अटकलों की राजनीति का सहारा

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आपको मानना ही पडेगा कि भाजपा ‘लाजबाब’ पार्टी है| कांग्रेस उसका मुकाबला करने के बारे में सोच भी नहीं सकती| राजनीति के शेयर बाजार में जैसे ही भाजपा के भाव गिरते दिखाई देते हैं वैसे ही पार्टी नेतृत्व ‘अटकलों’ के जरिये न सिर्फ बाजार गर्म कर देता है, बल्कि अपने शेयरों के भावों में भी उछाल ले आता है| पार्टी के संसदीय बोर्ड से दो वरिष्ठ नेताओं नितिन गड़करी और शिवराज सिंह चौहान को बाहर का रास्ता दिखाकर यही सब किया गया है|

कहने को पार्टी की ये कार्रवाई एक नियमित प्रक्रिया से ज्यादा कुछ नहीं है, लेकिन अब पार्टी के भीतर और बाहर अटकबाजियां शुरू हो गयीं हैं| हकीकत का पता किसी को नहीं है, सिवाय पार्टी अध्यक्ष और उनके रिंग मास्टर के| गडकरी और शिवराज पार्टी का उदारवादी मुखौटा हैं, किन्तु कुछ दिनों से अचानक चर्चामें आ गए थे| केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी ने राजनीति की मौजूदा दशा और दिशा पर दर्शन झाड़ना शुरू कर दिया था और ऐसे संकेत दिए थे जिससे पंतप्रधान और उनके हनुमान चिंतित हो गए थे| समझा जा रहा है कि शायद इसी वजह से गडकरी को किनारे कर दिया गया|

मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री न किसी ‘तीन में हैं न तेरह’ में फिर भी उन्हें शंट किया गया| क्यों किया गया, पता नहीं, अब लगाते रहिये अटकलें| राजनीतिक के शोधक खोजकर ले आये कि शिवराज सिंह चौहान को चूंकि 2014 में तत्कालीन शीर्ष नेता लालकृष्ण आडवाणी ने संसदीय बोर्ड में शामिल कराया था, इसलिए उन्हें हटाया गया है| अब कोई इन अक्ल के दुश्मनों से नहीं पूछ सकता कि यदि आडवाणी से शिवराज के रिश्ते इसकी वजह हैं तो क्या मोदी-शाह की जोड़ी इतनी भोली है कि उन्हें पिछले लगातार 8 साल से लगातार झेल रही है| तब भी झेल रही है जबकि वे 2018 का विधानसभा का विधानसभा चुनाव भी नहीं जिता सके!

गड़करी और शिवराज सिंह को मुमकिन है कि उन वजहों से ही हटाया गया हो जिनके बारे में राजनीति का शेयर बाजार अटकलें लगा रहा है| किन्तु उन्हें हटाए जाने की दूसरी वजहें भी तो हो सकती हैं? क्या ये नहीं हो सकता कि ये सब राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की किसी खुफिया रिपोर्ट के बाद किया गया हो? क्या ये मुमकिन नहीं कि इन दोनों को 2024 के लिए मोदी-शाह का विकल्प बनाने की दृष्टि से आजाद किया गया हो? अटकलें तो अटकलें हैं| कोई भी लगा सकता है| अटकलें होती ही लगाने के लिए हैं| अटकलें न हों तो देश की राजनीति नीरस न हो जाएगी|

राजनीति में अटकलों का चलन नया नहीं है, किन्तु भाजपा ने इस अटकलबाजी की कला में महारत हासिल कर ली है| भाजपा जब से सत्ता में आयी है तभी से उसने अटकलबाजी को खासा महत्व दिया है| आप कुछ फैसले इस तरह के करते रहिये कि लोग बस अटकलें लगते रह जाएँ| अटकलों की हवा में दूसरे असल मुद्दे गौण हो जाते हैं |इस समय पार्टी बिहार में झटका खाकर निंदा का शिकार हो रही है| भाजपा के ऊपर चारों और से हमले बढ़ गए थे, इसका सामना करने के लिए संसदीय बोर्ड में फेरबदल कर लोगों को अटकलों में उलझाना शायद जरूरी था. भाजपा इस प्रयोग में एक बार फिर कामयाब रही|

भाजपा से पहले बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भाजपा से छोड़-छुट्टी कर अटकलों का बाजार गर्म किया था| लोग अटकलें लगा रहे हैं कि नीतीश बाबू अब विपक्ष को एक करेंगे, यूपीए के अध्यक्ष बनेंगे या फिर 2024 में विपक्ष कि और से प्रधानमंत्री पद के साझा उम्मीदवार होंगे| अब ये सब होगा या नहीं, ये कोरी अटकल है| मुमकिन है कि ऐसा हो, और मुमकिन है कि ऐसा न भी हो| अनिश्चय के इसी स्थायी भाव को अटकल कहते हैं| अटकलें लगाने की क्रिया अटकलबाजी होती है|

कांग्रेस के कार्यकाल में जितने भी प्रधानमंत्री हुए उनमें से सर्वाधिक अटकलें तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के दौर में लगाईं जाती थीं. उनके हर फैसले के आगे- पीछे अटकलें ही अटकलें होती थीं| अटकलबाज नेता हमेशा सुर्ख़ियों में रहता है| सुर्ख़ियों में रहने के लिए अटकलें एक अनिवार्य तत्व है| जिस नेता ने अटकल का मर्म समझ लिया उसे ये देश कभी नहीं समझ पाया| अटकलें सरस् भी होती हैं और चटपटी भी | इसीलिए इन्हें पसंद किया जाता है|

बहरहाल बात लौट फिरकर आती है कि क्या मोदी-शाह की जोड़ी गड़करी और शिवराज सिंह चौहान से भयभीत है? क्या इन दोनों को किसी रणनीत के तहत संसदीय बोर्ड से अलग किया गया है? आप ये क्यों ध्यान में नहीं रख रहे कि भाजपा के पुनर्गठित संसदीय बोर्ड में कोई भी मुख्यमंत्री नहीं है| ऐसे में अकेले शिवराज सिंह चौहान भला वहां क्या करते? मुमकिन है कि उन्हें 2013 में राज्य विधानसभा चुनाव और 2024 के लोकसभा चुनाव के मद्देनजर ही संसदीय बोर्ड कि गुरुतर जिम्मेदारियों से मुक्त किया गया हो! इसी तरह बोर्ड से मोदी- शाह के लिए अभी भी वरिष्ठता के लिहाज से विकल्प माने जाने वाले राजनाथ सिंह भी तो नहीं हटाए गए ?उन्होंने भी तो पंडित जवाहर लाल नेहरू की तारीफ़ की थी|

मुझे अक्सर लगता है कि भाजपा एक बेहतर ‘केलकुलेटिव्ह’ पार्टी है और हमेशा दस साल आगे की सोचकर रणनीति बनाती है| भाजपा के संसदीय बोर्ड में तब्दीली इसी गणना आधारित राजनीति का एक अंग है| लेकिन इस फैसले को लेकर अटकलें लगाने का हक सभी को है| अटकलों में फंसा मीडिया और अवाम अक्सर सही और गलत का भेद करने में गलती कर जाता है और इसका लाभ भाजपा को हर बार मिलता है| कांग्रेस के पास इस तरह की अटकलबाजियों के शानदार,जानदार शिगूफे शायद हैं ही नहीं| यदि हैं भी तो कांग्रेस इन सबका इस्तेमाल नहीं कर पा रही है, इसीलिए उसके हिस्से में लगातार असफलताएं आ रहीं हैं|

पिछले कुछ वर्षों में भाजपा और कांग्रेस की रणनीति में कोई तुलनात्मक बिंदु बना ही नहीं है| रणनीति बनाने और उसपर अमल करने में भाजपा कल भी इक्कीस थी और आज भी इक्कीस ही है| कांग्रेस को इसके लिए बाइस होना पड़ेगा| कांग्रेस ऐसा कब कर पाएगी, राम ही जाने!