्‍म कर देना – ज्ञानाग्नि: सर्वकर्माणि भस्‍मसात् कुरुते तथा (गीता 4.37)। परन्‍तु यह विचार अध्‍यात्‍म में आगे बढ़ चुके साधक के लिए हैं।

इस लेख में हमारा विषय है कि साधारण मनुष्‍य अपने जीवन की अनिश्चितता को कैसे कम करे? जैसा कि पूर्व में कहा है कर्म ही भविष्‍य का भाग्‍य बनता है। इसलिए आज की मेहनत, कर्म के प्रति समर्पण भविष्‍य में किसी न किसी रूप में मदद करेगा। पुरुषार्थ ही समय पाकर प्रारब्‍ध बनता है। एक प्रश्‍न आता है कि पूर्व के कर्म जो हमें याद भी नहीं हैं, से खराब प्रारब्‍ध निर्मित हो गया है, तो उसे हम किस सीमा तक पुरुषार्थ से बदल सकते हैं? इसे गीता में गणित के सूत्र की तरह स्‍पष्‍ट किया है – किसी भी कर्म की सफलता के लिए पाँच कारक हैं – अधिष्‍ठान, कर्ता, करण, चेष्‍टा और भाग्‍य -अधिष्‍ठानं तथा कर्ता करणं च पृथग्विधम्। विविधाश्‍च पृथक्‍चेष्‍टा दैवं चैवात्र पंचमम् (गीता 18.14)। अधिष्‍ठान है आधार, हमारा स्‍वनियंत्रण, दृढ़ संकल्‍प आदि; कर्ता हैं हम स्‍वयं और प्रकृति प्रदत्‍त हमारे गुण; करण का अर्थ है कार्य करने में सहायक सामग्री, हमारी इन्द्रियाँ; चेष्‍टा है हमारे प्रयास और दैव का अर्थ है पूर्व कर्मों से निर्मित भाग्‍य या प्रारब्‍ध।


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इस प्रकार सफलता का पाँचवाँ भागीदार भाग्‍य है शेष 80 प्रतिशत तो पुरुषार्थ के हाथ में है। इसलिए 20 प्रतिशत कार्यों में भाग्‍य सफलता दिला दे पर 80 प्रतिशत में तो हमारी मेहनत, लगन और श्रम ही सफलता का कारक होगा। दूसरी तरह से इसे ऐसे समझें कि यदि किसी परीक्षा में 80 अंक सफलता के लिए आवश्‍यक हैं। तीन परीक्षार्थियों का भाग्‍य उन्‍हें अपने हिस्‍से में से 20, 10 और 0 अंक दे रहा है तो सफलता के लिए प्रथम को मात्र 60 अंक, दूसरे को 70 अंक और तीसरे को 80 अंकों का पुरुषार्थ करना होगा ताकि वे सफलता के 80 अंक को छू सकें। यदि तीसरा 75 अंक का पुरुषार्थ करता है पर भाग्‍य का सहयोग शून्‍य होने के कारण शेष दोनों से अधिक पुरुषार्थ के बाद भी वह सफल नहीं हो पाएगा। यदि सफलता का अंक 95 है तो पहले को 75 अंकों का पुरुषार्थ आवश्‍यक है परंतु दूसरा पुरुषार्थ पूरे 80 अंक का करे परंतु सफल नहीं हो पाएगा क्‍योंकि उसका भाग्‍य अधिकतम 10 अंक ही दे रहा है।

इस प्रकार कर्म अर्थात् पुरुषार्थ और भाग्‍य अर्थात् प्रारब्‍ध एक ही सिक्‍के के दो पहलू हैं। कर्म भाग्‍य को बदल सकता है पर ऐसा तत्‍काल हो यह आवश्‍यक नहीं। इसलिए जीवन अनिश्चित है। जब जीवन में, भाग्‍य के अभाव में, कर्म तत्‍काल फल न दे पाये तब निराश होने की जगह उस परिस्थिति का उपयोग कर नये रास्‍ते तलाशना ही पुरुषार्थ है। इसके लिए ईश्‍वर ने हमें पूरी स्‍वतंत्रता दी है।