मध्य प्रदेश की राजनीति में शिव पुराण के मायने

1419

इन दिनों मध्यप्रदेश की राजनीति में सबसे अधिक चर्चा शिव पुराण की है। वह नहीं जो सीहोर के प्रख्यात पंडित प्रदीप मिश्रा कहते हैं, बल्कि वह जो राजनीतिक गलियारों में सुनी-सुनाई जा रही है। यह पुराण मप्र के इतिहास में बतौर मुख्यमंत्री अब तक के सबसे अधिक समय तक राज करने वाले शिवराज सिंह चौहान को लेकर है। एक तरफ उनके जाने के चर्चे हैं तो दूसरी तरफ ज्योतिरादित्य सिंधिया के आगमन की आहट है। इन दोनों ही महानुभावों के दैनंदिन के व्यवहार पर अब प्रेक्षकों की नजरें गड़ी रहती है, जिसमें एक संदेश समान रूप से परिलक्षित हो रहा है। दोनों ही अपेक्षाकृत अधिक विनम्र,मिलनसार प्रतीत हो रहे हैं । प्रयोजन अलग हैं। एक को कुछ पाने की आस है। दूजे को कुछ खो जाने का अंदेशा है। ये परिवर्तन किसके हक में कितने असरकारी साबित होंगे, देखते हैं।

मध्य प्रदेश की राजनीति में शिव पुराण के मायने

      सत्ता का यह स्था्यी भाव है कि जब व्यक्ति निश्चिंत स्थिति में होता है, तब चाल-ढाल सब अलग होती है और जब मुश्किल में होता है तो विनम्रता अनायास बढ़ जाती है। ज्योतिरादित्य सिंधिया को लेकर हमेशा से मान जा्ता रहा कि उनमें राजशाही ठसक कुछ ज्यादा ही है। कांग्रेस में उनके इसी रवैये को लेकर संभवत: असहजता बनी रही। भाजपा में आने के बाद से उनमें चमत्कारी बदलाव साफ महसूस किया गया। वे कभी संघ की शऱण में जाते हैं तो कभी ताई(सुमित्रा महाजन,पूर्व लोकसभा अध्यक्ष) का हथ पकड़कर कार तक छोड़ने आते हैं। कभी क्रिकेट की राजनीति में अपने चिर प्रतिदंवद्वी कैलाश विजयवर्गीय के घर उनके न होने पर तो दोबारा उनके होने पर जाकर साथ भोजन साथ करते हैं। कभी वे नरोत्तम मिश्रा से मिलते हैं तो कभी प्रहलाद पटेल को अभिवादन कर आते हैं। कभी क्रिकेट के मंच पर कैलाश को हाथ पकड़कर बिठाते हैं तो कभी आम कार्यकर्ता के कंधे पर हाथ रखकर बात करते हैं। बदले-बदले सरकार की इन भंगिमाओं में कोई भला राजनीतिक तकाजा क्यों न देखे? तब यह कहने में आ ही जाता है कि वे मप्र की राजनीति में लोकप्रियता का तड़का लगाना चाह रहे हैं। शिवराज की समूचे प्रदेश में मामा की छवि के बीच सिंधिया किस तरह से महाराज के कलेवर से निकल कर जननेता के आवरण का वरण कर पाते हैं,इसका ही अभ्यास शायद चल रहा हैं।

मध्य प्रदेश की राजनीति में शिव पुराण के मायने

     भाजपा के बीच यह माना जाता है कि शिवराज सिंह चौहान अपने चौथे मुख्यमंत्रित्वकाल में दल के भीतर सबको साध नहीं पाये, न साथ लेकर चल पाये। ऐसी धारणा है कि आम कार्यकर्ता से लेकर तो वरिष्ठ नेता तक किसी को अहमियत न देकर वे चंद नौकरशाहों के भरोसे सरकार चला रहे हैं। 2018 के विधानसभा चुनाव में उनके नेतृत्व में मिली पराजय के बावजूद 2020 में पुन: सत्ता सौंपने को केंद्र से मिला अभयदान माना या अपने को प्रदेश भाजपा में अपरिहार्य मान लिया, ऐसा लगता है। मार्च 2020 में जब प्रदेश में सत्ता परिवर्तन हो रहा था,तब अटकलें तो यही थीं कि सिंधिया मुख्यमंत्री बनाये जायेंगे, किंतु पासा एकदम से शिवराज के पक्ष में पड़ गया, जिसने चौहान को मत चूके का मंत्र दे दिया। इधर सिंधिया की सक्रियता के बढ़ने के साथ ही शिवराज की विनम्रता भी सहसा बढ़ गई। लोगों से मेलजोल बढ़ा है। अधिकारियों को फटकार लगाई जा रही है। वरिष्ठों को साधा जा रहा है। ताई को मुद्दाम हेलिकॉप्टर भेजकर भोपाल बुलाकर चर्चा करने को इसी रूप में देखा गया। बीच में जब वे दिल्ली भी गये थे तो अनेक वरिष्ठ नेताओं से मिलकर आये थे। इतना ही नहीं तो हटाये जाने की चर्चाओं के दरम्यान उनके एक बयान की भी खासी चर्चा रही, जिसमें उन्होंने कहा था कि पार्टी यदि उन्हें दरी बिछाने का कहेगी तो वो भी करेंगे। यहीं पर अंदेशा सक्रिय होता है कि उन्हें अपने को निचले स्तर का कार्यकर्ता मानने की अचानक जरूरत क्यों पड़ी?


बदलता भारत:9- क्या आर एस एस-भाजपा एक और पाकिस्तान चाहते हैं ?


मप्र में पिछले करीब एक बरस से शासन तंत्र बेहद अजीब तरीके से चल रहा है। एक तरफ शिवराज किसी समय अपने खासमखास अधिकारियों तक को मिलने का समय नहीं दे रहे थे, जिनमें कुछ तो अतिरिक्त मुख्य सचिव स्तर के आईएएस भी रहे हैं तो दूसरी तरफ कुछ जिलों के कलेक्टर इतने शक्तिशाली हो चले थे कि विधायक,सासंद तक के फोन नहीं सुनते थे, उनके काम करना तो दूर की बात है। दर्जनों आईएएस अधिकारी हफ्तों तक सीएम से समय मिलने का इंतजार करते रहे तो कई बार यह भी हुआ कि मुख्यमंत्री उनके सामने से निकल गये, लेकिन उन्होंने देखा तक नहीं। बताते हैं इन परिस्थितियों में अचानक बदलाव आया है। क्यों, यह समझने की बात है। शिवराज सिंह चौहान का अनेक मंदिरों में जाना भी किसी कामना प्राप्ति का संकेत तो देता ही है।

 वैसे अब शिवराज हटें, न हटें या कब हटें या अंतत: आगामी विधानसभा चुनाव तक बने रहे,इससे अधिक दिलचस्प मोड़ यह आ चुका है कि प्रतीक्षारत मुख्यमंत्रियों के बीच होड़ प्रारंभ हो चुकी है। ये परस्पर न होकर अपने-अपने भेरुजी को पूजने को ले्कर है। इनमें नरोत्तम् मिश्रा सर्वाधिक सक्रिय हैं। वे दिल्ली की लगातार परिक्रमा कर रहे हैं । वे अपने लोगों के बीच पर्याप्त आश्वस्त हैं और वे लोग आशान्वित है कि इस बार प्रदेश में दद्दा की सरकार। नरोत्तम द्वारा किसी बड़े धार्मिक अनुष्ठान की खबर भी राजधानी में दौड़ रही है।

     एक बात जरूर है कि प्रदेश में नेतृत्व परिवर्तन की खबरों के बीच यदि ऐसा हो भी जाये तो सारा रोमांच तो खत्म हो गया समझो,क्योंकि भाजपा आ्लाकमान अभी तक जो सनसनी फैलाता रहा है, वह दूर छिटक चुकी है,बशर्ते कोई नया नाम न आ जाये तो।