Law and Justice: महिलाओं की स्थिति न्यायपालिका में भी अच्छी नहीं!

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Law and Justice: महिलाओं की स्थिति न्यायपालिका में भी अच्छी नहीं!

देशभर के पच्चीस उच्च न्यायालयों में केवल 78 महिला न्यायाधीश है। वहीं पुरुष जजों की संख्या 1079 है। इसका मतलब यह है कि उच्च न्यायालयों में केवल 7 प्रतिशत महिला न्यायाधीश है। सबसे अधिक महिला जज पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय में है। आंकड़ों के अनुसार यह स्थिति चिंताजनक है। वैश्विक लैंगिक अंतराल सूचकांक 2020 में भी भारत 153 देशों में 112वें स्थान पर रहा। इससे साफ तौर पर अंदाजा लगाया जा सकता है कि हमारे देश में लैंगिक भेदभाव की जड़ें कितनी मजबूत और गहरी है। महिलाओं के रोजगार की अंडर रिपोर्टिंग की जाती है अर्थात महिलाओं द्वारा परिवार के खेतों और उद्यमों पर कार्य करने को तथा घरों के भीतर किए अवैतनिक कार्यों को सकल घरेलू उत्पाद में नहीं जोड़ा जाता।

शैक्षिक कारक जैसे मानकों पर महिलाओं की स्थिति पुरूषों की अपेक्षा कमजोर है। हालांकि, लड़कियों के शैक्षिक नामांकन में पिछले दो दशकों में वृद्धि हुई है तथा माध्यमिक शिक्षा तक लैंगिक समानता की स्थिति प्राप्त हो रही है। लेकिन, अभी भी उच्च शिक्षा तथा व्यावसायिक शिक्षा के क्षेत्र में महिलाओं का नामांकन पुरूषों की तुलना में काफी कम है। प्राप्त आंकड़ों के अनुसार देशभर के 25 हाईकोर्ट में केवल 78 महिला जज हैं। वहीं, पुरुष जजों की संख्या 1079 हैं। इसका मतलब यह है कि उच्च न्यायालयों में केवल 7 प्रतिशत महिला जज हैं। सबसे ज्यादा 11 महिला जज पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय में हैं। इंदौर में जिला जज रही न्यायाधीश श्रीमती सरोजिनी सक्सेना भी उच्च न्यायालय में न्यायाधीश बनकर पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय में पदस्थ हुई थी।

देश के सर्वोच्च न्यायालय में पहली महिला न्यायमूर्ति फातिमा बीबी थी। उन्होंने सन् 1989 में शपथ ली थी। वे वर्ष 1950 में भारत के बार काउंसिल की परीक्षा में सर्वोच्च स्थान प्राप्त करने वाली पहली महिला थीं। वे इन्दौर भी आ चुकी है। वे इंदौर में आयोजित महिला और कानून विषय पर आयोजित कार्यशाला में मुख्य अतिथि थी। अन्ना चांडी उच्च न्यायालय में जज बनने वाली पहली महिला थीं। अन्ना बैरिस्टर थी। उन्होंने केरल राज्य में मुंसिफ के तौर पर भी कार्य किया। केरल उच्च न्यायालय से वे न्यायाधीश के पद से सन् 1967 में सेवानिवृत्त हुई। इस प्रकार हम न्यायाधीशों के जेंडर इतिहास पर विचार करें तो हमें ज्ञात होगा कि अब तक बने कुल 256 जजों में महिला जजों की संख्या मात्र 11 (0.4 प्रतिशत) है। सर्वोच्च न्यायालय के वर्तमान केवल 33 जजों में से 4 (1.2 प्रतिशत) महिला जज हैं। यह भी उल्लेखनीय है कि सर्वोच्च न्यायालय के इतिहास में महिला जजों की सर्वाधिक संख्या है। इससे पहले सर्वोच्च न्यायालय में कभी भी एक साथ दो से ज्यादा महिला न्यायाधीश नहीं रही हैं।

यह प्रश्न पूछा जाना स्वाभाविक है कि आखिर देश को पहली महिला मुख्य न्यायाधिपति मिल सकती है अथवा नहीं। मिलेगी तो कब मिलेगी? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि फिलहाल सर्वोच्च न्यायालय में बीवी नागरत्रा वरिष्ठता के आधार पर 2027 में भारत की मुख्य न्यायाधीश बन सकती हैं। हालांकि, उनका कार्यकाल केवल 36 दिनों का ही होगा। यानी देश को अपनी पहली महिला सीजेआई की नियुक्ति के लिए अभी 2027 तक इंतजार करना होगा। न्यायमूर्ति बीवी नागरत्रा को फरवरी 2008 में कर्नाटक हाईकोर्ट की अतिरिक्त न्यायाधीश और फिर फरवरी 2010 में स्थायी न्यायाधीश बनी थी। न्यायमूर्ति नागरत्रा के पिता भी 1989 में सुप्रीम कोर्ट के 19वें चीफ जस्टिस रह चुके हैं।

संविधान के अनुच्छेद 243-डी के तहत पंचायतों में महिलाओं के लिए 50 फीसदी आरक्षण की व्यवस्था है। लेकिन, न्यायपालिका में महिलाओं के लिए 50 फीसदी प्रतिनिधित्व का हक संविधान में संशोधन या फिर न्यायिक आदेश से ही संभव है। संसद की सीटों में महिलाओं के आरक्षण पर कानून पिछले कई दशकों से लटका हुआ है, क्योंकि उसमें अन्य वर्गों के आरक्षण की मांग हो रही है। न्यायपालिका में महिलाओं के 50 फीसदी आरक्षण अभी तो असंभव प्रतीत हो रहा है। शायद की सर्वोच्च न्यायपालिका किसी दिन अपने फैसले से इस असंभव प्रतीत होने वाली नियुक्तियों को संभव बनाए।

देश की सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीश की नियुक्ति की एक लंबी प्रक्रिया है। न्यायाधीश बनने के लिए वकील होना जरूरी है। अधीनस्थ जिला न्यायालयों में राज्य न्यायिक सेवाओं में 5 फीसदी से 35 फीसदी तक आरक्षण का नियम है। बिहार में पांच साल पहले 35 फीसदी आरक्षण का कानून बनाया गया था, लेकिन वहां के अधीनस्थ न्यायालयों में महिला न्यायाधीश 11.5 फीसदी ही है। दूसरी ओर गोवा और मेघालय जैसे छोटे और प्रगतिशील राज्यों में आरक्षण के बगैर महिला जजों की संख्या 65 और 73 फीसदी है। अधीनस्थ न्यायालयों से न्यायाधीशों की नियुक्ति का होता है। लेकिन, उच्च न्यायालय तथा तत्पश्चात सर्वोच्च न्यायालय में यह एक लंबी प्रक्रिया है। महिलाओं के आरक्षण के लिए अभी तक कोई नियम या कानून नहीं है।

पूरे विश्व में कमोबेश यही स्थिति है। अमेरिका में स्थिति भारत से भी खराब है। अमेरिका की न्यायिक व्यवस्था लगभग 232 साल पुरानी है। वहां के सर्वोच्च न्यायालय में अब तक केवल 115 जज हुए हैं। इन 115 जजों में केवल 5 महिलाएं हैं। अर्थात केवल 4 प्रतिशत न्यायाधीश महिलाएं हैं। यह सुखद है कि समाज की मानसिकता में धीरे-धीरे परिवर्तन आ रहा है, जिसके परिणामस्वरूप महिलाओं से संबंधित मुद्दों पर गंभीरता से विमर्श किया जा रहा है। तीन तलाक, हाजी अली दरगाह में प्रवेश जैसे मुद्दों पर सरकार तथा न्यायालय की सक्रियता के कारण महिलाओं को उनका अधिकार प्रदान किया जा रहा है।

राजनीतिक प्रतिभाग के क्षेत्र में भारत लगातार अच्छा प्रयास कर रहा है इसी के परिणामस्वरूप वैश्विक लैंगिक अंतराल सूचकांक-2020 के राजनीतिक सशक्तिकरण और भागीदारी मानक पर अन्य बिंदुओं की अपेक्षा भारत को 18वां स्थान प्राप्त हुआ। मंत्रिमंडल में महिलाओं की भागीदारी पहले से बढ़कर 23 प्रतिशत हो गई है तथा इसमें भारत, विश्व में 69वें स्थान पर है। उम्मीद की जानी चाहिए कि किसी दिन भारत के सर्वोच्च न्यायालय में भी महिला न्यायाधीशों की संख्या नियुक्त न्यायाधीशों की संख्या का पचास प्रतिशत होगी। हम उम्मीद करें यह यथासंभव शीघ्र होगा। इस संबंध में न्यायपालिका के साथ ही भारत सरकार की भी महत्वपूर्ण भूमिका होगी।

नारीवाद का सरल शब्दों में अर्थ है कि किसी भी जाति के साथ अन्याय नहीं होना चाहिए। उन्हें समान का व्यवहार मिलना चाहिए। लेकिन, देर से ही सही, एक नए प्रकार के नारीवाद का विकास हो रहा है जिसे ठीक ही छद्म नारीवाद कहा जाता है। इसमें महिलाओं पर होने वाले सभी अन्यायों को दूर करने की बात करने में अक्सर पुरूषों को कोसने और उन्हें नीचा दिखाने की गहरी इच्छा होती है। लेकिन, ये लोग भूल जाते हैं कि नारीवादी आंदोलन का मूल सार समानता है।