घृणा और माचिस की आग से जलता देश

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घृणा और माचिस की आग से जलता देश

घृणा और माचिस की आग से जलता देश

देश घृणा और माचिस की आग से जल रहा है। विगत कुछ दिनों से भारत भूमि में जो कुछ हो रहा है वह भविष्य के लिए निराशा जनक है। दो माह से चल रही सांप्रदायिक घृणा और अब सेना में बिना पेंशन की चार वर्ष की सेवा को लेकर जो तांडव मचा हुआ है उसका श्रोत एक ही है। हमारी मानसिक सोच और बाह्य व्यवहार अब हिंसा से भर चुके हैं।गांधी की अहिंसा अब पुस्तकालय की वस्तु हो गई है। प्रजातंत्र अब सदनों से नहीं बल्कि हिंसा के संतुलन से चलेगा।

घृणा और माचिस की आग से जलता देश

इस बार राम नवमी और हनुमान जयंती पर उत्तर भारत में जो चल समारोह निकाले गए उनके तेवर सामान्य नहीं थे। दूसरे पक्ष को ये चिढ़ाने वाले संकेत संघर्ष के लिए पर्याप्त थे। तथाकथित दृढ़ संकल्प की सरकारों ने मध्ययुगीन न्याय प्रणाली अपनाते हुए इसे बुल्डोजर का आकार दिया। देश की सोच को चलाने का दावा करने वाले चैनल और सोशल मीडिया गरम बहस करते रहे। समस्या उत्पन्न करने में न्यायपालिका भी पीछे नहीं रही और ज्ञानवापी का कोर्ट कमिश्नरों द्वारा सर्वे भारतीय TV चैनलों पर दो तीन हफ़्ते तक हाहाकार करने के लिए पर्याप्त था। आदतन केवल पीछे देखने वाले लोग ऐतिहासिक भूलों को पलटने का स्वर्णिम स्वप्न देखने लगे।

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भारतीय सेना को जवान रखने और रक्षा बजट में 30 प्रतिशत से ऊपर पेंशन की समस्या पर पिछले 20 वर्षों से विचार हो रहा है।लगभग सवा पाँच लाख करोड़ का रक्षा बजट भी भारत को अत्याधुनिक तकनीकी हथियार ख़रीदने या बनाने की गुंजाइश नहीं छोड़ता है। हम से पाँच छह गुनी बढ़ी अर्थव्यवस्था वाला चीन जहाँ हँसते हुए रक्षा व्यय करता है वहीं हमें अपना पेट काटकर अपनी रक्षा करनी पड़ती है।

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इसके लिए अनेक संसदीय समितियों ने विचार किया है। अब मोदी सरकार ने अपने गर्वीली शैली में इस योजना की घोषणा कर दी है। यह घोषणा बिना किसी सार्वजनिक रूप से लंबी चर्चा व बिना नवयुवको सहित सभी संबंधित लोगों से खुली मंत्रणा किये की गई। यह भी संभव है कि चर्चा से कोई आम सहमति निकलने के दिन अब चले गए हैं और इसलिए सरकारें एकतरफ़ा घोषणा कर रही हैं। जो नौजवान बिहार, उत्तर प्रदेश और अन्य राज्यों में आग लगा रहे हैं वे इसकी घोषणा के तरीक़ों पर विस्मित नहीं है और न ही इस हिंसक भीड़ में सभी भारतीय सेना में जाने के इच्छुक है।यह तो व्यापक सुरसा की तरह बढ़ती हुई बेरोज़गारी की पीड़ा का एक प्रदर्शन है। दुर्भाग्यवश यह प्रदर्शन हिंसात्मक प्रवृत्ति से हो रहा है।हमारी आध्यात्मिक संस्कृति के साथ साथ हिंसात्मक उन्माद की प्रवृत्ति हमारे अंदर बसी है।


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सभी राजनैतिक पार्टियों का वर्तमान सिद्धांत यह है कि कहीं भी किसी प्रकार का कोई विरोध हो, उसका समर्थन करना उनका धर्म है। विपक्ष में बीजेपी ने भी यही किया था और अब उसे उसी का प्रतिफल मिल रहा है। कृषक आंदोलन की सड़कों पर बनी बनायी भीड़ देखकर कांग्रेस पार्टी अपने घोषणा पत्र को फेंक कर उस के समर्थन में खड़ी हो गई थी। स्थिति इतनी भयावह हो गई है कि भारत में अब किसी भी क्षेत्र में कोई सुधार करना किसी भी पार्टी की सरकार के बस में नहीं रह गया है। बीजेपी ने विपक्ष में रहते हुए अनेक सुधार के कार्य नहीं होने दिये थे। वर्तमान में विपक्ष उन्हीं पदचिह्नों पर चलते हुए सुधार की किसी नई हरी घास पर मट्ठा डालने का काम सदैव करता रहेगा और इसके लिए उसे तर्कों की कोई कमी नहीं पड़ेगी। वर्तमान और भविष्य की सरकारों के लिए यथास्थिति में चलते रहना ही सर्वश्रेष्ठ विकल्प होगा। विभिन्न विषयों पर सार्वजनिक संपत्ति की आहूति हमारी अंतरात्मा को कभी विचलित नहीं करेगी। देश इक्कीसवीं शताब्दी की ऊर्जा के साथ क़दमताल नहीं कर पा रहा है जिसका पाँचवा हिस्सा व्यतीत हो चुका है।