Silver Screen: कोरोना काल ने बदली सिनेमा की चाल!

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Silver Screen : कोरोना काल ने बदली सिनेमा की चाल!

    कोरोना के बाद हमारे आसपास का माहौल और समाज में बहुत कुछ बदला। यह बदलाव जीवन के हर क्षेत्र में आया। लोगों का रहन-सहन बदला, सेहत के प्रति जागरूकता बढ़ी, संयुक्त परिवार के प्रति नया दृष्टिकोण पनपा और साथ में सिनेमा में कुछ नया देखने का मोह भी बढ़ा। लोगों ने लॉकडाउन में ओटीटी पर बहुत कुछ देखा और पसंद किया। इसका असर ये हुआ कि सिनेमा के दर्शकों को मनोरंजन का नया विकल्प मिला। उन्हें लगा कि अब वे फिल्मकारों और कलाकारों की पसंद से बना सिनेमा क्यों देखें! वे वही देखेंगे जो उनकी पसंद का सिनेमा होगा। कोरोना काल से पहले और उसके बाद की फिल्मों पर नजर डाली जाए तो बात साफ़ हो जाएगी कि दर्शकों की पसंद कितनी बदली। कोरोना काल से पहले कुछ साल तक छोटे शहरों पर आधारित कहानियों का बोलबाला रहा। गली बॉय, अंधाधुंध, शुभ मंगल सावधान और अंग्रेजी मीडियम जैसी फिल्मों को पसंद किया जाता रहा! लेकिन, वो एक अलग दौर था। कोरोना काल के बाद दर्शकों ने उसे नकार दिया।

 

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ऐसी कई फिल्मों के नाम गिनाए जा सकते हैं, जिनकी कहानियां पारिवारिक थी, पर ये फ़िल्में नहीं चली! कोरोना काल के बाद जो फ़िल्में पसंद की गई, उनमें कुछ अलग था। गंगूबाई काठियावाड़ी, भूल भुलैया-2, कश्मीर फाइल्स, ब्रह्मास्त्र, दृश्यम-2 और ‘ऊंचाई’ जैसी फ़िल्में दर्शकों की पसंद में शामिल हुई। गौर किया जाए हर फिल्म की कहानी कुछ अलग रही और उनमें नयापन भी रहा। इसके अलावा जो ख़ास बात थी, वो था लार्जर देन लाइफ कथानक। इनमें कोई भी फिल्म न तो प्रेम कथा थी और न बदले की भावना वाली कहानी! दर्शकों की ये बदली हुई पसंद हिंदी फिल्मों का ऐसा ट्रेंड है, जो नया है। ऐसे माहौल में संजय लीला भंसाली की ‘गंगूबाई काठियावाड़ी’ पहली फिल्म थी, जिसने दर्शकों को सिनेमाघरों तक खींचने का काम किया।

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कोरोना काल के बाद जब सिनेमाघर खुले तो सबसे बड़ी समस्या थी, कि संक्रमण से घबराए दर्शकों को उसके अंदर कैसे लाया जाए! क्योंकि, सुरक्षा के इंतजामों के अलावा उन्हें नई तरह का मनोरंजन दिया जाना भी बड़ी चुनौती थी। सिनेमाघरों ने सुरक्षा की व्यवस्था तो कर दी, पर दर्शकों की पसंद को नहीं समझ सके कि करीब दो साल तक ओटीटी के मोहजाल में फंसे दर्शकों को क्या नया दिखाया जाए! क्योंकि, शुरुआती दौर में रनवे 34, हीरोपंती-2, अटैक-2, ऑपरेशन रोमियो, जर्सी, सम्राट पृथ्वीराज, रक्षाबंधन और ‘रामसेतु’ जैसी जितनी फिल्में रिलीज हुई उनमें और कोई नहीं चली। शाहिद कपूर, जॉन अब्राहम, अक्षय कुमार, आमिर खान, टाइगर श्रॉफ और जॉन अब्राहम जैसे कलाकारों की ये सभी फिल्में फ्लॉप हुई। कंगना रनौत की धाकड़, रणवीर सिंह की जयेश भाई जोरदार, आयुष्मान खुराना की अनेक, गणेश आचार्य की देहाती डिस्को, मेजर, जनहित में जारी और अनिल कपूर की ‘थार’ जैसी फिल्में भी नहीं चली। ऐसे में ‘गंगूबाई काठियावाड़ी’ के बाद कार्तिक आर्यन और तब्बू की ‘भूल भूलैया-2’ दूसरी ऐसी फिल्म थी जो दर्शकों की पसंद पर खरी उतरी।

रणबीर कपूर जैसे कलाकार की ‘शमशेरा’ भी कमाल नहीं दिखा सकी। सच्ची कहानी पर बनी फिल्म ‘रॉकेट्री’ भी उन फिल्मों में थी, जिसे दर्शकों ने कुछ हद तक पसंद किया। लेकिन, रणबीर की ‘ब्रह्मास्त्र’ हिट की तरफ बढ़ती गई। लगातार फ्लॉप फिल्मों के बाद कुछ फिल्मों का हिट होना इस बात का सबूत है कि दर्शकों को कुछ अलग तरह मसाला चाहिए। अभी तक फिल्मकार और कलाकार दर्शकों को मूर्ख समझने की जो भूल करते थे, उन्हें उसका सबक मिल गया। दर्शकों पर अपनी पसंद थोपने पर उन्हें मुंह की खानी पड़ती थी। फिल्मी दुनिया में माउथ पब्लिसिटी किसी फिल्म के हिट होने का सबसे बड़ा जरिया है। इसका उदाहरण ‘कश्मीर फाइल्स’ की सफलता में देखा गया। जो फिल्म शुरू में 500 स्क्रीन पर प्रदर्शित हुई, वो एक हफ्ते में चार हजार स्क्रीन्स तक पहुंच गई। अगर कंटेंट अच्छा नहीं होगा, तो दर्शक सिनेमाघरों में फिल्में देखने नहीं जाएंगे। लेकिन, उन्हें वहां तक लाने के लिए थिएटर वाली फीलिंग दिलाना भी जरूरी है। कोरोना काल के बाद जो फ़िल्में हिट हुई, उनकी कहानी में नयापन था। फिर वो गंगूबाई काठियावाड़ी हो, आरआरआर हो, पुष्प या फिर ‘ब्रह्मास्त्र!’

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कोरोना काल में फिल्मों पर ओटीटी के हमले के बाद बेदम हुई फ़िल्मी दुनिया के सामने दर्शकों को सिनेमाघरों तक खींचने की जो चुनौती सामने थी, उसने फिल्म बनाने वालों को परेशानी में भी डाल दिया था। फिल्मकारों को इससे ये तो समझ में आ गया था कि हथेली में सिमट चुकी मनोरंजन की दुनिया से दर्शकों को बाहर निकालकर सिनेमाघरों तक पहुंचाना आसान नहीं होगा। इसके लिए कुछ नया जादू दिखाना होगा। वो जादू रहा भव्य सिनेमा। उसी से सिनेमाघर में दर्शक आ सकते थे। एसएस राजामौली ने ‘आरआरआर’ बनाकर ये साफ कर दिया कि अगर दर्शकों को सिनेमाघर तक लेकर आना है, तो उसके लिए भव्य सिनेमा बनाना ही होगा। बड़ा बजट, बड़े-बड़े कलाकार, कुछ अलग सा कथानक और भव्यता ही आज के समय की मांग हैं। फिर आई ‘पुष्पा’ उसके बाद ब्रह्मास्त्र जिसका केनवस बहुत बड़ा था। निर्माताओं को समझ आ गया जो दर्शक पांच या छह सौ रुपए टिकट पर खर्च करेगा उसे भव्यता का अनुभव कराने के साथ फुल एंटरटेनमेंट तो देना ही होगा। यदि वह नहीं दिया गया तो दर्शकों को ओटीटी के मायाजाल से बाहर निकालना आसान नहीं होगा!

ऐसा नहीं कि पहले भव्य सिनेमा नहीं बना! समय काल के दौर में भव्यता का पैमाना अलग-अलग रहा। इसकी शुरुआत ‘मुगले आजम’ से हुई थी और लंबे समय तक ये दौर चला। सत्तर और अस्सी के दशक में मल्टीस्टारर फिल्में खूब बनी और चली भी। लेकिन, 90 के दशक के बाद से इसमें कमी आई। फिर भी भव्य फ़िल्में तो उंगलियों पर गिनी जाने वाली ही बनाई गई। यश चोपड़ा, रामानंद सागर, करण जौहर, संजय लीला भंसाली और साजिद नाडियादवाला जैसे फ़िल्मकारों ने बड़े बजट और बड़े स्केल की फिल्में बनाकर दर्शकों को सिनेमाघरों तक खींचने का सिलसिला बनाए रखा। हाल के सालों में राजामौली की ‘बाहुबली’ और उसकी सीक्वल ऐसी फिल्म रही, जिसे दर्शकों ने थिएटर में देखना ही पसंद किया। एक समय था जब कहा जाने लगा था कि ओटीटी के जादू से बड़े परदे का चार्म खत्म हो जाएगा। लेकिन, कोरोना के बाद पुष्पा, गंगूबाई काठियावाड़ी, आरआरआर और कश्मीर फाइल्स, ऊंचाई और दृश्यम-2′ जैसी फिल्मों की सफलता से लगता है कि बड़े पर्दे का जादू पूरी तरह खत्म नहीं होने वाला। क्योंकि, ओटीटी आपके घर में और आपकी जेब में है। आप कभी भी देख सकते हैं लेकिन भव्य फिल्मों का मज़ा बड़े पर्दे पर ही आता है।

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सफल हुई फिल्मों से एक बेंचमार्क जरूर सेट हुआ है। अब आने वाली फिल्मों को भी उसी नजरिए से देखा जाएगा। इसलिए अब निर्माताओं को बड़ा मनोरंजन देना ही होगा! यही कारण है कि समलैंगिक संबंधों पर बनी सीरियस फिल्म बधाई दो, मिस्टर परफेक्ट यानी आमिर खान की लालसिंह चड्ढा, अक्षय कुमार की सम्राट पृथ्वीराज, बच्चन पांडे, रक्षा बंधन और ‘रामसेतु’ जैसी फ़िल्में लगातार फ्लॉप हुई। इससे ये ग़लतफ़हमी जरूर दूर हुई कि फ़िल्में सिर्फ स्टार वैल्यू से चलती हैं। यदि ऐसा होता तो आमिर, शाहरुख, अक्षय से लगाकर सलमान खान तक की फिल्में फ्लॉप क्यों होती! अब दर्शक वही फ़िल्में देखने थिएटर में जाएंगे जिसका मज़ा उन्हें ओटीटी या छोटी स्क्रीन पर नहीं आएगा। अब मेकर्स को लगने लगा है कि अगर फिल्म को एक इवेंट नहीं बनाएंगे, अगर वो लार्जर देन लाइफ वाली फीलिंग नहीं देंगे तो बात नहीं बनेगी। एक जमाना था जब मल्टीस्टारर फिल्में बनती थीं, लोग इंतजार करते थे, थिएटर में जाते थे और फिल्में हिट हो जाती थीं। साउथ तो पहले ही इस दिशा में आगे बढ़ चुका है। ऐसे में बॉलीवुड को कमर कसनी होगी। ये ट्रेंड कभी आउट ऑफ फैशन नहीं होगा। 90 के दशक से हमने ऐसी फिल्में बनानी बंद की थी, लेकिन अब उनकी वापसी होगी!

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हेमंत पाल

चार दशक से हिंदी पत्रकारिता से जुड़े हेमंत पाल ने देश के सभी प्रतिष्ठित अख़बारों और पत्रिकाओं में कई विषयों पर अपनी लेखनी चलाई। लेकिन, राजनीति और फिल्म पर लेखन उनके प्रिय विषय हैं। दो दशक से ज्यादा समय तक 'नईदुनिया' में पत्रकारिता की, लम्बे समय तक 'चुनाव डेस्क' के प्रभारी रहे। वे 'जनसत्ता' (मुंबई) में भी रहे और सभी संस्करणों के लिए फिल्म/टीवी पेज के प्रभारी के रूप में काम किया। फ़िलहाल 'सुबह सवेरे' इंदौर संस्करण के स्थानीय संपादक हैं।

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